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Friday, 5 October 2018

अन्धाधुन: रोचक, रोमांचक और रंगीन! [3.5/5]


सरकारी बस स्टेशनों और रेलवे प्लेटफार्म पर सरकते ठेलों पर बिकने वाले सस्ते उपन्यासों की शकल याद है? जिनके मुख्यपृष्ठ हाथ से पेंट किये गये 80 के दशक के मसाला फिल्मों का पोस्टर ज्यादा लगते थे, और हिंदी साहित्य का हिस्सा कम? जिनकी कीमत रूपये में भले ही कम रही हो, कीमत के स्टीकर हिंदी में अनुवादित जेम्स हेडली चेज़ के साथ-साथ वेद प्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे अपने मशहूर लेखकों के नामों से हमेशा बड़े दिखते थे? आम जनता के सस्ते मनोरंजन के लिए ऐसे मसालेदार साहित्य अंग्रेज़ी में ‘पल्प फिक्शन और हिंदी में ‘लुगदी साहित्य के नाम से जाने जाते हैं. श्रीराम राघवन सिनेमाई तौर पर हिंदी की इसी ‘लुगदी को सिनेमा की उस धारा (फ्रेंच में NOIR या ‘नुआं’ के नाम से विख्यात) से जोड़ देते हैं, जहां किरदार हर मोड़ पर स्वार्थी होकर किसी बड़े उद्देश्य के लिए अपनी भलमनसाहत गिरवी रखने को हमेशा तैयार मिलते हैं. ऐसा करते वक़्त, किरदारों के ख़ालिस इंसानी ज़ज्बात अक्सर उन्हें ऐसी औचक होने वाली आपराधिक घटनाओं की तरफ धकेल देते हैं, जिनसे निकलना और निकल कर अपनी तयशुदा मंजिल तक पहुंचना और भी दूभर लगने लगता है.
रहस्य और रोमांच से भरपूर ‘अन्धाधुन मनोरंजन के लिए छलावों से भरी एक ऐसी मजेदार दुनिया परदे पर रखती है, जहां जो दिखता है, सिर्फ उतना ही नहीं है. यहाँ जो कुदरती तौर पर नहीं भी देख सकता, वो भी अपने मतलब के दायरे में आने वाली चीजें भली-भांति देख सकता है. एक पति (अनिल धवन) का क़त्ल हुआ है. पत्नी (तब्बू) शक के दायरे में है. मौका-ए-वारदात पर इत्तेफ़ाक से मौजूद एक पियानो बजाने वाला (आयुष्मान खुराना) क़त्ल का गवाह तो है, पर आँखों से अंधा. उसके ‘देखे’ पर कोई यकीन कैसे करेगा? इससे आगे कहानी का कोई भी हिस्सा बताने पर ‘अन्धाधुन अपनी राजदारी खो सकता है, अब आप फिल्म के हद रोमांचक होने का अंदाजा इसी एक बात से लगा सकते हैं. हालाँकि राघवन जुर्म होते हुए परदे पर कातिल को ठीक आपकी नज़रों के सामने रखते हैं, और आप दूसरी आम अपराध-फिल्मों की तरह कम से कम इस पेशोपेश में नहीं पड़े रहते कि कातिल कौन हो सकता है?; फिर भी फिल्म देखते वक़्त, आपकी तल्लीनता परदे पर कुछ किस कदर बनी रहती है कि कहानी के साथ-साथ किरदारों के हर दांव पर आप अपनी सीट से उछल पड़ते हैं.

बीते दौर के चित्रहार और छायागीत को फिल्म की शुरुआत में श्रद्धांजलि देने वाले राघवन, ‘अन्धाधुन में अजीब, अनोखे, रंगीले किरदारों की झड़ी सी लगा देते हैं. अनिल धवन परदे पर 70 के दशक की पुरानी फिल्मों के हीरो के किरदार में हैं, जो वो खुद भी असल जिंदगी में उसी मुकाम पर हैं. यूट्यूब पर अपनी ही फिल्मों (हवस, 1974) का गाना देखते हुए, अपनी ही फिल्मों (हनीमून, चेतना) के पोस्टरों से पटे पड़े घर में टहलते हुए, पियानो पर अपने ही गानों (पिया का घर, 1972) की फरमाईश सुनते हुए अनिल धवन फिल्म का सबसे मजेदार पहलू बन कर उभरते हैं. इस भूमिका में उनका चुनाव उस दौर के सिनेमाप्रेमियों के लिए किसी जश्न से कम नहीं लगता. तब्बू का किरदार शुरू से ही जता देता है कि वो कितनी शातिर हो सकती है? क्रैब (केकड़ा) को उबलते पानी में डालने से पहले डीप फ्रीज़र में डाल कर शांत कर देने का उसका तरीका फिल्म के अगले हिस्सों में उसके इरादों की एक झलक भर है. और फिर अपना पियानो प्लेयर? एक अधूरी धुन को पूरा करने में लगा एक ऐसा आर्टिस्ट, जो एक्सपेरिमेंट के नाम पर किसी हद तक जा सकता है. एक पुलिस वाला है, जो प्रोटीन के लिए 16-16 अंडे रोज खाता है, और एक उसकी बीवी, जो उसे धोखा देने पर ताना भी सबसे पहले इसी बात के लिए देती है.

‘अन्धाधुन आयुष्मान की सबसे मुश्किल फिल्म है. कलाकार के तौर पर उनकी मेहनत और शिद्दत साफ़ नज़र आती है. फिल्म की कहानी में छलावे कितने भी हों, पियानो पर उनकी उंगलियाँ पूरी सटीक गिरती, उठती, फ़िसलती हैं. कुछ न देख पाने और कुछ न देख पाने को जताने की कोशिश में उनकी क़ाबलियत निखर कर सामने आती है, पर इसके बावजूद फिल्म बड़ी आसानी से तब्बू के पाले में चली जाती है. राघवन जिस तरह तब्बू के किरदार में परतें खोजते हैं, तब्बू उससे कहीं आगे जाकर कामयाबी हासिल करती हैं. अक्सर तब्बू को हम उनकी संजीदा एक्टिंग के लिए जानते हैं, इस किरदार में उनकी बेपरवाही चौंकाती है. कई बार तो उनकी कोशिश नज़र भी नहीं आती, कुछ इतनी आसानी से बड़ा कर जाती हैं. अनिल धवन परदे पर बिजली की तरह चमकदार दिखते हैं, ख़ुशमिज़ाजी फैलाते हैं. राधिका आप्टे के हिस्से इस बार कम स्क्रीनटाइम हाथ आया है. जाकिर हुसैन, मानव विज, अश्विनी कलसेकर जैसे सह-कलाकार कहीं से भी कम नहीं पड़ते.

