फ़िल्म और कहानी के तौर पर 'फिरंगी' से ज्यादा उम्मीदें न रखने का एक फायदा तो होता है; अपने खर्चीले प्रॉडक्शन डिजाईन, बेहतर कैमरावर्क और कसे हुए स्क्रीनप्ले से फिल्म के पहले 15-20 मिनट आपको इतना उत्साहित कर देते हैं कि आप 'कपिल शर्मा की फिल्म' को एक अलग ही नजरिये से देखने लगते हैं. यकीन मानिए, शुरूआती रुझानों से इन पहले 15-20 मिनटों की फिल्म को 'लगान' जैसी क्लासिक फिल्म से तौल कर देखने की भूल कोई भी बड़ी आसानी से कर लेगा, पर असली इम्तिहान की घड़ी तो उसके कहीं बाद शुरू होती है. 'फिरंगी' अभी भी ढाई घंटे बची रहती है, और कुल मिला कर अपने 2 घंटे 40 मिनट के लम्बे सिनेमाई वक़्त में आपको पूरे तबियत से झेलाती है.
अपनी पहली फिल्म 'किस किसको प्यार करूं?' में अपने ख़ास कॉमेडी अंदाज़ को भुनाने के असफल प्रयास के बाद, कपिल शर्मा इस बार 'फिरंगी' में थोड़े संजीदा दिखने और लगने की कोशिश करते हैं. फिल्म देश की आजादी से 26 साल पहले के साल में घूमती है, जहां एक तरफ लोग गांधीजी की आवाज़ पर अंग्रेजों से असहयोग की लड़ाई लड़ रहे हैं, वहीँ एक सीधा सादा नौजवान ऐसा भी है, जो अंग्रेजों को इतना बुरा भी नहीं मानता. आख़िरकार इस निठल्ले मंगा (कपिल शर्मा) को अँगरेज़ अफसर के यहाँ नौकरी जो मिली है, वर्दी वाली. मंगा का भरम तब टूटता है, जब अय्याश राजा साब (कुमुद मिश्रा) के साथ मिलकर उसके अपने डेनिएल्स साब (एडवर्ड सोननब्लिक) गाँव की जमीन हथियाने के लिए धोखे से मंगा का ही इस्तेमाल कर लेते हैं. मंगा के हिस्से सिर्फ गाँव वालों का विश्वास तोड़ने का इलज़ाम ही नहीं है, सरगी (इशिता दत्ता) के साथ उसकी शादी भी अब होने से रही.
'फिरंगी' अपने किरदारों के बातचीत, लहजों और 1920 के ज़माने के गंवई रहन-सहन को यकीनी तौर पर सामने रखने में काफी हद तक कामयाब रहती है. हालाँकि 'लगान' के साथ उसका मेल-जोल सिर्फ दृश्यों की बनावट, रंगत और सूरत तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि धीरे-धीरे आपको पूरी फिल्म ही 'लगान' की नक़ल लगने लगती है. कहानी कहने के लिए बच्चन साब की आवाज़ का इस्तेमाल हो या अँगरेज़ अफसर के हाथों कठपुतली बनते राजा साब के फर्ज़ी तेवर; 'फिरंगी' हर दृश्य गढ़ने के लिए जैसे 'लगान' की ओर ही ताकती नज़र आती है. अफ़सोस की बात ये है कि न ही 'फिरंगी' के मंगा में 'लगान' के भुवन जितनी भूख, आग और तड़प है, ना ही 'फिरंगी' की कहानी में उतनी ईमानदारी, सच्चाई और चतुराई. ऊपर से देशप्रेम का तड़का भी नाममात्र का.
मंगा के किरदार में कपिल उस हिसाब से तो फिट दिखते हैं, जहाँ दोनों की शख्सियतों में साझा हंसी, ख़ुशी और पंजाबियत परदे पर दिखानी होती है, पर कपिल से फिल्म के नाज़ुक और संजीदा हिस्सों में अदाकारी के जौहर की उम्मीद करना फ़िज़ूल ही है. इशिता दत्ता खूबसूरत लगती हैं, और शायद उनके किरदार से फिल्म की उम्मीदें भी इतनी ही रही होंगी. एडवर्ड सोननब्लिक अच्छे लगते हैं. लन्दन में पढ़ी-लिखी राजकुमारी के किरदार में मोनिका गिल जैसे सिर्फ और सिर्फ 'लगान' की एलिजाबेथ मैडम की कमी पूरी करने के लिए हैं. कुमुद मिश्रा बेहतरीन हैं. फिल्म के दूसरे सह-कलाकारों में राजेश शर्मा, ज़मील खान, इनामुलहक और अंजन श्रीवास्तव जैसे बड़े और काबिल नाम निराश नहीं करते.
आखिर में; 'फिरंगी' एक फिल्म के लिहाज़ से उतना निराश नहीं करती, जितना कपिल शर्मा एक अदाकार के तौर पर करते हैं. कहानी फिल्म की लम्बाई के लिए छोटी पड़ जाती है, बेहतरीन प्रॉडक्शन डिजाईन लाख कोशिशों के बाद भी आपको मनोरंजन के सूखे से उबार नहीं पाता, और ख़तम होते-होते तक फिल्म को 'लगान' समझने की आपकी भूल, अब जैसे कोई जुर्म कर बैठने का एहसास कराने लगती है. [2/5]
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