Friday, 22 December 2017

टाइगर ज़िंदा है: ...पर कहानी का क्या? [2.5/5]

क्या आपको पता है, सी पी प्लस ('ऊपर वाला सब देख  रहा है' की टैगलाइन वाले)ब्रांड के सीसीटीवी कैमरा इराक में भी बिकते हैं? क्या आपको पता है, रॉ अपने सीक्रेट मिशन के कोडवर्ड के तौर पर हिंदी गानों का इस्तेमाल करती है? तूतू तू, तूतू तारा, आ गया दोस्त हमारा? क्या आपको पता है, आखिरी मिनटों में टाइम बम रोकने के लिए 'लाल' तार ही काटना होता है? और अगर लाल तार हो ही नहीं, तो पूरा बम निकाल फेंक देने में ही समझदारी है? क्या आपको पता है, रॉ की ही तरह पाकिस्तान की आईएसआई एजेंसी भी 'शांति' चाहती है? क्या आपको पता है, भारत और पाकिस्तान लोग जब भी मिलते हैं 'ग़दर', सानिया-शोएब और क्रिकेट की ही बातें करते हैं? 

अली अब्बास ज़फर की 'टाइगर ज़िंदा है' आपके ऐसे ढेर सारे वाहियात सवालों का गिन गिन के पूरा जवाब देती है. बस भूल जाती है तो एक अहम सवाल, "कहानी का क्या हो रहा है, भाई?". ये सवाल इसलिए भी अहम हो जाता है क्यूंकि फिल्म में एक अदद अच्छी कहानी की झलक कभी-कभी ही सही, साफ़ तौर पर दिखती है. तकलीफ ये है कि फिल्म ज्यादातर वक़्त (सलमान) भाई के स्लो-मोशन शॉट्स और गोला-बारूद के बीच फिल्माए गए एक्शन दृश्यों में ही खुले हाथों खर्च होती रहती है.  

ईराक के एक अस्पताल में आतंकवादियों ने 25 भारतीय और 15 पाकिस्तानी नर्सों को बंधक बना रखा है. भारत की ओर से एजेंट टाइगर (सलमान खान) ही है, जो इस मिशन को अंजाम दे सकता है. पाकिस्तान की ओर से एजेंट ज़ोया (कटरीना कैफ़) को ये इज्ज़त बख्शी जाती है, जो इत्तेफ़ाक से टाइगर की बीवी भी हैं. इस बीच आतंकवादी संगठन के प्रमुख अबू उस्मान (सज्जाद देलाफरूज़) पर अमेरिका की भी नज़र बनी हुई है, हवाई हमला कभी भी हो सकता है. टाइगर और ज़ोया के पास सिर्फ 7 दिन हैं इस मिशन को पूरा करने के लिए. 

इसी साल की मलयालम फिल्म 'टेक ऑफ' इसी विषय पर बनी एक बेहतरीन फिल्म है. इससे उबरें, तो कभी उधर भी तशरीफ़ ले जाईये. फ़िलहाल, बात 'टाइगर ज़िंदा है' की. सलमान की फिल्मों से अक्सर शिकायत रहती है, कहानी के नदारद होने की. इस फिल्म के बाद ये शिकायत बंद कर देनी चाहिए. आख़िरकार, किसी भी अच्छी-भली कहानी को सलमान की क्या जरूरत? फिल्म देखते वक़्त आप बड़ी आसानी से तय कर पायेंगे कि फिल्म दो सतहों पर चलती नज़र आती है. एक, जहाँ बंधक नर्सों की कहानी आपको हर बार बांधे रखना चाहती है, मगर उसे तयशुदा वक़्त नहीं मिलता. और दूसरा, जहां सलमान अपनी हरकतों पर वक़्त जाया करने से बाज़ नहीं आते. भला हो, फिल्म के बड़े कैनवास का, कुछ बेहद कसे हुए रोमांचक एक्शन दृश्यों का, जो बेवजह ही सही, मजेदार लगते हैं.

बंद घड़ी भी दिन में दो बार सही वक़्त बताती है. फिल्म भी लगभग इतनी ही बार ईमानदार दिखती है. मिशन पर एक नौजवान एजेंट अपने साथ तिरंगा लेकर आया है, और मिशन ख़त्म होने पर उसे लहराने-फहराने का मौका छोड़ना नहीं चाहता. एक अंडर-कवर एजेंट के लिए तिरंगा साथ रखना मिशन के लिए खतरनाक हो सकता है, इसलिए टाइगर उसे समझाता है, 'ज़ज्बा रखना ठीक है, ज़ज्बाती होना नहीं'. ठीक ऐसे ही, फिल्म भारत-पाकिस्तान के बीच सुलह, शांति और अमन की बात कई मौकों पर बड़ी दिलेरी से सामने रखती है. हालाँकि ज्यादातर वक़्त ये सब आपको प्रवचन से ज्यादा और कुछ नहीं लगता. 

जहाँ तक मुझे लगता है, कुदरती रूप से रॉ एजेंट जासूस ही होते हैं, पर 'टाइगर ज़िंदा है' एक औसत जासूसी-थ्रिलर होने के करीब भी नहीं पहुँचती और एक ठीक-ठाक एक्शन-एंटरटेनर होके ही रह जाती है. हालाँकि फिल्म में सलमान ताबड़तोड़ आतंकवादियों पर गोलियां बरसाते हैं, गोले दागते हैं, और अंत तक सबको बचाने में कामयाब भी साबित होते हैं, पर वहीँ किसी एक कोने में दम तोड़ती एक रोमांचक कहानी को देर तक जिंदा नहीं रख पाते. क्या फर्क पड़ता है, और फ़िक्र भी क्यूँ? जब तक एक अदद नाम का ही जलवा काफी है, कारगर है, बरक़रार है. [2.5/5]  

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