अन्त में; ‘अन्धाधुन श्रीराम राघवन के थ्रिलर-प्रेम की एक और सफल कड़ी है, जहां सिनेमा और साहित्य की सस्ती माने जाने वाली कुछ धाराओं को कपोल-कल्पना की ऊँची उड़ानों में पूरे गर्व के साथ ‘सेलिब्रेट’ किया जाता है. हालाँकि फिल्म घोर मनोरंजन की नज़र से ‘जॉनी गद्दार’ की तरफ ज्यादा झुकी नज़र आती है, और इंसानी ज़ज्बातों की गहरी दखलंदाज़ी वाली मार्मिक और संजीदा कहानी के तौर पर ‘बदलापुर की तरफ कम; फिर भी दिलचस्प उतार-चढ़ावों से भरपूर एक ऐसी फिल्म, जो अपने ज्यादातर वक़्त में आपको अपनी सीट पर बांधे रक्खे. [3.5/5]                         

Friday, 15 June 2018

लस्ट स्टोरीज़ (A): ‘लव’ से ज्यादा असल और अलग! [4/5]


प्यार की कहानियाँ सदियों से अनगिनत बार कही और सुनाई जाती रही हैं. वासना के हिस्से ऐसे मौके कम ही आये हैं. हालाँकि दोनों में फर्क बस सामाजिक बन्धनों और नैतिकता के सीमित दायरों का ही है. कितना आसान लगता है हमें, या फिर कुछ इस तरह के हालात बना दिए गये हैं हमारे लिए कि प्यार के नाम पर सब कुछ सही लगने लगता है, पाक-साफ़-पवित्र; और वासना का जिक्र आते ही सब का सब गलत, गंदा और अनैतिक. रिश्तों में वासना तो हम अक्सर अपनी सतही समझ से ढूंढ ही लेते हैं, वासना के धरातल पर पनपते कुछ अलग रिश्तों, कुछ अलग कहानियों को समझने-तलाशने की पहल नेटफ्लिक्स की फिल्म लस्ट स्टोरीज़ में दिखाई देती है, जो अपने आप में बेहद अनूठा प्रयास है. ख़ास कर तब, जब ऐसी कहानियों को परदे पर कहने का दारोमदार हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के चार बड़े नामचीन फिल्मकारों (अनुराग कश्यप, जोया अख्तर, दिबाकर बैनर्जी, करण जौहर) के मजबूत और सक्षम कन्धों पर टिका हो.

चार छोटी-छोटी कहानियों से सजी लस्ट स्टोरीज़ अपने नाम की वजह से थोड़ी सनसनीखेज भले ही लगती हो, पर कहानी और किरदार के साथ अपनी संवेदनाओं और सिनेमा के लिए अपनी सशक्त जिम्मेदारियों में खुद को तनिक भी लचर या लाचार नहीं पड़ने देती. अनुराग की कहानी एक महिला प्रोफेसर के अपने ही एक स्टूडेंट के साथ जिस्मानी सम्बन्ध बनाने से शुरू होती है. कालिंदी (राधिका आप्टे) का डर, उसकी नर्वसनेस, तेजस (सैराट के आकाश ठोसर) पर जिस तरह वो अपना अधिकार जमाती है, सब कुछ एक सनक से भरा है. एक हिस्से में तो वो तेजस का बयान तक अपने मोबाइल में रिकॉर्ड करने लगती है, जिसमें तेजस सब कुछ आपसी सहमति से हुआ था की हामी भर रहा है. हालांकि अपने एक से ज्यादा रिश्तों में कालिंदी की तड़प उन दृश्यों में साफ़ होने लगती है, जिनमें वो कैमरे से रूबरू होकर कुछ बेहद अहम् सवाल पुरुषों की तरफ उछालती है. राधिका अपने किरदार के पागलपन में हद डूबी हुई दिखाई देती हैं, पर फिल्म कई बार दोहराव से भी जूझती नज़र आती है, अपने 35 मिनट के तय वक़्त में भी लम्बी होने का एहसास दे जाती है.

सुधा (भूमि पेडणेकर) अजीत (नील भूपलम) के साथ कुछ देर पहले तक बिस्तर में थी. अब फर्श पर पोछा लगा रही है. पोहे की प्लेट और चाय का कप अजीत को दे आई है. अब बर्तन कर रही है. बिस्तर ठीक करते हुए ही दरवाजा बंद होने की आवाज़ आती है. अजीत ऑफिस जा चुका है. सुधा उसी बिस्तर पर निढाल होकर गिर गयी है. जोया अख्तर की इस कहानी में ऊंच-नीच का दुराव बड़ी संजीदगी से पिरोया गया है. सुधा एक काम करने वाली नौकरानी से ज्यादा कुछ नहीं है, उसे भी पता है. अजीत के साथ शारीरिक सम्बन्धों के बावजूद, अपने ही सामने अजीत को लड़की वालों से मिलते-बतियाते देखते और उनके लिए चाय-नमकीन की तैयारी करते वक़्त भी उसे अपनी जगह मालूम है, फिर भी उसकी ख़ामोशी में उसके दबते-घुटते अरमानों और ख्वाहिशों की चीख आप बराबर सुन पाते हैं. भूमि को उनकी रंग-ओ-रंगत की वजह से भले ही आप इस भूमिका में सटीक मान बैठे हों, पर असली दम-ख़म उनकी जबरदस्त अदाकारी में है. गिनती के दो संवाद, पर पूरी फिल्म में क्या दमदार उपस्थिति. इस फिल्म में जोया का सिनेमा भी क्या खूब निखर कर सामने आता है. कैमरे के साथ उनके कुछ दिलचस्प प्रयोग मज़ा और दुगुना कर देते हैं.

दिबाकर बैनर्जी की कहानी एक बीचहाउस पर शाम होते ही गहराने लगती है. रीना (मनीषा कोईराला) साथ ही बिस्तर में है, जब सुधीर (जयदीप अहलावत) को सलमान (संजय कपूर) का फ़ोन आता है. सलमान को लगने लगा है कि उसकी बीवी रीना का कहीं किसी से अफेयर चल रहा है. शादी-शुदा होने का बोझ और बीवी होने से ज्यादा बच्चों की माँ बन कर रह जाने की कसक अब रीना की बर्दाश्त से बाहर है. सलमान को खुल कर सब सच-सच बता देने में ही सबकी भलाई है. वैसे भी तीनों कॉलेज के ज़माने से एक-दूसरे को जानते हैं. शादी से बाहर जाकर अवैध प्रेम-संबंधों और अपने पार्टनर से वफादारी के मुद्दे पर दिबाकर इन अधेड़ उम्र किरदारों के जरिये एक बेहद सुलझी हुई फिल्म पेश करते हैं, जहां एक-दूसरे की जरूरतों को बात-चीत के लहजे में समझने और समझ कर एक माकूल रास्ता तलाशने में सब के सब परिपक्व और समझदार बन कर सामने आते हैं. मनीषा और संजय को नब्बे के दशक में हम बहुत सारी मसाला फिल्मों में नॉन-एक्टर घोषित करते आये हैं, इस एक छोटी फिल्म में दोनों ही उन सारी फिल्मों में अपने किये-कराये पर मखमली चादर डाल देते हैं. जयदीप तो हैं ही बाकमाल.

आखिरी किश्त करण जौहर के हिस्से है, और शायद सबसे फ़िल्मी भी. कहानी पिछले साल की शुभ मंगल सावधान से बहुत अलग नहीं है. मेघा (कियारा आडवाणी) के लिए बिस्तर पर अपने पति पारस (विक्की कौशल) के साथ सुख के पल गिनती के ही रह जाते हैं (हर बार वो उँगलियों से गिनती रहती है), और उसके पति को कोई अंदाज़ा ही नहीं कि उसकी बीवी का सुख उसके सुख से अलग है, और कहीं ज्यादा है. मनचाही ख़ुशी के लिए बैटरी और रिमोट से चलने वाले खिलौने की दखल के साथ, करण कहानी को रोचक बनाने में ज्यादा उत्तेजित दिखते हैं, कुछ इस हद तक कि अपनी महान पारिवारिक फिल्म कभी ख़ुशी कभी गम के गाने का मज़ाक उड़ाने में भी झिझकते नहीं. विक्की कौशल मजेदार हैं.

