इश्क़ में हद से गुजर जाने वाले आशिक़
अब कहाँ ही मिलते हैं? विछोह में पगला जाने वाले, इबादत में माशूक को ख़ुदा के बराबर बिठा देने वाले अहमकों की जमात लगातार कम
होती जा रही है. ऐसे में, सदियों से सुनते-देखते आये मोहब्बतों
के क़िस्से आज भी कुछ कम सुकून नहीं देते, शर्त बस ये है कि
उन्हें पेश करने में थोड़ी सी समझदारी और सुनने में आपकी हिस्सेदारी ज़रा दिल से
होनी चाहिए. साजिद अली की ‘लैला मजनू’ फिल्मों
में प्रेम-कहानियों के उस दौर को जिंदा करती है, जहां जूनूनी
किरदारों के बग़ावती तेवर बेरहम दुनिया के जुल्म-ओ-सितम के आगे दम भले ही तोड़ दे, घुटने कभी नहीं टेकते. हालाँकि वक़्त-बेवक्त हीर-राँझा, रोमियो-जूलिएट और मिर्ज़ा-साहिबां जैसी अमर प्रेम-कथाओं पर तमाम हिंदी
फिल्मों ने पूरे हक से अपनी दावेदारी दिखाते हुए दर्शकों को लुभाने की कोशिश की है, पर हालिया दौर में ‘लैला मजनू’ शर्तिया तौर पर सबसे ईमानदार और यकीन करने लायक कोशिश कही जा सकती है.
सदियों पुरानी कहानी को आज के सूरते-हाल में ढाल कर पेश करने में ‘लैला-मजनू’ अगर पूरी तरह नहीं,
तो ज्यादातर वक़्त तो कामयाब रहती ही है.
कश्मीर के एक हिस्से में लैला (तृप्ति
डिमरी) की ख़ूबसूरती के चर्चे आम हैं. लड़के ताक में रहते हैं कि कब लैला टिश्यू पेपर
पर अपने होठों की लगी लिपस्टिक का निशान चस्पा करके, कार की
खिड़की से बाहर फेंके और वो उसे लेने को जान की बाज़ी लगा दें. लैला के बारे में
मशहूर है कि वो लड़कों को घुमाती है. एक नंबर की ‘फ़्लर्ट’ है, पर असलियत तो ये है कि क्लास के बाद सहेली से ‘पहले किस’ का हाल बड़ी बेसब्री से लिया जा रहा है.
मजनू बनने से पहले हमारे मजनू को लोग कैस बट (अविनाश तिवारी) के नाम से जानते हैं.
कैस भी कम नहीं है. एक नंबर का बिगडैल. अफवाह है कि उसके चक्कर में एक लड़की ने तो
प्रेग्नेंट हो जाने पर दुबई जा कर जान दे दी थी. दोनों में कुछ तो है. पिछले जनम
का न सही, बचपन का ही, मगर है कुछ तो. और
उनके परिवारों में भी. दोनों के बापों में एक छटांक भी बनती नहीं. अंदाज़ा लगाना
मुश्किल नहीं है कि दोनों की किस्मतों में इश्क़ का मुकम्मल होना शामिल नहीं है. लेकिन
फिर, दुनिया की सबसे मशहूर प्रेम-कहानियाँ का अंजाम आखिर ख़ुशगवार
कब रहा है!
‘लैला मजनू’ पर इम्तियाज़
अली की छाप साफ़ देखी जा सकती है. ऐसा होना लाजमी भी है, जब
फिल्म इम्तियाज़ की कलम से ही निकली हो, और फिल्म के निर्देशक
इम्तियाज़ के ही भाई हों. इम्तियाज़ जिस तरह फिल्म के मुख्य किरदारों को, अपने दिलचस्प संवादों से उनके ख़ास ताव और तेवर बख्शते हैं, किरदार एक अलग ही रौशनी में उभर कर आते हैं. लैला का पहली बार कैस से आमना-सामना
हो, लैला का तेज़तर्रार बाग़ी रवैया या फिर फिल्म के आखिरी
हिस्से में कैस का सूफ़ियाना लहजा; इम्तियाज़ हर दृश्य में
अपनी बात जाना-पहचाना तरीका होने के बावजूद, एक नये-नवेले
तौर से सामने रखते हैं. कैस के किरदार में अविनाश तिवारी को परंपरागत तौर पर नायक
की छवि में देखना दर्शकों के लिए आसान नहीं होगा, इम्तियाज़
जान लेते हैं और शायद इसीलिए पहले ही दृश्य में उनके किरदार से साफ़ कहलवा देते हैं.
