भारतीय समाज का 2000 साल पुराना ढांचा
अब गहरा दलदल बन चुका है. जात-पात की गंदगी से भरा एक ऐसा बजबजाता दलदल, जिसे ‘सामाजिक
संतुलन’ का नाम देकर सबने अपने-अपने नाक पर रुमाल रख ली है.
सबको अपनी-अपनी जात की ‘औकात’ मालूम है, और जिसे नहीं मालूम उसे भी उसकी जात और औकात याद दिला दी जाएगी, इस पहल में भी कोई पीछे नहीं रहना चाहता. अनुभव सिन्हा की ‘आर्टिकल 15’ एक ऐसे भारत की बदरंग तस्वीर है, जहां लोग जातियों
को तमगे की तरह सीने पे लटकाये फिरते हैं. एक ऐसा भारत, जहां संविधान भी उतना ही
अछूत है, जितना उसके निर्माताओं में से एक बाबा भीमराव
अम्बेडकर को मानने वाले लोग. बाभन, ठाकुर, कायस्थ, चमार; सब के सब एक-दूसरे के ऊपर प्याज के
छिलकों की तरह चढ़े हुए हैं, और जो जितना नीचे है, उतना ही
दबा हुआ, उतना ही शोषित.
उत्तर प्रदेश के लालगांव में नए अफसर
आये हैं. अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) को चेताया जा रहा है कि वो रस्ते में पड़ने
वाले एक ख़ास गाँव से पानी की बोतल न खरीदें क्योंकि वो गाँव छोटी जाति के लोगों का
है. उसी शाम को उन्हीं के स्वागत-समारोह में उनके नीचे काम करने वाले जाटव (कुमुद
मिश्रा) ने उनके आगे से अपने खाने की प्लेट झट से खींच ली, ताकि साहब उसकी प्लेट
से कुछ खाने का पाप न कर बैठें. जाहिर है, अयान बाहरी है. उसे इस व्यवस्था का
ओर-छोर नहीं पता; और जब पता चलता है, तो झल्लाहट के अलावा उसके पास और कोई चारा
बचता नहीं. पास के गाँव से 3 दलित लड़कियां गायब हैं. उनमें से दो की लाश पेड़ से
लटकती हुई मिली है. तीसरी लड़की का अब भी कुछ अता-पता नहीं. अपराध के पीछे ऊँची जाति
के कुछ दबंगों का हाथ है. अयान को न्याय और कानून की परवाह है, जबकि उसके नीचे काम करने वाले ब्रह्मदत्त (मनोज पाहवा) को अयान की. हाथ
जोड़ कर गुहार कर रहा है कि वो इस दलदल से दूर रहे, मगर किसी को तो सफाई के लिए इस गंदगी
में उतरना होगा.
बदायूं में दो बहनों से गैंगरेप और
हत्या की सच्ची घटना को अपनी कहानी का आधार बनाकर और ऊना में दलित लड़कों की सरेआम
पिटाई जैसे न भुलाये जाने वाले दृश्यों को परदे पर एक बार फिर जीवंत करके, अनुभव ‘आर्टिकल
15’ को हकीकत के इतना करीब ले आते हैं कि जैसे इन मुरझाती ख़बरों
को एक नई सशक्त आवाज़ मिल गयी हो. जहां अनुभव की पिछली फिल्म ‘मुल्क’ मुसलमानों को एक ख़ास नज़र से देखने के हमारे रवैये को बड़ी ईमानदारी और
मजबूती से कटघरे में खड़ा करती है, ‘आर्टिकल 15’ दलितों के खिलाफ होने वाले अपराधों को दस्तावेज बनाकर भारतीय समाज के
दकियानूसी जात-पात व्यवस्था पर एक ठोस प्रहार करती है. अनुभव सिन्हा और गौरव
सोलंकी अपनी कहानी की मिट्टी, उसकी बनावट, उसका खुरदुरापन,
उसके तेवर, उसकी तबियत, उसकी रंगत, सब भली-भांति जानते-पहचानते हैं. ‘आर्टिकल 15’ की दुनिया दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों से बहुत दूर नहीं है. परदे पर कहानी
उत्तर प्रदेश की भले ही हो, उसे देखते वक़्त पूरा भारत नज़र के सामने घूम जाता है-
कभी किसी अखबार की खबर बनकर तो कभी किसी समाचार चैनल में बहस का मुद्दा बनकर.