आखिर में, लस्ट स्टोरीज़ 2013 में आई अनुराग, ज़ोया, दिबाकर और करण की बॉम्बे टॉकीज वाले प्रयोग की ही अगली कड़ी है. फिल्म इस बार बड़े परदे पर नहीं दिखेगी, और सिर्फ नेटफ्लिक्स पर ही मौजूद रहेगी, इसलिए अपनी सहूलियत से कभी भी और कहीं भी देखने का लुत्फ़ आप उठा सकते हैं. ज़ोया और दिबाकर की कहानियों के बेहतर होने के दावे के साथ ही, एक बात की ज़मानत तो दी ही जा सकती है कि हिंदी सिनेमा के आज में इस तरह की समर्थ, सक्षम और असामान्य कहानियां कहने की कोशिशें कम ही होती हैं, खुद इन चारों फिल्मकारों को भी आप शायद ही इन मुद्दों पर एक बड़ी फिल्म बनाते देख पायें, तब तक एक ही फिल्म में चारों अलग-अलग ज़ायकों का मज़ा लीजिये. लव से ज्यादा मिलेगा, कुछ नया मिलेगा. [4/5]

Thursday, 8 February 2018

पैडमैन: सामाजिक झिझक 'सोखने' वाली एक सुपर-हीरो फिल्म! [3.5/5]

तमिलनाडु के अरुणाचलम मुरुगनान्थम भारत के उन चंद 'सुपरहीरोज' में से हैं, जिन्होंने सस्ते सेनेटरी पैड बनाने और उन्हें गाँव-गाँव में महिलाओं तक पहुंचाने के अपने लगातार प्रयासों के जरिये, टेड-टॉक्स जैसे वर्चुअल प्लेटफार्म से लेकर यूनाइटेड नेशन्स जैसे विश्वस्तरीय मंच पर अपनी एक अलग पहचान बनाई है. उनकी सादगी, उनके बोलने के अंदाज़, उनके खुशमिजाज़ व्यक्तित्व और समाज में बदलाव लाने की उनकी ललक, उनकी जिद, उनके संघर्षों को, आर. बाल्की की फिल्म 'पैडमैन' एक फ़िल्मी जामा पहनाकर ही सही, परदे पर बड़ी कामयाबी से सामने रखती है. ये अरुणाचलम मुरुगनान्थम की ईमानदार कहानी और उनकी मजेदार शख्सियत ही है, जो थोड़ी-बहुत कमियों के बावजूद, फिल्म और फिल्म के साथ-साथ परदे पर मुरुगनान्थम का किरदार निभा रहे अक्षय कुमार को बहुत सारी इज्ज़त उधार में दे देती है. और जिसके वो हक़दार हैं भी, आखिर हिंदी फिल्मों में कितनी बार आपने एक मुख्यधारा के बड़े नायक को कुछ मतलब की बात करते सुना है, जो उसके सिनेमाई अवतार से अलग हो, जो सामाजिक ढ़ांचे में 'अशुद्ध, अपवित्र और अछूत' माना जाता रहा हो. 

'पैडमैन' महिलाओं की जिंदगी में हर महीने आने वाले उन 5 दिनों के बारे में बात करती है, जिसे अक्सर हम घरों में देख कर भी अनदेखा कर देते हैं. महीने भर की शॉपिंग-लिस्ट तैयार करते हुए कितनी बार आपने सेनेटरी पैड्स का जिक्र किया होगा? वो काली थैली या अखबार में लपेटे हुए पैकेट्स कैसे सबकी नज़रों से नज़र चुराते हुए किसी आलमारी में ऐसे दुबक जाते हैं, जैसे सामने खुल जाएँ तो क्या क़यामत आ जाये? मध्यप्रदेश का लक्ष्मीकांत चौहान (अक्षय कुमार) अपनी पत्नी गायत्री (राधिका आप्टे) को गन्दा कपड़ा इस्तेमाल करते देखता है, तो चौंक जाता है, "मैं तो अपनी साइकिल न साफ़ करूं इससे", और पत्नी 'ये हम औरतें की दिक्कत है, आप इसमें मत पड़िये' बोल के 5 दिन के लिए बालकनी में बिस्तर लगा लेती है. गली में क्रिकेट खेल रहे लौंडे भी खूब जानते हैं, "गायत्री भाभी का (5 दिन का) टेस्ट मैच चल रहा है". 

ये भारत के उस हिस्से की बात है, जहां पहली बार 'महीना' शुरू होने पर लड़की से औरत बनने का उत्सव मनाया जाता है. रस्में होती हैं, पूजा होती है, भोज होता है, पर सोना लड़की को बरामदे में ही पड़ता है. लक्ष्मी की समझ से परे है कि थोड़ी सी रुई और जरा से कपड़े से बनी इस हलकी सी चीज का दाम 55 रूपये जितना महंगा कैसे हो सकता है? और इसी गुत्थी को सुलझा कर सस्ते सेनेटरी पैड्स बनाने की जुगत में लक्ष्मी बार-बार नाकामयाबी, डांट-फटकार, सामाजिक बहिष्कार और पारिवारिक उथल-पुथल से जूझता रहता है. तब तक, जब तक परी (सोनम कपूर) के रूप में उसे उसकी पहली ग्राहक और एक मददगार साथी नहीं मिल जाता है. 

'पैडमैन' अपने पहले हिस्से में जरूर कई बार खुद को दोहराने में फँसी रहती है. लक्ष्मी का सेनेटरी पैड को लेकर उत्साह और उसे मुकम्मल तरीके से बना पाने की जिद खिंची-खिंची सी लगने लगती है. हालाँकि इस हिस्से में अक्षय से कहीं ज्यादा आपकी नज़रें राधिका आप्टे पर टिकी रहती हैं, जो एक बहुत ही घरेलू, सामान्य सी दिखने वाली और सामजिक बन्धनों के आगे बड़ी आसानी से हार मान कर बैठ जाने वाली औरत और पत्नी के किरदार में जान फूँक देती हैं. उनके लहजे, उनकी झिझक, उनके आवेश, सब में एक तरह की ईमानदारी दिखती है, जिससे आपको जुड़े रहने में कभी कोई तकलीफ महसूस नहीं होती. अक्षय जरूर शुरू शुरू में आपको 'टॉयलेट-एक प्रेम कथा' के जाल में फंसते हुए दिखाई देते हैं, पर फिल्म के दूसरे भाग में वो भी बड़ी ऊर्जा से अपने आप को संभाल लेते हैं. एक्सिबिशन में अपनी मिनी-मशीन को समझाने वाले दृश्य और यूनाइटेड नेशन्स के मंच पर अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी की स्पीच के साथ, अक्षय अपनी पिछली कुछ फिल्मों की तुलना में बेहतर अभिनय करते दिखाई देते हैं. ये शायद इस वजह से भी हो, कि 'पैडमैन' कहीं भी उनके 'देशभक्त' होने और परदे पे दिखने-दिखाने के पूर्वनियोजित एजेंडे पर चलने से बचती है. 

