Friday 12 January 2018

मुक्काबाज़: कश्यप की सबसे जिम्मेदार फिल्म! शायद साल की भी! [4/5]

मवेशी ले जा रहे कुछ लोगों पर 'गौरक्षकों' ने हमला कर दिया है. 'भारत माता की जय' के जोशीले नारों के बीच मोबाइल पर हिंसा के वीडियो बनाए जा रहे हैं. कोच साब के घर का गेंहू पिसवाने आया बॉक्सर श्रवण कुमार सिंह (विनीत सिंह) विडियो में मुंह बांधे एक तथाकथित गौरक्षक को तुरंत पहचान जाता है. वो उस जैसे तमाम कोच साब के बेरोजगार चेलों में से ही एक है. पूछने पर साफ़ मुकर जाता है, और श्रवण के लिए भी यह कोई हिला देने वाली बात नहीं है. इस एक वाकिये में ही देश की लगातार विकृत होती राजनीतिक प्रवृत्ति और गर्त में धकेली जा रही नयी पीढ़ी के सपनों का क्रूर मर्दन ज़ोरदार तरीके से सामने आता है. इस लिहाज़ से अनुराग कश्यप की 'मुक्काबाज़' शायद उनकी सबसे जिम्मेदार फिल्म मानी जा सकती है, जहाँ कुछ भी महज़ मनोरंजन के लिए नहीं है, बल्कि सब कुछ सिनेमा के जरिये कुछ कहने की एक सशक्त कोशिश.  

...और फिर ये तो सिर्फ शुरुआत है, 'मुक्काबाज़' वास्तव में एक ही फिल्म में कई फिल्में एक साथ हैं. अगर उत्तर प्रदेश की संस्कृति में भी राजस्थानी थाली जैसी कोई परिकल्पना प्रचलित होती तो मैं कहता कि 'मुक्काबाज़' उत्तर प्रदेश की एक बड़ी सी सामाजिक, राजनीतिक और जातीय जायकों से लबरेज एक मनोरंजक थाली है. कुछ स्वाद अगर ज़बान मीठा कर जाते हैं, तो कुछ ऐसे भी हैं जो दिल खट्टा, मन कड़वा और आँखें नम. हो सकता है कि पहली नज़र में 'मुक्काबाज़' उत्तर प्रदेश की धमनियों में रचे-बसे, जाति के सामाजिक खेल और खेलों में जाति की राजनीति के उलझाव में फँसी एक सुलझी हुई प्रेम-कहानी ही लगे, जहां नायिका नायक को लड़ता देख मुग्ध हो जाती है, सामाजिक दुराव और जातिगत भेद के बावजूद दोनों में प्रेम पनपता है और फिर खलनायक की साज़िशों और जिंदगी की कठोर सच्चाईयों से हाथापाई करते दोनों आखिर में एक सुखद अंत की ओर बढ़ निकलते हैं. ऐसा है भी, पर इस बार कहानी के तेवर सीधे सीधे मुद्दों को निशाना बनाने से परहेज़ नहीं करते. 

स्टेट बॉक्सिंग फेडरेशन के शीर्ष पर काबिज़ कोच भगवान दास मिश्रा (जिम्मी शेरगिल) अपने ही साथी कोच से उसकी जाति पूछने का सिर्फ दुस्साहस ही नहीं करता, उसके हरिजन होने पर वेटर को अलग बर्तन में पानी पेश करने का आदेश भी पूरे गर्व से देता है. अपनी भतीजी से प्यार करने के खामियाज़े में अपने ही सबसे अच्छे बॉक्सर श्रवण को बॉक्सिंग रिंग से दूर रखने में पूरा दम ख़म झोंक देता है. उधर देश के लिए खेलने की आशायें पाले प्रतिभावान खिलाड़ी कोच साब की मालिश करने, उनके घर का राशन लाने और अपने अधिकारियों की बीवियों को 'मार्केटिंग' पर ले जाने में जाया हो रहे हैं.

'मुक्काबाज़' के ज़रिये, परदे पर अनुराग दो बेहद सशक्त किरदार परोसते हैं. वो भी एक-दूसरे के आमने-सामने. सुनयना (ज़ोया हुसैन) बोल नहीं सकती, पर उसे सुनने-समझने में आपको ज्यादा मुश्किल नहीं होगी. सुनयना का छिटकना, उसका गुस्सा, उसकी झुंझलाहट, उसकी दिलेरी, उसके ताव, उसके तेवर सब बेआवाज़ हैं, पर बेख़ौफ़ और बेरोक-टोक बोलते हैं. सुनयना के किरदार में ज़ोया कहीं भी कमतर नहीं दिखाई पड़तीं. ठीक वैसे ही, जैसे श्रवण के किरदार में विनीत. निराश, हताश और गुस्सैल श्रवण जैसे परदे पर हर वक़्त पटाखे की तरह फटता रहता है, और हर बार धमाका उतना ही बड़ा होता है, उतना ही जोरदार. 

विनीत का एक बॉक्सर के तौर पर, अपने किरदार श्रवण में ढल जाना बॉलीवुड के अभिनेताओं के लिए एक चुनौती बनकर उभरता है. सिर्फ कद-काठी तक ही नहीं, विनीत अपने अदाकारी में भी वो धार-वो चमक लेकर आते हैं, जिसे भुलाना आसान नहीं होगा. अपने पिता के साथ उनकी खीज़ भरी बहस का दृश्य हो, सुनयना के साथ 'साईन लैंग्वेज' में बात करने वाले दृश्य या फिर बॉक्सिंग रिंग में उनकी शानदार मौजूदगी; विनीत इस फिल्म को अपना सब कुछ बक्श देते हैं. फ़िल्मकार के तौर पर अनुराग कश्यप को तो सीमाएं लांघते आपने दसियों बार सराहा होगा, पर इस बार विनीत कुमार सिंह के अभिनय में वो लोहा दिखेगा कि तमाम खान, कपूर जैसे बॉलीवुड के दिग्गज़ धूल चाटते नज़र आयेंगे. मेरी लिए, साल की सबसे दमदार परफॉरमेंस.

'मुक्काबाज़' कोई 'स्पोर्ट्स' फिल्म नहीं है, जो खिलाड़ियों की जीत का रोमांच बेचने में यकीन रखती हो, पर जितनी देर भी परदे पर खेलों-खिलाड़ियों और उनके इर्द-गिर्द जाल की तरह फैले राजनीति के बारे में बोलती है, असल स्पोर्ट्स फिल्म ही लगती है. यूँ तो फिल्म में बॉक्सर श्रवण हैं, 'मुक्काबाज़' में सबसे जोरदार घूंसे और मुक्के अनुराग कश्यप की तरफ से ही आते हैं. कभी तीख़े व्यंग्य की शक्ल में, तो कभी मज़ेदार संवादों के ज़रिये. हालाँकि ढाई घंटे की इस लम्बी फिल्म पर दूसरे हिस्से में कई बार अपने आप को दोहराने का आरोप भी जड़ा जा सकता है, पर दिलचस्प संगीत, जबरदस्त अभिनय, मनोरंजक संवादों और कहानी में बखूबी पिरोये गए मुद्दों की अहमियत फिल्म को अलग ही मुकाम तक ले जा छोडती है. [4/5]     

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