Wednesday 27 December 2017

सिनेमा के 'दाग'...(2017's 10 Worst Hindi Films)


बादशाहो
जिस फिल्म का टाइटल ही बेमतलब, बकवास और सिर्फ बोलते वक़्त वजनी लगने की गैरत से रख दिया गया हो, फिल्म की कहानी से कुछ लेना-देना न हो, उस फिल्म से बनावटीपन और थकाऊ मनोरंजन के सिवा आप चाहते भी क्या थे? तकलीफ ये है कि लाखों (उस वक़्त के हिसाब से) के सोने की कीमत और अहमियत बार-बार बताने वाली 'बादशाहो', अपनी चीख-पुकार, चिल्लाहट से सोने के असली सुख से भी आपको वंचित रखती है. वरना सवा दो घंटे की नींद भी कम फायदे का सौदा नहीं होती!

गोलमाल अगेन
हिंदी फिल्मों में कॉमेडी का स्तर कुछ इस तलहटी तक जा पहुंचा है, कि रोहित शेट्टी की नयी फिल्म 'गोलमाल अगेन' देख कर सिनेमाहॉल से निकलते हुए ज्यादातर सिनेमा-प्रेमी एक बात की दुहाई तो ज़रूर देंगे, "कम से कम फिल्म में फूहड़ता तो कम है, हंसाने के लिए द्विअर्थी संवादों का इस्तेमाल भी तकरीबन ना के बराबर ही है". हालाँकि जो मिलता है, उसी से समझौता कर लेने और संतुष्ट हो जाने की, हम दर्शकों की यही प्रवृत्ति ही 'गोलमाल' की गिरती साख (जो पहली फिल्म से शर्तिया तौर पर बनी थी) और हंसी के लगातार बिगड़ते ज़ायके के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है. सिर्फ अश्लीलता न होने भर की वजह से 'गोलमाल अगेन' को 'पारिवारिक' और 'मनोरंजक' कह देना महज़ एक बचकानी टिप्पणी नहीं होगी, बल्कि हमारी कमअक्ली का एक बेहतरीन नमूना भी. 

राब्ता
'राब्ता' देखते हुए एक ख्याल बार-बार दिमाग में हथौड़े की तरह बजता है कि आखिर कोई भी समझदार इस तरह की बेवकूफ़ी भरी, घिसी-पिटी, वाहियात कहानी पर फिल्म बनाने और उसमें काम करने के लिए राजी क्यूँ, और क्यूँ होगा? फिर याद आये इस फिल्म से निर्देशन में कदम रख रहे दिनेश विजान साब, जो खुद 'बीइंग सायरस', 'लव आज कल', 'कॉकटेल', 'बदलापुर' और 'हिंदी मीडियम' के प्रोड्यूसर रह चुके हैं, और फिर अचानक ही मन की सारी शंकायें, दुविधाएं झट काफ़ूर हो गयीं. 'बॉस हमेशा सही होता है' की तर्ज़ पर एक कहावत फिल्म इंडस्ट्री में भी बहुत मशहूर है, 'मेरा पैसा, मेरा तमाशा'. पैसों की गड्डियों के नीचे दबी डेढ़ सौ पेज की स्क्रिप्ट में खामियां किसे दिखतीं भला. 

फुकरे रिटर्न्स
2013 में मृगदीप सिंह लाम्बा की 'फुकरे' ने दिल्ली के ख़ालिस लापरवाह लौंडों, उनकी छोटी-छोटी तिकड़मों और उनके बेबाक 'दिल्ली-पने' से आपको खूब गुदगुदाया होगा, तब उंगलियाँ नर्म थीं उनकी, चेहरे मासूम और कोशिशें ईमानदार. 4 साल बाद, 'फुकरे रिटर्न्स' में गुदगुदाने की कोशिश करने वाली वही उंगलियाँ अब चुभने लगी हैं. कोशिशें औंधें मुंह गिर पड़ती हैं और फिल्म में मासूमियत की जगह अब भौंडेपन ने ले ली है. नंगे पिछवाड़ों पर सांप डंस रहे हैं, और किरदार चूस-चूस कर उनका ज़हर निकाल रहे हैं. ऐसे दृश्य 'ग्रेट ग्रैंड मस्ती' जैसों में तो बड़ी बेशर्मी से फिट हो ही जाते हैं, यहाँ क्या कर रहे हैं? समझ से परे है.

सरकार 3 
‘फैक्ट्री’ बंद हो चुकी है. ‘कम्पनी’ खुल गयी है. बाकी का सब कुछ वैसे का वैसा ही है. पुराने माल को उसी पुराने बदरंग पैकेजिंग में डाल कर वापस आपको बेचने की कोशिश की जा रही है. अपनी ही फिल्म के एक संवाद ‘मुझे जो सही लगता है, मैं करता हूँ’ को फिल्ममेकर राम गोपाल वर्मा ने अपनी जिद बना ली है. ‘सरकार 3’ जैसी सुस्त, थकाऊ और नाउम्मीदी से भरी तमाम फिल्में, एक के बाद एक लगातार अपने ज़माने के इस प्रतिभाशाली निर्देशक को उसके खात्मे तक पहुंचाने में मदद कर रही हैं. तकनीकी रूप से फिल्म-मेकिंग में जिन-जिन नये, नायाब तजुर्बों कोरामगोपाल वर्मा की खोज मान कर हम अब तक सराहते आये थे, वही आज इस कदर दकियानूसी, वाहियात और बेवजह दिखाई देने लगे हैं कि दिल, दिमाग और आँखें परदे से बार-बार भटकती हुई अंधेरों में सुकून तलाशने लगती है. और ऐसा होता है, क्यूंकि रामगोपाल वर्मा के सिनेमा की भाषा अब बासी हो चली है. पानी ठहरा हुआ हो, तो सड़न पैदा होती ही है. अपने दो सफल प्रयासों (सरकार और सरकार राज) के बावजूद, ‘सरकार 3’ से उसी सड़न की बू आती है.