'पैडमैन' अपने विषय की वजह से पहले फ्रेम से ही एक जरूरी फिल्म का एहसास दिलाने लगती है. बाल्की 'माहवारी' के मुद्दे पर पहुँचने में तनिक देर नहीं लगाते, न ही कभी झिझकते हैं. फिल्म अपने कुछ हिस्सों में डॉक्यूमेंटरी जैसी दिखाई देने लगती है, तो वहीँ सोनम के किरदार के साथ लक्ष्मी का अधूरा प्रेम-प्रसंग जैसे हिंदी फिल्म होने की सिर्फ कोई शर्त पूरी करने के लिए रखा गया हो, लगता है. दो-एक गानों, अमिताभ बच्चन के एक लम्बे भाषण और फिल्म के मुख्य किरदार का नाम बदल कर अरुणाचलम मुरुगनान्थम से उनकी उपलब्धियों, उनके व्यक्तित्व का एक छोटा हिस्सा चुरा लेने के एक बड़े अपराध को नज़रंदाज़ कर दिया जाये, तो 'पैडमैन' एक मनोरंजक फिल्म होने के साथ साथ एक बेहद जरूरी फिल्म भी है. परिवार के साथ बैठ के देखेंगे, तो सेनेटरी पैड को लेकर आपस की झिझक तोड़ेगी भी, सोखेगी भी. [3.5/5]     

Tuesday, 27 December 2016

देखन में छोटन लगें...! (Small in Size, Big on Content)

साल 2016 जाने को है. वक़्त है, एक बार फिर मुड़ कर देखने का. हर शुक्रवार भाग-भाग कर फिल्में देखना और उनके बारे में लिखने का सारा जोश-ओ-खरोश एक बार फिर समेट कर कागज़ पर उड़ेलना है. साल की बेहतरीन फिल्मों को एक और बार इज्ज़त बक्शने की बारी आ गयी है...पहल करता हूँ उन 10 फिल्मों से, जो देखने में ज़रूर छोटी लगी होंगीं, कभी नए कलाकारों की वजह से तो कभी ख़बरों और अख़बारों में कम सुर्खियाँ बटोर पाने की वजह से, पर इन सभी ने अपनी-अपनी अलग-अलग खूबियों से सिनेमाहाल तक जाने का मेरा फैसला ग़लत साबित नहीं होने दिया. बहुत बहुत शुक्रिया...


#ज़ुबान #जुगनी #साला खड़ूस #अमरीका #बुधिया सिंह- बोर्न टू रन #लाल रंग #वेटिंग #धनक #पार्च्ड #चौरंगा





पहली बार निर्देशन की बागडोर सँभालते मोज़ेज सिंह की ‘ज़ुबान’ एक ऐसे नौजवान की कहानी है, जो अपने सपनों के लिए किसी भी हद तक जा सकता है पर, एक दिन जब उसके चाहतों की दुनिया उसके क़दमों में बिछी दिखाई देती है, उसे एहसास होता है इस पूरे सफ़र में उसने अपनी पहचान ही खो दी है, अपनी जुबान ही खो दी है.

ज़ुबान’ में सब कुछ अच्छा हैऐसा नहीं है. कहानी की पकड़ अक्सर आप पर बनती-छूटती रहती है. फिल्म की रफ़्तार भी कुछ इस तरह की है कि आप इसे एक ‘स्लो’ फिल्म कहने से गुरेज नहीं करतेपर इन सबके बावजूद ‘ज़ुबान’ एक आम फिल्म नहीं हैएक आसान फिल्म नहीं है. 








A simple, unpretentious and wide-eyed country boy is trying to be apologetic to the girl he’s been with all night under the same sheet. Local liquor brand can be held responsible but the girl is taken aback, “Sorry? What for?” “For everything”, the boy is in deep guilt. “Not for everything. Say sorry only for why you left me alone there.” The girl is definitely more independent, free and open, and emotionally less complicated. So is Shefali Bhushan’s JUGNI. It likes to have its own sense of rhythm with melodies that induce extreme likeness and energy in you to match up with the beats life throws at you.






SAALA KHADOOS charms you with the uninhibited, wild and fresh performance by Ritika Singh, a professional boxer before making her first attempt at acting. Her free-spirited, loud-mouthed and all moody role-play is efficiently delightful. 


Madhavan gives SAALA KHADOOS everything it demands from him. He looks every bit of a full-grown ex-boxer with all the attitude, arrogance and aggression in him, hitting the right cord. One of his highly approving works!









प्रशांत नायर की ‘अमरीका’ उत्तर भारतीय गाँवों की आकांक्षाओंआशाओं और अपेक्षाओं पर भावनात्मक चोट है. कहानी वर्तमान की नहीं है पर वर्तमान से परे भी नहीं है. बड़ा बेटा [प्रतीक बब्बर] अमेरिका चला गया है. माँ को लगता है सारा सुखसारा भविष्य अमेरिका में ही है. चिट्ठियों से ही पूरे गाँव को बेटे और अमेरिका के बारे में नई-नई बातों का पता चलता है. घटनाएं तब एक तगड़ा मोड़ लेती हैं जब पिता की मृत्यु के बाद छोटे बेटे [‘लाइफ ऑफ़ पाई’ के सूरज शर्मा] को छुपी हुई सच्चाइयों का पता चलता है. साथ ही कुछ सवालजिनके जवाब सिर्फ अमेरिका जा कर पता चल सकते हैं. 

‘अमरीका’ एक बहुत ही करीने से बनाई गयी फिल्म हैजहां कुछ भीऔर मैं बहुत सोच समझ के कह रहा हूँकुछ भी बेतरतीब या बेढंगा नहीं है.





इस फिल्म में ‘आगे क्या होगा’ वाला रोमांच कम है, मैच के आख़िरी पलों में गोल दाग कर या छक्का मार कर टीम जिताने वाला हीरो भी कोई नहीं है, और ना ही फिल्म की सफलता के लिए ‘देशभक्ति’ का बनावटी छौंका लगाकर आपके अन्दर के ‘भारतीय’ को जबरदस्ती का झकझोरने की कोशिश. 

बुधिया सिंह- बॉर्न टू रन’ फार्मूले से अलग एक ऐसी ‘स्पोर्ट्स’ फिल्म है, जो सिर्फ सतही तौर पर खेल से जुड़े रोमांच को भुनाने की कोशिश नहीं करती, बल्कि उसके पीछे की मेहनत-मशक्कत, लगन और मुश्किलातों को सच्चे मायनों में आपके सामने उसकी असली ही शकल-ओ-सूरत में पेश करती है.









LAAL RANG is a good thriller that may not pump your heartbeat up in the usual way most of bollywood thrillers do. It also might not give you much of a pulsating action to cheer, and it definitely would not pitch obligatory twists & turns in the plot but even then, the firm writing has enough to make it an enjoyably unlike experience. 

Syed Ahmad Afzal makes sure it takes its own course of time to grow on the viewers. He never looks in hurry when establishing scenes or while making the shift from one to another.



