Friday 21 December 2018

ज़ीरो: शाहरुख़ के करिश्मे और कद के सामने छोटी पड़ती फिल्म! [2/5]


ये साल हिंदी सिनेमा के महानायकों को औंधे मुंह गिरते हुए देखने का है. ख़ास तौर पर खानों (सलमान, आमिर, शाहरुख़) की तिकड़ी दर्शकों की कसौटी पर कतई खरी नहीं उतर रही. सलमान ‘रेस 3’ में अपने आपको बड़ी बेहयाई और दंभ से बार-बार दोहराने का खामियाज़ा भुगत चुके हैं. मनोरंजन के नाम पर भव्यता की चमकीली पन्नी में लपेट कर कुछ भी सस्ता और सड़ा-गला परोसने के लिए, ‘ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान’ में आमिर नकारे जा चुके हैं; और अब अनोखी लेकिन बेतुकी और अजीब सी ‘ज़ीरो’ में शाहरुख़ अपने करिश्मे के बूते एक ऐसी फिल्म चलाने की कोशिश करते नज़र आ रहे हैं, जो जितनी जादुई और मनोरंजक है, उतनी ही थका देने वाली भी. हालाँकि बाकी दोनों मिसालों की बनिस्पत, ‘ज़ीरो कम से कम अपनी कमजोरियों और कमियों का ठीकरा अपने मुख्य नायक की क़ाबलियत पर तो नहीं ही फोड़ सकती! शाहरुख़ अपने पूरे शबाब पर हैं, और गनीमत है कि परदे पर उनका बौनापन सिर्फ उनके किरदार के कद तक ही सीमित रहता है, अभिनय पर तनिक भी हावी नहीं होता.

परदे पर छोटे शहरों के रोमांस में आनंद एल राय बड़ा नाम बन चुके हैं. ‘ज़ीरो की शुरुआत भी छोटे से शहर मेरठ से होती है, जहां शाहरुख़ जैसे बड़े नाम को कहानी में ‘फिट करने के लिए छोटा (बौना) बनने की शर्त से गुज़ारा जाता है. खेल बराबरी का होना चाहिए. बऊआ सिंह (खान) हिंदी में ‘अड़तीस’ और इंग्लिश में ‘थर्टी नाइन का हो चुका है, पर शादी की कोई सूरत नहीं बन रही. कद में छोटा बऊआ सपने में बड़ा बन जाता है. छोटे शहर का है, तो अमेरिका से लौटी, शराब-सिगरेट पीने वाली लड़की को शादी के बारे में सोचते देख झल्ला जाता है. ‘तू कहाँ से पड़ गयी इन चक्करों में?’. छोटे शहर का है, मर्द है तो जिद भी कि लड़की को बऊआ सिंह में इंटरेस्ट दिखाना ही होगा. बऊआ चंट है. मतलबी भी, और कोयल भी. खुद का घोंसला बनाने से चिढ़ मचती है. चाहे लड़की उसने खुद चुनी हो, अपने बराबरी की. व्हीलचेयर पर चिपकी, सेलेब्रल पल्सी से लड़ती, नासा की वैज्ञानिक (अनुष्का शर्मा).

फिल्म के लेखक हिमांशु शर्मा छोटे शहरों के चाल-चलन, ताव-तेवर और लय-लहज़ा का काफी कुछ भले ही पहले की फ़िल्मों में परोस चुके हों, ‘ज़ीरो में कहीं से भी उसके जायकों में कमी या बासीपन नहीं आने देते. उनके चुटीले संवादों में और बऊआ सिंह के बेशरम किरदार में आपकी दिलचस्पी अब भी बनी रहती है. दिक्कत पेश आती है, जब कहानी को बड़ी करने के लिए आनंद एल राय और हिमांशु बिना वजह तरकीबें लड़ाने लगते हैं. पतंगें उड़ाती ‘तनु वेड्स मनु की छत ‘ज़ीरो तक आते आते पैसों की बारिश कराने वाले छज्जे बन जाते हैं. रिक्शे पर घर लौटती तनु हो, या चौराहे पर पिटता कुंदन; गलियाँ-रस्ते अब ताज़ा-ताज़ा रंगे-पुते सेट बन गये हैं. भरोसेमंद किरदारों की भीड़ से अलग, कहानी में फ़िल्मी जगत के सितारों का बेरोक-टोक आना-जाना बढ़ गया है. एक सुपरस्टार (सलमान), दो कोरियोग्राफर (गणेश आचार्य, रेमो डिसूज़ा) और स्क्रीन पर करिश्माई मौजूदगी दर्ज कराने वाले दो काबिल अभिनेताओं (अभय देओल, आर माधवन) के साथ-साथ आधा दर्ज़न भर सिने-सुंदरियां (काजोल, रानी, दीपिका, जूही, श्रीदेवी, करिश्मा), मानो बऊआ के छोटे से कद में बखूबी घुसे शाहरुख़ अभी निकल कर ‘लक्स’ के बाथटब में छलांग मार देंगे.  

