बीहड़ के बाग़ियों की सारी लड़ाईयां
सरकारी फौज़ और जातियों में बंटे अलग-अलग गैंगों तक ही सीमित नहीं है. कुछ मुठभेड़
अंदरूनी भी हैं. खुद से खुद की लड़ाई. जिन बाग़ियों की बन्दूक दूसरी बार सवाल पूछने
पर गोलियों से जवाब देना पसंद करती है, अब बार-बार खुद ही
सवाल पूछने लगी है. ‘बाग़ी का धर्म क्या है?’. जवाब भी सबके
अपने अपने हैं, कुछ अभी भी तलाश रहे हैं. आम तौर पर हिंदी
फिल्मों में चम्बल के डाकू या तो खूंखार लुटेरे होते हैं, या
सामाजिक अन्याय और सरकारी दमन से पीड़ित कमज़ोर नायकों के विरोध का प्रखर स्वर बनने की
एक प्रयोगशाला. ‘बैंडिट क्वीन’ और ‘पान सिंह तोमर’ इसी खांचे-सांचे की फिल्में होते हुए भी उत्कृष्ट अपवाद हैं. अभिषेक चौबे
की ‘सोनचिड़िया’ थोड़ी और गहरे उतरती है. ज़मीनी किरदारों के
ज़ेहन तक पैठ बनाने वाली, बदले-छलावे, न्याय-अन्याय, सही-गलत, जाति-पांति और आदमी-औरत के भेदों के साथ-साथ मोक्ष,
मुक्ति और पछतावे का पीछा करती फिल्म. 1972 में आई प्रकाश मेहरा की फिल्म ‘समाधि’
के पहले हिस्से जैसा कुछ.
मान सिंह (मनोज बाजपेई) के कंधे झुकने
लगे हैं. बढ़ती उम्र की वजह से नहीं, कंधे पर हर वक़्त टंगी
दोनाली की वजह से नहीं, बल्कि कुछ है जो अतीत से बार बार बाहर निकल कर दबोच लेता
है. गैंग के एक दूसरे नौजवान सदस्य लाखन सिंह (सुशांत सिंह राजपूत) को भी उस 5 साल
की लड़की की चीख आज भी डराती रहती है, जो मान सिंह और लाखन के कुकर्मों की इकलौती चश्मदीद
रही थी. दोनों अब मोक्ष और मुक्ति की तलाश में हैं, और दारोगा गुर्जर (आशुतोष राणा)
इन्हें मौत तक पहुंचाने के फ़िराक में. गैंग धीरे-धीरे ख़तम हो रहा है. रेडियो पर इंदिरा
गांधी के आपातकाल की घोषणा हो चुकी है. साथियों में ‘सरेंडर’ की भी सुगबुगाहट चल
रही है. एक बाग़ी की चिंता है कि सरेंडर के बाद जेल में ‘मटन’ मिलेगा या नहीं? ऐसे में, इंदुमती तोमर (भूमि पेडणेकर) और आ टकराती
है अपनी ‘सोनचिरैय्या’ को साथ लिए. साथी बाग़ी वकील सिंह
(रनवीर शौरी) की मर्ज़ी के खिलाफ, लाखन के लिए यही
सोनचिरैय्या (यौनशोषण की शिकार एक बच्ची) उसके अतीत के दाग को पश्चाताप की आग में
तपाने का जरिया दिखने लगती है.
‘सोनचिड़िया’ में
अभिषेक चौबे चम्बल को दिखाने के लिए जिस चश्मे का इस्तेमाल करते हैं, वो बेहद जाना-पहचाना है. शेखर कपूर वाला. हालाँकि अपने कथानक में वो जिस
तरह डार्कनेस ले आते हैं, और रूखे-रूखे व्यंगों का प्रयोग करते हैं, वो उनका अपना ही ट्रेडमार्क है. फिल्म की शुरुआत आपको अंत का आभास कराती
है. एक ऐसी शुरुआत जहां सब कुछ ख़तम हो रहा है. मानसिंह का गैंग अपना अच्छा खासा
नाम कमा चुका है. खौफ़ के लिए उसे सिर्फ लाउडस्पीकर पर मुनादी ही करनी पड़ती है, गोलियों की बौछार नहीं. शादी लूटने पहुंचे डाकू दुल्हन को 101 रूपये का
शगुन दे रहे हैं. नए हथियारों की जरूरत तो है, पर गैंग के पास पैसे ही नहीं हैं.