अनु मेनन की ‘वेटिंग’ ज़िन्दगी और मौत के बीच के खालीपन से जूझते दो ऐसे अनजान लोगों के इर्द-गिर्द घूमती है जिनमें कहने-सुनने-देखने में कुछ भी एक जैसा नहीं है, पर एक पीड़ा, एक व्यथा, एक दुविधा है जो दोनों को एक दूसरे से बांधे रखती है. 

प्रोफ़ेसर शिव धीर-गंभीर और शांत हैं, जबकि तारा अपनी झुंझलाहट-अपना गुस्सा दिखाने में कोई शर्म-लिहाज़ नहीं रखती. तारा को मलाल है कि ट्विटर पर उसके पांच हज़ार फ़ॉलोवर्स में से आज उसके पास-उसके साथ कोई भी नहीं, जबकि प्रोफ़ेसर को अंदाज़ा ही नहीं ट्विटर क्या बला है? इसके बावज़ूद, अपने अपनों को खो देने का डर कहिये या फिर वापस पा लेने की उम्मीद, दोनों एक-दूसरे से न सिर्फ जुड़े रहते हैं, अपना असर भी एक-दूसरे पर छोड़ने लगे हैं.







एक सच की दुनिया है जो हमारे आस-पास चारों तरफ पसरी है, और एक दुनिया है जैसी हम अपने लिये तलाशते हैं, जिसके होने में हम यकीन करना चाहते हैं. अपने देश के साथ भी ऐसा ही कुछ कनेक्शन है हमारा. एक, जैसी हम देखना चाहते हैं, मानना चाहते हैं और दूसरा जो वाकई में है. 

नागेश कुकूनूर की ‘धनक’ हमारी परिकल्पना और सच्चाई की इन्हीं दो दुनियाओं के बीचोंबीच कहीं बसी है. अगर आप अच्छे हैं, दिल के सच्चे हैं तो आपके साथ बुरा कैसे हो सकता है? परीकथाओं में अक्सर इस तरह के मनोबल बढ़ाने और नेकी की राह पर चलते रहने के लिए हिम्मत बंधाने वाली उक्तियाँ आपने भी पढ़ी या सुनी होंगी. ‘धनक’ किसी एक प्यारी और मजेदार परी-कथा जैसी ही है, जिसमें बहुत सारे अच्छे लोग हैं और जो बुरे भी हैं वो सदियों पुराने, जाने-पहचाने जैसे हमेशा कोसते रहने वाली ‘डायन’ चाची और बच्चे उठाने वाला दुष्ट गिरोह.





हाव-भाव और ताव में लीना यादव की ‘पार्च्ड’ पिछले साल रिलीज़ हुई पैन नलिन की ‘एंग्री इंडियन गॉडेसेज’ से बहुत कुछ मिलती-जुलती है, और अपने रंग-रूप में केतन मेहता की ‘मिर्च मसाला’ जैसी तमाम भारतीय सिनेमा के मील के पत्थरों से भी. जाहिर है, इस तरह का ‘पहले बहुत कुछ देख लेने’ की ऐंठ आप में भी उठेगी, पर जिस तरह की बेबाकी, दिलेरी और दबंगई ‘पार्च्ड’ दिखाने की हिमाकत करती है, वो कुछ अलग ही है. 

यहाँ ‘आय ऍम व्हाट आय ऍमका जुमला बेडरूम के झगड़ों और कॉफ़ी-टेबल पर होने वाली अनबन में सिर्फ जीत भर जाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता. ‘पार्च्ड’ अपने किरदारों को उनके तय मुकाम तक छोड़ आने तक की पूरी लड़ाई का हिस्सा बन कर एक ऐसा सफ़रनामा पेश करती है, जो हमारी ‘घर-ऑफिस, ऑफिस-घर’ की रट्टामार जिन्दगी से अलग तो है, पर बहुत दूर और अनछुई नहीं.






जातिगत विसंगतियों के दुष्प्रभाव, छूत-अछूत के लाग-लपेट और धर्म के नाम पर विकलांग मानसिकता का परिचय देते भारतीय समाज को हमने पहले भी श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलाणी के सिनेमा में तार-तार होते देखा है. ‘चौरंगा’ भी काफी हद तक इसी दायरे में फैलती-सिमटती दिखाई देती है, इसीलिए एक मूल प्रश्न बार-बार दिमाग में कौंधता रहता है. ‘क्या कुछ भी नहीं बदला है?’ 

उत्तर फिल्म ख़तम होने के तुरंत बाद कुछ सरकारी तथ्यों के परदे पर उभरने के साथ ही मिलने शुरू हो जाते हैं. सच में, कुछ भी नहीं बदला है. और अगर नहीं बदला है तो सिर्फ सिनेमा में बदलाव दिखा देने भर से क्या सचमुच बदलाव आ जायेगा? ‘चौरंगा’ की पृष्ठभूमि, ‘चौरंगा’ के कथानक और ‘चौरंगा’ के पात्रों से पुराने होने की गंध भले ही आती हो, पर ‘चौरंगा’ के प्रासंगिकता की चमक पर कहीं कोई धूल जमी दिखाई नहीं देती. ‘चौरंगा’ एक सार्थक कोशिश है भारतीय समाज के उस एक वर्ग को टटोलने में, जिसे हम शहरी चकाचौंध के लिए कहीं अँधेरे में छोड़ आये हैं.  


Friday, 23 September 2016

पार्च्ड (A): हम सब ‘बोल्ड’ हैं! [3.5/5]

हाव-भाव और ताव में लीना यादव की ‘पार्च्ड’ पिछले साल रिलीज़ हुई पैन नलिन की ‘एंग्री इंडियन गॉडेसेज’ से बहुत कुछ मिलती-जुलती है, और अपने रंग-रूप में केतन मेहता की ‘मिर्च मसाला’ जैसी तमाम भारतीय सिनेमा के मील के पत्थरों से भी. जाहिर है, इस तरह का ‘पहले बहुत कुछ देख लेने’ की ऐंठ आप में भी उठेगी, पर जिस तरह की बेबाकी, दिलेरी और दबंगई ‘पार्च्ड’ दिखाने की हिमाकत करती है, वो कुछ अलग ही है. यहाँ ‘आय ऍम व्हाट आय ऍम’ का जुमला बेडरूम के झगड़ों और कॉफ़ी-टेबल पर होने वाली अनबन में सिर्फ जीत भर जाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता. ‘पार्च्ड’ अपने किरदारों को उनके तय मुकाम तक छोड़ आने तक की पूरी लड़ाई का हिस्सा बन कर एक ऐसा सफ़रनामा पेश करती है, जो हमारी ‘घर-ऑफिस, ऑफिस-घर’ की रट्टामार जिन्दगी से अलग तो है, पर बहुत दूर और अनछुई नहीं.   

