मैं ‘कबाली’
देखने आया हूँ. हिंदी में. मुंबई में. परदे पर सुपरस्टार रजनीकांत की
एंट्री हो चुकी है. कैदियों की पोशाक में किताब पढ़ते हुए, अपनी कोठरी से निकलते
हुए और बाकी के एक-दो कैदियों से हाथ मिलाते हुए उनका चेहरा, उनके हाव-भाव की एक
झलक मिल चुकी है, पर अभी तक सिनेमाहाल में मौजूद उनके प्रशंसकों में किसी तरह का
वो अकल्पनीय उत्साह देखने को नहीं मिला. रुकिए, रुकिए! थोड़ी हलचल हो रही है. रजनी
सर ब्लेजर डाल रहे हैं. काले चश्मे आँखों पर चढ़ने लगे हैं, अब ये पूरी फिल्म में
वहीँ रहने वाले हैं. रजनी सर ने स्लो-मोशन में कैमरे की ओर बढ़ना शुरू कर
दिया है. इंतज़ार ख़तम! सीटियाँ, तालियाँ भीड़ की आवाज़ बन गयी हैं. मैं अपने आस-पास
देख रहा हूँ. परदे से आती चकमक रौशनी में नहाये चेहरे जाने-पहचाने लग रहे हैं. ‘भाई’
को ‘भाई’ बनाना हो या रवि किशन को ‘भोजपुरिया सुपरस्टार’, यही चेहरे काम आते रहे
हैं. कुछ को मैंने संत-समागम जैसी जगहों पर भी नोटिस किया है.
खैर, स्टारडम का जलवा यहाँ
तक तो ठीक था. ढाई घंटे की फिल्म में ऐसे चार या पांच मौके भी आ जाएँ तो ज्यादा
शिकायत नहीं होगी. पर ‘कबाली’ शायद आपके सब्र का इम्तिहान लेने के लिए ही
बनायी गयी है. फिल्म-स्कूलों में सिनेमा पढ़ रहे किसी भी एक रंगरूट को अगर चार ठीक-ठाक
‘गैंगस्टर’ फिल्में दिखा कर एक वैसी ही फिल्म लिखने को कह दिया जाए तो शायद ‘कबाली’
से ज्यादा बेहतर स्क्रिप्ट सामने आ जाए. हैरत होती है कि ये वही साल है जब मलयालम
में राजीव रवि की ‘कम्माटीपादम’ जैसी बेहतरीन गैंगस्टर फिल्में भी बन रही
हैं. ‘कबाली’ की सबसे ख़ास बात अगर फिल्म में रजनी सर का होना है तो फिल्म
की सबसे बड़ी कमजोरी भी वही हैं. कुछ जबरदस्त डायलाग-बाजी के सीन, पंद्रह-बीस स्लो-मोशन
वाक्स और स्टाइलिश ड्रेसिंग के अलावा स्क्रिप्ट उन्हें ज्यादा कुछ कर गुजरने की
छूट देता ही नहीं.
गैंग-लीडर और ‘पढ़ा-लिखा
गुंडा’ कबाली [रजनीकांत] 25 साल से मलेशिया की जेल में बंद है. उसकी गर्भवती
बीवी को उसके दुश्मनों ने मार दिया है. बदले की आग में कबाली ने भी चाइनीज़ माफ़िया
और अपने ही गैंग के कुछ गद्दारों के खिलाफ जंग छेड़ दी है. साथ ही, वो एक ‘बीइंग
ह्यूमन’ जैसा एन जी ओ भी चलाता है, जो ड्रग्स और दूसरे गैंग्स में काम करने
वाले नौजवानों को सुधार कर अपने गैंग में ‘रिप्लेसमेंट’ की सुविधा भी देता
है. पूरी फिल्म में आप सर धुनते रह जायेंगे पर ये जान पाना आपके बस की बात नहीं कि
आखिर कबाली का गैंग ऐसा क्या करता है जो दूसरे गैंग्स से अलग है?
फिल्म का स्क्रीनप्ले
इतना बचकाना और वाहियात है कि कभी कभी आपको लगता है आप रजनीकांत की नहीं, हिंदी की
कोई बी-ग्रेड एक्शन फिल्म देख रहे हैं. इंटरवल के बाद के 20-25 मिनट सबसे मुश्किल
गुजरते हैं जब कबाली को पता चलता है कि सालों पहले मर चुकी उसकी बीवी अभी भी जिंदा
है और वो उससे मिलने जाता है. ये वो 20-25 मिनट हैं जब फिल्म फिल्म नहीं रह कर, टीवी
के सास-बहू के सीरियल्स का कोई उबाऊ एपिसोड बन जाता है. फिल्म में गोलियों से छलनी
होने के बाद भी कोई जिंदा बच गया हो, ये सिर्फ एक या दो बार नहीं होता. बल्कि इतना
आम हो जाता है कि जब अस्पताल में एक बुरी तरह घायल गैंग मेम्बर को राधिका आप्टे
दिलासा देती हैं, “तुम्हें कुछ नहीं होगा’, आपका मन करता है आप खुद उसका
गला घोंट दें और कहें, “रजनी सर का समझ आता है. इसको कैसे कुछ नहीं होगा?” लॉजिक
को किसी फिल्म में इतनी बार दम तोड़ते मैंने शायद किसी मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म में
ही देखा होगा.
‘कबाली’ में एक
ही बात है जो कहीं से भी अटपटी नहीं लगती, और वो है रजनी सर का ‘प्रेजेंट’ और ‘रेट्रो’
दोनों लुक. परदे पर उनका करिश्मा अभी कहीं से भी कम नहीं हुआ है, जरूरत थी बस एक
अदद स्मार्ट स्क्रिप्ट की और बेहतर निर्देशन की. आखिर कितनी देर आप बस यूँही किसी
को निहारते, घूरते रह सकते हैं? ढाई घंटे तक?? बिलकुल नहीं! [1/5]
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