मशीन
Machine retreads formula tropes that, by all reckoning, went out of vogue in the last millennium. They look completely out of place in a film that aspires to give Bollywood a male star of the future. Mustafa plays an anti-hero who is accused by the heroine of being a machine - heartless. This charge is levelled against him in the dying minutes of the film. But it doesn't take the audience that long to figure out that Machine is pure drivel - mindless and pointless. (Saibal Chatterjee, Noted Film Critic)

जुड़वाँ 2
बॉलीवुड का एक ख़ास हिस्सा बार-बार बड़ा होने से और समझदार होने से इनकार करता आ रहा है. डेविड धवन भी उनमें शामिल हो चले हैं. डेविड के लिए मनोरंजन के मायने और तौर-तरीके अभी भी वही हैं, जो 20-25 साल पहले थे. हंसी के लिए ऐसी फिल्में मज़ाक करने से ज्यादा, किसी का भी मज़ाक बनाने और उड़ाने में ख़ासा यकीन रखती हैं. तुतलाने वाला एक दोस्त, 'तोतला-तोतला' कहकर जिस पे कभी भी हंसा जा सके. 'पप्पू पासपोर्ट' जैसे नाम वाले किरदार जो अपने रंगभेदी, नस्लभेदी टिप्पणी को ही हंसी का हथियार बना लेते हैं. लड़कियों को जबरदस्ती चूमने, छेड़ने और इधर-उधर हाथ मारने को ही जहां नायक की खूबी समझ कर अपना लिया जाता हो, अधेड़ उम्र की महिलाओं को 'बुढ़िया' और 'खटारा गाड़ी' कह के बुलाया जाता हो. मनोरंजन का इतना बिगड़ा हुआ और भयावह चेहरा आज के दौर में भी अगर 'चलता है', तो मुझे हिंदी सिनेमा के इस हिस्से पर बेहद अफ़सोस है.

हसीना पारकर 
The most interesting part of the film comes right in the end when, accompanying the closing credits, we get a sepia-tinted series of photographs of the real people depicted in this story. Those pictures would have held far more meaning for us though if Haseena Parkar had breathed life into its characters. Sadly, we don't learn much more about them from watching the film in its entirety, than if we had spent about two hours scouring newspaper archives or just staring at those pics. (Anna MM Vetticad, Noted Film Critic)

ट्यूबलाइट 
'ट्यूबलाइट' के होने की वजह मेरे हिसाब से 'बजरंगी भाईजान' की कामयाबी में ही तलाशी गयी होगी. चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने कबीर खान के हाथ अब एक ऐसा अमोघ फार्मूला लग गया था, जिसमें बॉक्स-ऑफिस पर सिक्कों की खनक पैदा करने की हैसियत तो थी ही, आलोचकों और समीक्षकों का मुंह बंद कराने की ताकत और जुड़ गयी. एक सीधी-सादी दिल छू लेने वाली कहानी, थोड़ा सा 'बॉर्डर-प्रेम' का पॉलिटिकल तड़का, चुटकी भर 'बीइंग ह्यूमन' का वैश्विक सन्देश और साफ़ दिल रखने की तख्ती हाथों में लेकर घूमते एक बेपरवाह 'भाईजान'. 'ट्यूबलाइट' बड़े अच्छे तरीके और आसानी से इसी ढर्रे, इसी तैयार सांचे में फिट हो जाती है, पर जब आग में तप कर बाहर आती है तो नतीज़ा कुछ और ही होता है. मिट्टी ही सही नहीं हो, तो ईटें भी कमज़ोर ही निकलती हैं. 

हाफ गर्लफ्रेंड 
कुछ लोगों को साहित्य और सिनेमा के नाम पर कुछ भी परोसने की लत लग चुकी है. ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ बनाने के पीछेमोहित सूरी की वजह थी, इसी नाम से चेतन भगत की ‘बेस्टसेलिंग’ किताब; पर चेतन भगत के लिए ‘हाफ़ गर्लफ्रेंड’लिखने की क्या माकूल वजह थी, मुझे नहीं समझ आता. एक ऐसी किताब, जिसके किरदारों में न रीढ़ की हड्डी हो, न दिमाग़ की नसें, न कायदे के कुछ ठीक-ठाक ज़ज्बात, आखिर क्यूँ कर कोई पढ़ेगा और फिर परदे पर देखेगा भी? तमाम प्रेम-कहानियों में दो आधे-अधूरे मिल कर एक हो ही जाते हैं, ‘हाफ़ गर्लफ्रेंड’ इतनी वाहियात है कि आधा और आधा मिल के भी आधे-अधूरे ही रहते हैं.

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