गोली लगती है, तो मानसिंह हँसता है, “सरकार की गोली से कबहूँ
कोऊ मरे है? अरे इनके तो वादन से मर जात है लोग.’. दारोगा गुर्जर जाति का है, और उसके नीचे काम करने वाले चाचा-भतीजा ठाकुर जाति के. चाचा (हरीश खन्ना)
की समझ पुख्ता है. वर्दी से बड़ी है चमड़ी. चमड़ी पे कोई स्टार नहीं लगे होते, जैसी जिसको मिल गयी, मिल गयी. एक दृश्य में एक महिला बाग़ी का दर्द सामने
निकल रहा है. ‘ठाकुर, बाभन मर्दों में होते हैं, औरतों की जात अलग ही होती है’. झूठ नहीं है, तभी तो
12-14 साल का बेटा बंदूक टाँगे माँ को खोज कर मारने के लिए डकैतों के बीच घूम रहा
है. खुद में बाप से ज्यादा मर्दानगी महसूस करता है.
‘सोनचिड़िया’ एक
डकैतों की फिल्म लगने के तौर पर आम दर्शकों में जितनी भी उम्मीदें जगाती है, सब पर तो खरी नहीं उतरती. मसलन, फिल्म का एक्शन मसालेदार होने का बिलकुल दावा
नहीं करता, हालाँकि सच्चाई से दूर भी नहीं जाता. हट्टे-कट्टे 6 फुटिया पहलवान को
दबोचने में 3-3 डाकू हांफने लगते हैं. फिल्म की रफ़्तार धीमी लगती है. गीत-संगीत भी
किरदारों के मूड से ज्यादा बीहड़ की बड़ाई में रचे-बसे हैं. इतने सब के बावजूद, सिनेमा की नज़र से फिल्म किसी मास्टरक्लास से कम नहीं. स्क्रीनप्ले में अभिषेक
की बारीकियां, खालिस बुन्देलखंडी बोली के संवाद, बेहतरीन कैमरावर्क और कलाकारों का
शानदार अभिनय; ‘सोनचिड़िया’ डकैतों की
फिल्म होने से कहीं ज्यादा कुछ है. मनोज बाजपेई कमाल हैं. ढलती उम्र को जिस तरह
मनोज अपने किरदार में ढाल कर पेश करते हैं, आप उन्हें खलनायक
से अलग, इंसानी तौर पर देखने से नहीं रोक पाते. सुशांत
बिलकुल घुलमिल जाते हैं. उनकी पहली फिल्म होती तो शायद आप उन्हें ‘एनएसडी के
लौंडों’ से अलग नहीं समझते! रनवीर शौरी फिर एक बार जता जाते हैं कि बॉलीवुड उन्हें
कितना कमतर आंकता है? आशुतोष राणा अपने पुराने अवतार में हैं.
उनकी कन्चई आँखें अब भी अपनी कुटिलता से आपके अन्दर सिहरन पैदा करने में कामयाब
रहती हैं, इतने सालों बाद भी. भूमि गिनती के दृश्यों में ही
आगे आती हैं, और उनमें सटीक हैं.
आखिर में, ‘सोनचिड़िया’ चम्बल की घाटियों और रेतीली पहाड़ियों में आम से दिखने वाले डकैतों का एक
नया सच है, जहां सब अपनी अपनी मुक्ति का मार्ग ढूंढ रहे हैं.
जाति, धर्म, समाज और सरकार से
लड़ते-लड़ते एक बड़े अंत की तलाश में भटकते कुछ ऐसे बाग़ी, जिनकी जिंदगियों के मायने
और मकसद एक बड़ा मतलब लिए हुए हैं. [3.5/5]
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