“मेरी सूरत अच्छी नहीं है ना, इसीलिए मुझे स्मार्ट लगने के लिए
काफी मेहनत करनी पड़ती है. देखो, स्टेबल (हलकी दाढ़ी) भी रखा
है’. उनका ये ‘डिफेंसिव मैकेनिज्म’ अविनाश के लिए सटीक बैठता है, फिल्म के आखिर तक आते-आते
आप उनके, उनकी अदाकारी, उनकी दमदार
आवाज़ के मुरीद हुए बिना रह नहीं पाते. मेरी ही तरह अब आपको भी याद आने लगा होगा कि
अविनाश को पहले भी आप ‘तू है मेरा संडे’ में सराह चुके हैं.
लैला के किरदार में तृप्ति डिमरी के
साथ भी ऐसा ही कुछ होता है. शुरू शुरू में आपको तृप्ति की ‘लैला’ इम्तियाज़ की ही फिल्मों की दूसरी नायिकाओं, खास कर ‘रॉकस्टार’ की नर्गिस फाखरी की याद दिलाती है. शायद
इसलिए भी क्यूंकि दोनों के तेवर और लहजे में एक खास तरह की साझा बनावट है. नर्गिस की
संवाद-अदायगी में अगर उनका हिंदीभाषी न होना हावी था, तो
यहाँ तृप्ति को कश्मीरी लहज़े में बात करने की शर्त से गुजरना था. बहरहाल, तृप्ति ‘रॉकस्टार’ में होतीं
तो नर्गिस की ‘हीर’ में कुछ इज़ाफा ही
करतीं! सुमित कौल का किरदार शायद फिल्म का सबसे मेलोड्रमेटिक पहलू रहा, बावजूद इसके उनके अभिनय की तारीफ़ करनी होगी. बेंजामिन गिलानी और परमीत
सेठी अच्छे हैं.
‘लैला मजनू’ कश्मीर
में अपनी कहानी गढ़ती है, और कश्मीर भी इस कहानी में ख़ूब रच-बस
जाता है; सिर्फ बर्फीले मौसम, हरे घास
की चादरों या चिनार के पत्तों तक नहीं, बल्कि फिल्म की
पृष्ठभूमि से लेकर गीत-संगीत और कहानी की खुशबू तक में. हालाँकि इस कश्मीर से
आतंकवाद, सेना के जवान और डर का माहौल बड़ी सफाई से नदारद हैं, पर बात जब मोहब्बत की हो रही हो, ऐसी चीजों को
नज़रंदाज़ भी करना बेहतर ही है. हर तस्वीर में ग़ुरबत के रंग हों, जरूरी तो नहीं.
खैर, बॉलीवुड ने
एक अरसे तक लैलाओं को ‘बार-गर्ल’ और ‘आइटम-गर्ल’ बना रख छोड़ा था, समाज
और सरकारों ने मजनुओं को वैसे ही बदनाम कर रखा है; ऐसे में
साजिद अली की ‘लैला मजनू’ मुकम्मल तौर
पर प्रेम-कहानियों की गिरती साख को ऊपर उठाती है. नाकाम इश्क़, ग़मगीन अंजाम और जूनूनी आशिक़; ये कहानी पुरानी ही
सही, आज भी उतनी ही असर रखती है,
बशर्ते आप दिली तौर पर तैयार हों. [3.5/5]
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