4 साल बहुत होते हैं बनने-बिगड़ने के लिए. 2013 में मृगदीप सिंह लाम्बा की 'फुकरे' ने दिल्ली के ख़ालिस लापरवाह लौंडों, उनकी छोटी-छोटी तिकड़मों और उनके बेबाक 'दिल्ली-पने' से आपको खूब गुदगुदाया होगा, तब उंगलियाँ नर्म थीं उनकी, चेहरे मासूम और कोशिशें ईमानदार. 4 साल बाद, 'फुकरे रिटर्न्स' में गुदगुदाने की कोशिश करने वाली वही उंगलियाँ अब चुभने लगी हैं. कोशिशें औंधें मुंह गिर पड़ती हैं और फिल्म में मासूमियत की जगह अब भौंडेपन ने ले ली है. नंगे पिछवाड़ों पर सांप डंस रहे हैं, और किरदार चूस-चूस कर उनका ज़हर निकाल रहे हैं. ऐसे दृश्य 'ग्रेट ग्रैंड मस्ती' जैसों में तो बड़ी बेशर्मी से फिट हो ही जाते हैं, यहाँ क्या कर रहे हैं? समझ से परे है. गनीमत की बात सिर्फ इतनी है कि चूचा (वरुण शर्मा) तनिक भी बड़ा नहीं हुआ, और तब पंडित जी का छोटा सा किरदार करने वाले, पंकज त्रिपाठी की पहचान कलाकार के तौर पर अब अच्छी खासी बड़ी हो गयी है. इन दोनों के ही भरोसे फिल्म जितनी भी देर झेली जा सकती है, झेली जाती है.
बेईमान मंत्री बाबूलाल (राजीव गुप्ता) की मदद से भोली पंजाबन (रिचा चड्ढा) जेल से बाहर आ गयी है, और अब फुकरों की टोली से अपनी आज़ादी के लिए खर्च किये पैसों की भरपाई उनसे चाहती है. प्लान वही है, चूचा सपने देखेगा और हन्नी (पुलकित सम्राट) उसके सपने से लॉटरी का नंबर निकालेगा. ज़फर (अली फज़ल) और लाली (मनजोत सिंह) भी रहेंगे, पर क्यों? न कहानी में इसकी कोई बहुत ख़ास वजह मिलती है, ना ही फिल्म में. बहरहाल, प्लान फेल हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे फिल्म के बहुत सारे दोहराव वाले जोक्स. खैर, मदद को इस बार चूचे का एक नया टैलेंट सामने आता है. उसे भविष्य दिखाई देने लगा है. एक गुफ़ा, एक टाइगर, उसका बच्चा, दो राक्षस और एक गुप्त खज़ाना.
जहाँ अपनी पहली फिल्म में, मृगदीप कहानी में हास्य पिरोने का सफल प्रयोग करते हुए दिखाई दिये थे, 'फुकरे रिटर्न्स' में हास्य के अन्दर कहानी डालने की नाकाम कोशिशें करते हैं, और लगातार करते रहते हैं. बीफ़ बैन, इंडिया गेट पर योग करते राजनेता, जानवरों और अंगों की तस्करी जैसे मुद्दों का भी इस्तेमाल करते हैं, पर आखिर में एक काबिल और भरोसेमंद कहानी का अभाव इन सारी कोशिशों को मटियामेट कर देता है. इस बात का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि फिल्म के सबसे मनोरंजक दृश्यों में ज्यादातर फिल्म के सह-कलाकारों के हिस्से आये दृश्य ही शामिल हैं. यमुना नदी के काले गंदे पानी में डुबकी मार कर सिक्के बटोरने वाला आदमी हो, या भोली पंजाबन के बेरोजगार, लाचार, हिंदी बोलने वाले अफ़्रीकी गुर्गे. इनकी संगत और रंगत में आपको ज्यादा मज़ा आता है.
अली फज़ल को फिल्म में यूँ खर्च होते देखना खलता है. पूरी फिल्म में वो जैसे 'फुकरे' करने का खामियाज़ा भुगत रहे हों. फिल्म की पटकथा मनजोत के साथ भी ऐसी ही कुछ नाइंसाफी बरतती है. पुलकित सम्राट अपनी पिछली कुछ फिल्मों से बेहतर नज़र आते हैं. मुंहफट, लड़ाकू, खूंखार भोली पंजाबन की भूमिका में रिचा चड्ढा इस बार थोड़ी कमज़ोर दिखती हैं. ऐसा इसलिए भी मुमकिन है क्योंकि फिल्म उनके किरदार से कॉमेडी की उम्मीदें लगा बैठती है. आखिर में, बच-बचा के वरुण शर्मा और पंकज त्रिपाठी ही रह जाते हैं. पंकज अपनी चिर-परिचित भाव-भंगिमाओं से ही दर्शकों के चेहरे पर मुस्कान ले आते हैं, ऊपर से हर संवाद के बाद उनका एक 'फाइनल कमेंट'. इस एक अदाकार को आप घंटों एकटक देख सकते हैं, और बोर नहीं होंगे. वरुण के अभिनय की मासूमियत भी कुछ ऐसी ही है, लेकिन उनका अपने आप को बार-बार दोहराना थोड़ा निराश करता है. वरना तो 'फुकरे रिटर्न्स' के असली फुकरे वही हैं.
अंत में; लाम्बा ने यमुना पार की तंग गलियों से लेकर गुडगाँव की रेव पार्टियों तक का जिक्र और इत्र जिस चालाकी से 'फुकरे' में पेश किया था, 'फुकरे रिटर्न्स' सतही तौर ही दिल्ली को फिल्म में ढाल पाती है. गौर करने वाली एक नयी बात सिर्फ इतनी सी है कि दिल्ली का मुख्यमंत्री 'स्कैम'-विरोधी है, पैंट-शर्ट पहनता है और सिर्फ एक फ़ोन पर किसी से भी मिल सकता है. काश, फिल्म थोड़ी और दिल्ली की हो पाती, और अपने आपको कम दोहराती! [1.5/5]
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