लम्बे वक्त से दबी-कुचली, गरियाई-लतियाई और सताई जा रही गंवई औरतों के सर पर पहाड़ जैसा भारी हो चला घूंघट अब मिट्टी के ढूहे सा भरभराकर सरकने लगा है. सारी की सारी घुटन, चुभन, सहन अब धरती के आँचल में दबे लावे की तरह फूटने की हद तक आ पहुंची है. धागे जैसे भी हों, मोह के, लाज के, समाज के, सब के सब टूटने लगे हैं. रानी [तनिष्ठा चैटर्जी] विधवा है, जो अपने ही जवान बेटे की खरी-खोटी सुनती है. शायद इसीलिए क्यूँकि 15-16 साल का ही सही, वो भी एक मर्द है और रानी जैसियों को मर्दों की सुननी पड़ती है. लज्जो [राधिका आप्टे] बाँझ हैं, जिसे कोई अंदाज़ा भी नहीं कि मर्द भी बाँझ हो सकते हैं. बिजली [सुरवीन चावला] मर्दों के मनोरंजन का सामान है. गाँव की डांस कंपनी में ‘खटिया पे भूकंप’ जैसे गानों पर मर्दों को जिस्म दिखाती भी है और परोसती भी है, पर अपनी मर्ज़ी से! जानकी [लहर खान] बालिका-वधू है, जिसे रानी अपने बेटे के लिए शादी के नाम पर खरीद लायी थी.

पार्च्ड’ इन सबके और दूसरे कई और छोटे-छोटे किरदारों के साथ औरतों के साथ होने वाले हर तरह के अमानवीय कृत्यों का कच्चा-चिट्ठा खोल के सामने रखती है. ‘पढ़-लिख कर कौन सा इंदिरा गाँधी बनना है?’ जैसे उलाहनों से लेकर मणिपुर से आई बहू को ‘विदेशी’ कहने और शादी में सामूहिक घरेलू यौन-उत्पीड़न जैसी घिनौनी कुरीतियों तक, फिल्म एक सिरे से बहुत कुछ और सब कुछ एक साथ कहने की कोशिश करती है. गनीमत है कि इस बार घटनाक्रम पुराने ढर्रे के सही, पर ‘एंग्री इंडियन गॉडेसेस’ की तरह जल्दबाजी भरे और बनावटी नहीं लगते. बिना किसी शर्म, झिझक और लिहाज़ की परवाह करते गंवई संवाद जिनमें गाली-गलौज के साथ-साथ यौन-संबंधों से जुड़े कई खांटी शब्दों की भरमार दिखती है, और कुछ बहुत संवेदनशील दृश्य जिनके खुलेपन में लीना का (एक औरत का) निर्देशक होना ज़रूर मददगार साबित हुआ होगा, फिल्म को एक आज़ाद ख्याल और अलग अंदाज़ दे जाते हैं.

कई मामलों में फिल्म एक खालिस ‘औरतों की फिल्म’ कही जा सकती है. कैमरा सामने होने की झिझक कई बार झलकियों में भी नहीं दिखती. फिल्म मजेदार पलों से पटी पड़ी है. बिजली का ‘मर्दों वाली गालियाँ’ ईजाद करना, ‘वाइब्रेशन मोड’ पर मोबाइल के साथ लज्जो का ‘वाइब्रेटर-एक्सपीरियंस’, रानी का फ़ोन पर अनजान ‘लवर’ से बातचीत, फिल्म बड़ी बेहयाई से आपका भरपूर मनोरंजन करती है. फिल्म का तडकता-भड़कता संगीत एक और पहलू है, जो संजीदा कहानी के बावजूद आपके मूड को हर वक़्त फिल्म में दिलचस्प बनाये रखता है. कैमरे के पीछे जब ‘टाइटैनिक’ के रसेल कारपेंटर और एडिटिंग टेबल पर ‘नेबरास्का’ के केविन टेंट जैसे दिग्गजों की फौज हो, तो फिल्म के टेक्निकल साज़-ओ-सज्जा पर कौन ऊँगली उठा सकता है?

अभिनय में सुरवीन चावला सबसे ज्यादा चौंकाती हैं. उनके किरदार में जिस तरह की बोल्डनेस दिखती है, और दूसरे हिस्सों में उनका इमोशनली टूटना, सुरवीन कहीं भी डांवाडोल नहीं होतीं. राधिका और तनिष्ठा दोनों के लिए इन किरदारों में कुछ बहुत नया न होते हुए भी, दोनों बहुत सधे तरीके से अपने किरदारों को जिंदा रखती हैं. अन्तरंग दृश्यों में राधिका का समर्पण काबिले-तारीफ है. तनिष्ठा तो शबाना आज़मी हैं ही आजकल के ‘अर्थपूर्ण सिनेमा’ के दौर की. अन्य भूमिकाओं में सुमित व्यास और बिजली के मतलबी आशिक़ की भूमिका में राज  शांडिल्य सटीक चुनाव हैं.

अंत में; ‘पार्च्ड’ औरतों को देह-सुख का सामान और बिस्तर पर बिछौना मात्र मानने वाली पुरुष-सत्ता के खिलाफ ‘पिंक’ की तरह कोई तेज-तर्रार आवाज़ भले ही न उठाती हो, औरतों की आज़ादी के हक़ में एक ऐसी हवा तो ज़रूर बनाती है, जहां मर्दों की तरफ से लाग-लपेट, लाज-लिहाज़ का कोई बंधन मंजूर नहीं. प्रिय महिलाएं, ‘सास-बहू और नागिन’ जैसे सीरियलों की गिरफ्त से अगर छूट पाएं, तो ज़रूर देखने जाएँ! [3.5/5]  

Friday, 22 July 2016

कबाली: सुपर-साइज़ बोरियत!! [1/5]

मैं ‘कबाली’ देखने आया हूँ. हिंदी में. मुंबई में. परदे पर सुपरस्टार रजनीकांत की एंट्री हो चुकी है. कैदियों की पोशाक में किताब पढ़ते हुए, अपनी कोठरी से निकलते हुए और बाकी के एक-दो कैदियों से हाथ मिलाते हुए उनका चेहरा, उनके हाव-भाव की एक झलक मिल चुकी है, पर अभी तक सिनेमाहाल में मौजूद उनके प्रशंसकों में किसी तरह का वो अकल्पनीय उत्साह देखने को नहीं मिला. रुकिए, रुकिए! थोड़ी हलचल हो रही है. रजनी सर ब्लेजर डाल रहे हैं. काले चश्मे आँखों पर चढ़ने लगे हैं, अब ये पूरी फिल्म में वहीँ रहने वाले हैं. रजनी सर ने स्लो-मोशन में कैमरे की ओर बढ़ना शुरू कर दिया है. इंतज़ार ख़तम! सीटियाँ, तालियाँ भीड़ की आवाज़ बन गयी हैं. मैं अपने आस-पास देख रहा हूँ. परदे से आती चकमक रौशनी में नहाये चेहरे जाने-पहचाने लग रहे हैं. ‘भाई’ को ‘भाई’ बनाना हो या रवि किशन को ‘भोजपुरिया सुपरस्टार’, यही चेहरे काम आते रहे हैं. कुछ को मैंने संत-समागम जैसी जगहों पर भी नोटिस किया है.

