Tuesday 26 December 2017

अदाकार, जो किरदार बन गए...(2017's 10 Best Performances)


राजकुमार राव, ट्रैप्ड में
झल्लाहट हो, डर हो, खीझ हो, विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की जिद हो या फिर नाउम्मीदी में टूट कर बिखरने और फिर खुद को समेट कर उठ खड़े होने का दम; राव अविश्वसनीय तरीके से पूरी फिल्म को अपने मज़बूत कंधे पर ढोते रहते हैं. फिल्म की दमदार कहानी, अपने सामान्य से दिखने वाले डील-डौल की वजह से राव पर हमेशा हावी दिखाई देती है, जिससे दर्शकों के मन में राव के किरदार के प्रति सहानुभूति का एक भाव लगातार बना रहता है, पर धीरे-धीरे जब राव अपने ताव बदलते हैं, फिल्म उनकी अभिनय-क्षमता के आगे दबती और झुकती चली जाती है.

रणबीर कपूर, जग्गा जासूस में 
'जग्गा जासूस' बिना शक रणबीर कपूर की सबसे मजेदार, मनोरंजक और बढ़िया अदाकारी वाली फिल्मों में शामिल होती है. गिनती में 'बर्फी' और 'रॉकस्टार' के ठीक बाद. हालाँकि उनके किरदार में एक वक़्त बाद एकरसता आने लगती है, पर परदे पर उनका करिश्मा तनिक भी कम नहीं पड़ता.

स्वरा भास्कर, अनारकली ऑफ़ आरा में
अनारकली ऑफ़ आरा’ में स्वरा भास्कर एक ज्वालामुखी की तरह परदे पर फटती हैं. अपने किरदार में जिस तरह की आग और जिस तरीके की बेपरवाही वो शामिल करती हैं, उसे देखकर आप उनके मुरीद हुए बिना रह नहीं सकते. ये उनका तेज़-तर्रार अभिनय ही है, जो इस फिल्म के ‘साल के सबसे पावरफुल क्लाइमेक्स’ में आपके रोंगटे खड़े कर देता है. अनारकली का ‘तांडव’, अभिनेत्री के तौर पर स्वरा भास्कर का ‘तांडव’ है. इसके बाद अब शायद ही आप उनके अभिनय-कौशल को शक की नज़र से देखने की भूल करें!

पंकज त्रिपाठी, न्यूटन में
आत्मा सिंह जब बन्दूक न्यूटन के हाथ में थमा कर कहता है, 'ये देश का भार है, और हमारे कंधे पर है'; या फिर जब विदेशी रिपोर्टर पूछती है, 'चुनाव सुचारू रूप से चलाने के लिए आपको क्या चाहिए?" और उसका जवाब होता है, "मोर वेपन (और हथियार)!"; वो आपको खलनायक नहीं लगता, बल्कि आपको उसकी हालत और उसके हालात पर दया ज्यादा आती है. वो भी उसी सिस्टम का मारा है, और महंगा जैतून का तेल खरीदते वक़्त उसके माथे पर भी शिकन आती है.

संजय मिश्रा, कड़वी हवा में 
सूखे, बंजर और रेतीले ज़मीनी समन्दर में लाठी टेकते-टेकते भटकते हुए बूढ़े बाबा के किरदार में संजय मिश्रा बहुत कम बोलते हैं, और सिर्फ जरूरत का ही बोलते हैं, पर उनके अन्दर की कराह, बदलते मौसम और कर्जे में डूबे परिवार की परवाह आपको हर वक़्त, हर फ्रेम में सुनाई देती है. बाप-बेटे में बातचीत नहीं होती, ऐसे में एक दिन बेटा बाबा को घर से बिना बताये बाहर जाने के लिए डांटता है, और बाप सिर्फ इतने से खुश कि इसी बहाने आज मुकुंद ने उनसे बात तो की. संजय मिश्रा इस भूमिका को कुछ इस हद तक परदे पर जीवंत रखते हैं कि आप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं, आखिरकार एक नेत्रहीन किरदार के रूप में इतना सजीव अभिनय आपने आखिरी बार किसका, कब और कहाँ देखा था? 

दीपक डोबरियाल, हिंदी मीडियम में
दीपक का अभिनय फिल्म में उस ठहराव की कमी पूरी करता है, जो आम तौर पर इरफ़ान से उनकी किसी भी फिल्म में किया जाता है. राज और मीता के मीठे मनोरंजक पलों के बीच सच्चाई का एक बेहद जरूरी व्यंग्यात्मक कसैलापन दीपक ही ले आ पाते हैं. दीपक उन दृश्यों में भी कहीं से कमजोर दिखाई नहीं पड़ते, जिनमें इरफ़ान भी मौजूद हों, और अभिनय में ये रुतबा बहुत कम अदाकारों को ही नसीब है.

विद्या बालन, तुम्हारी सुलू में
'तुम्हारी सुलू' जैसे विद्या बालन के लिए ही बनी हो, बनाई गयी हो. सुलू और विद्या एक पल को भी कभी एक-दूसरे से अलग दिखाई नहीं देते. फिल्म में ऐसे ढेरों दृश्य हैं, जहां आप सुलू की कसक, सुलू की चहक, सुलू की चमक और सुलू के किरदार में विद्या के सरल, सहज, सफल अभिनय के लिए बीच फिल्म में खड़े होकर तालियाँ पीटना चाहते हैं. 

मेहर विज, सीक्रेट सुपरस्टार में
फिल्म भले ही छोटी आँखों वाली इन्सिया के बड़े सपनों की हो, एक किरदार जो उसके साथ-साथ बड़ी मजबूती से उभर कर सामने आता है, वो है नज़मा का. नज़मा के किरदार में मेहर बड़ी आसानी से घुल-मिल जाती हैं. एक समझदार, ज़ज्बाती, सुकून भरी माँ, पति के गरम मिजाज़ सहती-दबती बीवी और इन दोनों के बीच अपनी छोटी-छोटी खुशियों के पल चुराती एक आम सी लगने वाली औरत के किरदार में मेहर का अभिनय कहीं से भी आम नहीं है.  

ललित बहल, मुक्ति-भवन में
ललित बहल के अभिनय में ठहराव फिल्म की रफ़्तार से पूरी तरह कदम मिला कर चलती है. मौत के इंतज़ार में लेटे-लेटे भजन-मंडली से 'सुर में गाने' की फरमाईश हो, या बार-बार अपने सपने को तसल्ली से बेटे-बहू को सुनाने-समझाने की ललक और सनक; ललित अपने अभिनय से हंसाते भी हैं तो एक सूनेपन के साथ. ऐसा सूनापन जो आपको दिनों तक कचोटता रहेगा.  

श्रीदेवी, मॉम में 
'मॉम' श्रीदेवी की 300वीं फिल्म है, और उन्हें परदे पर अदाकारी करते देख लगता है कि जैसे उनके लिए 'कट' की आवाज़ का कोई मतलब ही नहीं. एक बार जो किरदार में उतरीं, तो उसे किनारे तक छोड़ आने से पहले कोई 'कट' नहीं. फिल्म में ऐसे दसियों दृश्य हैं, जिनमें श्री जी को देखते-देखते आप किरदार याद रखते हैं, अदाकारी याद रखते हैं, फिल्म भूल जाते हैं. 

No comments:

Post a Comment