प्रतीकों को माध्यम बनाकर बात कहने में फिल्म ख़ासी समझदारी दिखाती है, और पूरी
बारीक़ी के साथ. लालगांव में कुछ भी सही नहीं है. ऑफिस का पंखा आवाज़ करता है. शिकायत
के बाद, ठीक कराने के आश्वासन के बाद भी कुछ बदलता नहीं.
सीवर का पानी बिगड़ते हालातों के साथ जैसे जुड़ा हुआ है, ज़मीन
से ऊपर आ कर बहने लगा है. कहानी के मूल का विषय जातिगत भेदभाव होते हुए भी, फिल्म
किसी एक विशेष जाति को निशाना नहीं बनाती; बल्कि पूरी जाति व्यवस्था को सवालों के
घेरे के खड़ी करती है.
फिल्म हाशिये पर धकेल दिए गये दलितों
के अधिकारों और उनके खिलाफ़ हो रहे अपराधों के बारे में बात तो करती है, मगर एक पल के लिए भी उपदेशक बनने की भूल नहीं करती. एक अपराध-फिल्म होने
के तौर पर भी, ‘आर्टिकल 15’ अपने कसे हुए निर्देशन, सधे हुए
लेखन और बेहतरीन कैमरावर्क के साथ पूरे नंबर कमाती है. धुंध से छन कर आते दृश्य
हों या रात की कालिख में डूबे हुए दृश्य; रोमांच आपको हर वक़्त उत्साहित रखता है. फिल्म
के संवाद किरदारों की खाल बन जाते हैं. ब्रह्मदत्त नीची जात की डॉक्टर पर तंज कसते
हुए कोटा और पब्लिक टैक्स की बात करता है. एक दृश्य में सब के सब चुनावों में अपने
अपने राजनीतिक रुझानों के बारे में बात कर रहे हैं- राजनीतिक दलों के साथ उनके
बनते-बिगड़ते भरोसों को लेकर एक ऐसी खांटी बातचीत, जो अक्सर
चाय की दुकानों का हिस्सा होती हैं.
अभिनय में,
कुमुद मिश्रा और मनोज पाहवा एक-दूसरे के पूरक माने जा सकते हैं. दोनों एक ऐसी जोड़ी
के तौर पर उभर कर आते हैं, जिन्हें एक पूरी की पूरी अलग फिल्म
बक्श दी जानी चाहिए. आयुष्मान उतनी ही सहजता से अपने किरदार में उतरते हैं, जितनी आसानी से उनका किरदार फिल्म में गंदे दलदल में बेख़ौफ़ उतरता चला
जाता है. सबसे धीर-गंभीर और सटीक पुलिस अधिकारी की भूमिका वाली लिस्ट में ‘मनोरमा
सिक्स फ़ीट अंडर’ वाले अभय देओल के बाद शायद आयुष्मान ही आते
हैं. भीम आर्मी के चंद्रशेखर रावण से प्रेरित किरदार में मोहम्मद जीशान अय्यूब
बेहतरीन हैं. सयानी गुप्ता काबिल हैं, कामयाब हैं. ईशा तलवार
भी निराश नहीं करतीं.
आखिर में, ‘आर्टिकल
15’ एक बेहद जरूरी फिल्म है. अयान एक दृश्य में बोल पड़ता है, ‘बहुत mess है, unmess करना
पड़ेगा.’ उसकी महिला-मित्र उसे ठीक करते हुए कहती है, ‘unmess जैसा कोई शब्द होता भी है?”. अयान का जवाब ही फिल्म
के होने की वजह बन जाता है. ‘नहीं, पर नए शब्द तलाशने होंगे, नए तरीके खोजने होंगे.’’ फिल्म के एक दृश्य में एक सफाईकर्मी सीवर के
काले गंदे कीचड़ से निकल कर स्लो-मोशन में बाहर आता है. बड़ी-बड़ी फिल्मों में आपने नायकों
को महिमामंडित करने वाले तमाम दृश्यों पर तालियाँ-सीटियाँ बजाई होंगी, इस एक दृश्य
से बेहतर और रोमांचक मैंने हाल-फिलहाल कुछ नहीं देखा. नए भारत का एक सच ये भी है, थोड़ा काला-थोड़ा भयावह, पर सच तो सच है! [4/5]