खैर, स्टारडम का जलवा यहाँ तक तो ठीक था. ढाई घंटे की फिल्म में ऐसे चार या पांच मौके भी आ जाएँ तो ज्यादा शिकायत नहीं होगी. पर ‘कबाली’ शायद आपके सब्र का इम्तिहान लेने के लिए ही बनायी गयी है. फिल्म-स्कूलों में सिनेमा पढ़ रहे किसी भी एक रंगरूट को अगर चार ठीक-ठाक ‘गैंगस्टर’ फिल्में दिखा कर एक वैसी ही फिल्म लिखने को कह दिया जाए तो शायद ‘कबाली’ से ज्यादा बेहतर स्क्रिप्ट सामने आ जाए. हैरत होती है कि ये वही साल है जब मलयालम में राजीव रवि की ‘कम्माटीपादम’ जैसी बेहतरीन गैंगस्टर फिल्में भी बन रही हैं. ‘कबाली’ की सबसे ख़ास बात अगर फिल्म में रजनी सर का होना है तो फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी भी वही हैं. कुछ जबरदस्त डायलाग-बाजी के सीन, पंद्रह-बीस स्लो-मोशन वाक्स और स्टाइलिश ड्रेसिंग के अलावा स्क्रिप्ट उन्हें ज्यादा कुछ कर गुजरने की छूट देता ही नहीं.

गैंग-लीडर और ‘पढ़ा-लिखा गुंडा’ कबाली [रजनीकांत] 25 साल से मलेशिया की जेल में बंद है. उसकी गर्भवती बीवी को उसके दुश्मनों ने मार दिया है. बदले की आग में कबाली ने भी चाइनीज़ माफ़िया और अपने ही गैंग के कुछ गद्दारों के खिलाफ जंग छेड़ दी है. साथ ही, वो एक ‘बीइंग ह्यूमन’ जैसा एन जी ओ भी चलाता है, जो ड्रग्स और दूसरे गैंग्स में काम करने वाले नौजवानों को सुधार कर अपने गैंग में ‘रिप्लेसमेंट’ की सुविधा भी देता है. पूरी फिल्म में आप सर धुनते रह जायेंगे पर ये जान पाना आपके बस की बात नहीं कि आखिर कबाली का गैंग ऐसा क्या करता है जो दूसरे गैंग्स से अलग है?

फिल्म का स्क्रीनप्ले इतना बचकाना और वाहियात है कि कभी कभी आपको लगता है आप रजनीकांत की नहीं, हिंदी की कोई बी-ग्रेड एक्शन फिल्म देख रहे हैं. इंटरवल के बाद के 20-25 मिनट सबसे मुश्किल गुजरते हैं जब कबाली को पता चलता है कि सालों पहले मर चुकी उसकी बीवी अभी भी जिंदा है और वो उससे मिलने जाता है. ये वो 20-25 मिनट हैं जब फिल्म फिल्म नहीं रह कर, टीवी के सास-बहू के सीरियल्स का कोई उबाऊ एपिसोड बन जाता है. फिल्म में गोलियों से छलनी होने के बाद भी कोई जिंदा बच गया हो, ये सिर्फ एक या दो बार नहीं होता. बल्कि इतना आम हो जाता है कि जब अस्पताल में एक बुरी तरह घायल गैंग मेम्बर को राधिका आप्टे दिलासा देती हैं, “तुम्हें कुछ नहीं होगा’, आपका मन करता है आप खुद उसका गला घोंट दें और कहें, “रजनी सर का समझ आता है. इसको कैसे कुछ नहीं होगा?” लॉजिक को किसी फिल्म में इतनी बार दम तोड़ते मैंने शायद किसी मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म में ही देखा होगा.

कबाली’ में एक ही बात है जो कहीं से भी अटपटी नहीं लगती, और वो है रजनी सर का ‘प्रेजेंट’ और ‘रेट्रो’ दोनों लुक. परदे पर उनका करिश्मा अभी कहीं से भी कम नहीं हुआ है, जरूरत थी बस एक अदद स्मार्ट स्क्रिप्ट की और बेहतर निर्देशन की. आखिर कितनी देर आप बस यूँही किसी को निहारते, घूरते रह सकते हैं? ढाई घंटे तक?? बिलकुल नहीं! [1/5]   

Friday, 21 August 2015

MANJHI- THE MOUNTAIN MAN: The ‘Man at Work’ Nawazuddin nails it! [3.5/5]

The term ‘Incredible India’ can never be classified to only its breathtakingly colorful places of cultural or natural heritage; or even to the very fact that despite being stung by corruption, crime and constricted behavioral social and over-emotional issues, it is still very much on its feet. In fact, the other and the most significant characteristic of our nation have always been the legends of implausible efforts turning the impossible into the possible. The courageous case of Dashrath Manjhi of Bihar is most likely the most inspiring saga of undying spirit, nerve-wracking guts, survival against all odds and the triumph of true love in modern India. Ketan Mehta’s MANJHI- THE MOUNTAIN MAN is a visual documentation of Manjhi’s arduous 22-year long struggle to bring a considerable change in the society he’s been rooted in. But in the stricture of a Bollywood film that also craves for approval of the entertainment-seekers! A win some, lose some situation!

Dashrath Manjhi [Nawazuddin] is an angry young man traumatized by his beloved wife’s unfortunate accidental death and tormented by the haunting memories of good old times spent with her. Describing the pain better in his own words, Manjhi states in the film, “Kuch bhulaye nahin bhoolta. Fillum si ghus gayi hai humar khopadiya mein, kabhi bhi kahin se shuru ho jaati hai…aage-peechhe, peechhe-aage’. The same vouches for another reference to the film’s back & fourth narrative. The remedy lies in the revenge. Manjhi must fight the evil; in this particular case, a mammoth, invincible and insensitive mountain. The true love needs to pass the test and the only way out is, “Don’t stop till it’s over.” And thus, begins the wrestle between the two taking 22 years to reach a climax in favor of the most unbeatable spirit of a helpless looking man with just a hammer and a chisel in his hands.

Ketan Mehta is blessed with an eagle eye to look out for inspirational real-life stories from the past [SARDAR, MANGAL PANDEY- THE RISING, RANG RASIYA] but this time, his luck takes a giant leap in terms of finding Dashrath Manjhi in Nawazuddin’s chameleon-beating talent of owning a character so much that it could blur all the lines in between the two. The film gets off-track more than a couple of times when Ketan decides to provide some half-hearted, easy, filmy and feeble elements of desperate entertainment values [His buffoonery act on the first encounter with his would-be wife, for instance] but don’t lose your faith in Nawazuddin as he constantly manages to surprise you with his unimpeachable acting skills. If watching him romance with one of the most sizzling actresses of today’s times Radhika Apte is delightful, then his monologues with the mountain are simply worth-whistling. You can’t afford to miss any of the expressions he wears on his face so responsibly. His performance can only be expressed better in his own words on screen, “Shaandar! Jabardast!! Zindabad!!!”

Radhika Apte as Manjhi’s wife is here again to win some serious accolades. Though she misses a shot or two while perfecting the pitch and parlance of a rural-tribal inhabitant, she is in good form. Tigmanshu Dhulia repeats his GANGS OF WASSEYPUR role as the mean & malevolent Mukhiya of the village. Late Asharaf-ul-Haque as Manjhi’s Father is pitch-perfect. This is probably the best and the lengthiest role of his lifetime. Heartbreakingly, he couldn’t be here to enjoy the praise. Prashant Narayanan does his bit good in first part but later, returns only to kill it with a typecast transformation. Deepa Sahi surprises in her one and only appearance. Music is one big letdown. They try hard to sound authentically connected to the pace and the place but sadly, never reach the mark of satisfaction.