‘ज़ीरो अपनी कहानी में कुछेक अनोखे मोड़, अधूरेपन का जश्न मनाते किरदारों और उनकी सपनीली दुनिया के ज़रिये कई बार एक प्यारी सी, फंतासी रोमांस वाली ‘डिज्नी फिल्म होने का जोरदार आभास कराती है; खास कर अपने अंत की ओर बढ़ते हुए. इतना ही नहीं, हर वक़्त मनोरंजक होने की शर्त पूरी करने की ललक में फिल्म का पहला हिस्सा राजकुमार हिरानी की फिल्मों की भी याद ख़ूब दिला जाता है, लेकिन ये सारी उम्मीदें धीरे धीरे धुंआ होती जाती हैं. अभिनय में, अनुष्का की मेहनत साफ़ दिखती है. सेलेब्रल पल्सी और व्हीलचेयर के साथ भी, उनके चेहरे के भाव कितनी ही बार बरबस आपके चेहरे पर मुस्कान खींच देते हैं. ब्रेकअप के बाद बेपरवाह फिल्मस्टार की छोटी सी ही भूमिका में कटरीना कैफ़ अपनी सबसे रोमांचित कर देने वाली छाप छोड़ जाती हैं. तिग्मांशु धूलिया जमते हैं, और ज्यादा दिखाई देने की चाह पैदा करते हैं.

...लेकिन ‘ज़ीरो शाहरुख़ से अलग करके नहीं देखी जा सकती. बऊआ सिंह बनकर शाहरुख़ ना सिर्फ सुपरस्टार होने की उस अकड़ को तोड़ फेंकते हैं, जिसे हटाने की उम्मीद उनसे हाल-फिलहाल की जाने लगी थी; बल्कि ऐसा करते हुए वो अपने उस गुजरे हुए जादुई दौर को भी वापस जी लेते हैं, जहां उनका करिश्मा उनके किरदार की सच्चाइयों से पैदा होता था. बऊआ सिंह के सूरत और सीरत का हुलिया काफी हद तक ‘राजू बन गया जेंटलमैन’, ‘कभी हाँ कभी ना’ और ‘यस बॉस जैसी फिल्मों में उनके किरदारों से मेल खाता दिखता है. ‘जियरा चकनाचूर गाने में सलमान के चारो ओर जोश में नाचते बऊआ सिंह को देखना बरबस आपको शाहरुख़ की लगन, एनर्जी और सिनेमा को लेकर उनकी गंभीरता का मुरीद बना देगा. बऊआ सिंह को एक और मौका मिलना ही चाहिए.

आखिर में; ‘ज़ीरो फिल्म के तौर पर शाहरुख़ के करिश्मे और उनके मजेदार किरदार के कद के आगे बहुत छोटी पड़ जाती है. हालाँकि आनंद एल राय शाहरुख़ के कन्धों पर चढ़कर एक नया आसमान नापने की कोशिश पूरी करते हैं, पर तकरीबन पौने तीन घंटे की फिल्म में ज्यादातर वक़्त हवाबाजी में ही खर्च कर देते हैं. अगर सिर्फ फिल्म का पहला हिस्सा देखने की बात हो, तो मैं दो बार और देख सकता हूँ, पर शायद दूसरे हिस्से में फिल्म के बुरी तरह लड़खड़ाने का दर्द मुझे तब भी थिएटर से दूर ही रखेगा! [2/5]  

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