MANJHI- THE MOUNTAIN MAN is undeniably Ketan Mehta’s one of the bests; mostly because of two individuals. In Dashrath Manjhi, he finds an extraordinary hero who never surrenders to anything in his road to deliverance. And an excellent player of unswerving performance in his screen version Nawazuddin! Had it been less theatrical and more profound in its nature, MANJHI- THE MOUNTAIN MAN would have been definitely the best film of the year. The task is not completed but you’ll love the MAN at work! [3.5/5]       

Friday, 20 March 2015

HUNTERRR (A): Not all great foreplays ensure great climaxes! [2/5]

The stage/bed is set. Nicely decorated with all flowery elements, scented in the most arousing aroma and with dimly lit intense mood-making ambient! Charming players [more than you can imagine but essentially and effectively three in this case] have taken their pre-marked place. So far so good! You have all the control over the most before the drum rolls and the game begins; still no one can guarantee an orgasmic climax or even a smooth ride to make it a satisfying s-experience. First timer Harshvardhan Kulkarni’s ‘coming of age’ sex-comedy HUNTERRR is exactly like any love-making situation; you never know which side the camel will sit. Foreplay is just foreplay. It can’t replace the final act, no matter how skillfully it is being performed. Contrary to the myths, the extensive length doesn’t always ensure great pleasure. You may slower the pace, withdraw your force at regular intervals but the rhythm has to be there…and HUNTERRR lacks it. It is one of those failed sex-adventures where you were all set to lose yourself but it never happened the way you imagined.

Mandar Ponkshe [Gulshan Devaiah] has always been a sex-addict all his life. He’s been hunting ladies of all sorts since his young days. A college girl, an unhappy housewife in his building, a passionate sex-lover; the list is countless. But at 40, this is the age when he must get settled. His all ‘grown-up’ uncle-look is killing his charm. Tripti [Radhika Apte] - a modern girl who can unhesitatingly confess all her past affairs is his last bet to start a fresh. Can he put it on risk by telling her about his irrepressible compulsion to hit on any possible bait in saree, skirt or denims? Or will he be able to tame this wild animal in him for everyone’s good?

HUNTERRR promises not to be in the league of regular adult-comedies with lewd double-meaning dialogues and the objectification of women with their body parts shown on screen in the most abusive manner but at the same time, couldn’t hold itself from portraying its women characters as the dumbest class on earth. They can be easily fooled and brought to bed by any average looking-certainly ‘not so smart in his tricks’ guy. Why on earth there was not a single female who could bring him beneath her? Yet, some sequences sure work well with a catchy retro-feel soundtrack [Bappi Lahiri and Altaf Raja’s tracks are perfect to recreate the era] and an authentically designed middle-class settings playing the believable quotient in the final mixture. The young days in the plot are potent and fun. The characters are very much from the neighborhood.

Performances are a relief. They make you stay in the game though the ‘too much’ back and forth narrative style takes all the fun and excitement out of this cheesy looking film of great promises. Sai Tamhankar as the sensuously attractive housewife is perfectly cast. She is expressive, impressive and talented enough to pull it off like no one else could have. Radhika Apte is all about how confident, bold and clear Indian women are today. She brings an effortless and comforting performance yet a very radiant one. And then, the hunter himself! Gulshan’s charming looks and impenitently impish-scheming & teasing body language do it the way it should be. He may not be the typical hero with qualities to die for but sure there’s something in him inexplicable that makes you go with him all the way from start to end. He gives strong shoulders to rest this comparatively weaker film.

HUNTERRR also tries to speak for domestic sexual violence and new finds in modern age of marriages like compatibility and trust but it is all just some words at touch & go. Overall; it is not a sleazy but lazy, long but loose and ‘not so satisfying’ session. There’s always a next time and a more suitable position to try! [2/5]                 

Friday, 20 February 2015

BADLAPUR: Good is good, bad is better! [4/5]

Finally! The age-long standard formula for a successful Bollywood revenge film gets thrashed, whipped and slashed heartlessly by Sriram Raghavan’s dark, bold and gutsy BADLAPUR. The happy & happening world of our hero is shattered while the evil trying to execute one of his unlawful acts and now, the traumatized victim is all gritty to punish the doers. Sounds household? Well, it does but don’t go easy on this as the road ahead from here is anything taken before in Bollywood. BADLAPUR is unconventional, exceptional and incomparable in its league.

It’s been 15 years; Raghu [the unforeseen shades of charming Varun Dhawan] once your regular boy next door is obstinately trying his luck to stumble on one of the murderers of his family. The other partner in crime Liak [the show-stealer Nawazuddin Siddiqui] is already serving 20-year term. An NGO activist informs Raghu that Laik is dying of cancer and needs his forgiveness to taste the free air for the rest of his life. Raghu is unlike our heroes with heart and is even more focused than villains in our films used to be. He doesn’t blow up hideouts of the villain. He hammers on their mental stature. In one of the incontestable situations, he forces his opponent [Vinay Pathak] to let him sleep with his wife [Radhika Apte]. The wife is made producing fake sexual sounds behind the doors and the husband is seen dying in humiliation.

BADLAPUR is an enjoyable and inventive mix of such brutal humor with amusing action but the film gets a new dimension in the climax. The villain ticks off the hero for cold-bloodedly killing his partner. ‘You have gone mad. Go, see a doctor’ he suggests sympathetically. Film also raises the question that how far one would go for revenge? And what after it’s done? The other astounding subplot is the heartfelt romantic track between Laik and his sex-worker girlfriend Jhumli [Huma Qureshi]; where the lover loves to hear ‘dirty talks’ his flame masters in.    

Sriram Raghavan takes forward all the expectations his ‘EK HASINA THI’ and ‘JOHNNY GADDAR’ has built in cinema-lovers all over India. BADLAPUR too constantly keeps you on the edge of your seat with the riveting drama taking a new turn every time you blink your eyes. The rawness in characters and in the characteristics of the scene never misses the opportunity to surprise you. Watch out for the brilliantly visualized and set first static shot of the film. It’s your regular dull day in apparently uncrowded market and as a viewer; you really don’t see it coming.

BADLAPUR is a film celebrated most for its casting and worthy performances from every one listed. Yami Gautam looks ravishing and does succeed in making your heart bleed in those ‘not many’ scenes. Ashwini Kalsekar as the private detective leaves an impression she’s known for. Pratima Kannan is remarkably good so is Vinay Pathak. Radhika Apte plays it effectively while playing a convinced wife who can go any extend to save her husband. I have always maintained that Kumud Mishra is an eye-candy treat to see that something really sparkling in him. Huma continues to entice the screen with her mystical looks and presence. Divya Dutta is another talent who never fails.  And last but not the least, the Varun Dhawan-Nawazuddin duo! Where the balanced-than-ever-before Varun surprises with his new find scheming eyes and calculated smile, Nawaz takes your breath away with his gifted chameleon-like ability to throw on you an all new shade in his character one after the other.

To rest my case, Raghavan’s BADLAPUR is a smartly bricked film that blurs the line between your regular perception about good and bad, and does it so beautifully you find yourself in a tight spot as which side you are and which side you should be at the end of day. Watch out for Nawazuddin’s deliciously evil performance and the unconventional route it dares to take! A must-watch!! [4/5]