Friday, 15 July 2016

ग्रेट ग्रैंड मस्ती (A): एक बचकानी एडल्ट कॉमेडी, आपके ‘उस’ व्हाट्स ऐप ग्रुप के लिए! [1/5]

बॉलीवुड में फिल्म-प्रमोशन का दौर एक ऐसा जादुई वक़्त होता है, जब फिल्म से जुड़े तमाम लोगों में अचानक ‘दैवीय ज्ञान’ का संचार होने लगता है. अपनी फिल्म को अच्छी बताने और बता कर बेचने में मैंने अक्सर बड़े-बड़े ‘सिनेमा-विशेषज्ञों’ को गिरते देखा है. खैर, ‘इट्स ऑल पार्ट ऑफ़ द जॉब’. हालाँकि ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ को बेचते हुए निर्माता-निर्देशक इन्द्र कुमार काफी हद तक सच के साथ खड़े दिखते हैं. उनका कहना है, “अगर हम एडल्ट जोक्स आपस में कह-सुन सकते हैं तो परदे पर एडल्ट कॉमेडी क्यूँ नहीं”. दुरुस्त, पर दुर्भाग्य ये है कि इन्द्र कुमार साब एडल्ट कॉमेडी के नाम पर उन्हीं बासी, घिसे-पिटे एडल्ट जोक्स को बार-बार हमारे सामने परोसते हैं, जिन्हें हम और आप अपने ‘व्हाट्स ऐप ग्रुप’ में पढ़ते ही डिलीट कर देते हैं. सिनेमा डिलीट नहीं होता. और अगर ये सिनेमा है तो काश सिनेमा डिलीट हो सकता! ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ एक उबाऊ, पकाऊ और झेलाऊ फिल्म है, जहां हंसाने के नाम पर बद्तमीजियां ज्यादा होती हैं और फूहड़पन हर तरफ बिखरा पड़ा है.

मस्ती’ अगर बॉलीवुड में एडल्ट कॉमेडी के एक नए दौर की शुरुआत थी तो ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ को अंत मान लेना चाहिए, क्यूंकि इसके आगे अब बस ‘पोर्न’ ही बचता है. ऐसा नहीं है कि मैं पोर्न फिल्मों के खिलाफ़ हूँ पर तब वो खांटी तौर पर एक नया मुद्दा होगा बहसबाजी और अवलोकन के लिये. एडल्ट कॉमेडी में अक्सर द्विअर्थी कहावतों और ‘वन-लाइनर्स’ की भरमार होती है. ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ में द्विअर्थी कुछ भी नहीं. यहाँ सबका मतलब साफ़ और एक ही है. फिल्म में अगर ‘मेरा खड़ा है’, ‘इसका छोटा है’, ‘मुझे करना है’ जैसे संवाद बोले जाते हैं, तो दादा कोंडके साब की तरह उन संवादों के आगे-पीछे किसी तरह को कोई एक्सप्लेनेशन जोड़ कर आपको चौंकाया नहीं जाता, बल्कि उनका सीधा मतलब आपके शारीरिक अंगों और यौन-क्रियाकलापों की तरफ ही होता है. जाहिर है, इसमें हँसी आने की कहीं कोई गुंजाईश नहीं बचती. बात सिर्फ संवादों तक ही रुक जाती तो गनीमत होती, यहाँ तो लेखक और निर्देशक उन तमाम अंगों-प्रत्यंगों को ‘कुचलने, काटने, कूटने’ तक पर उतर आते हैं. और हम लोग अनुराग कश्यप को सबसे ‘हिंसक’ फिल्म-निर्देशक का तमगा देने पर आमादा है, कैसी विडंबना है!

अमर, प्रेम और मीत [रितेश, विवेक और आफ़ताब; मुझे फर्क नहीं पड़ा कि किसका क्या नाम है] अपने-अपने वैवाहिक जीवन में ‘सेक्स-सुख’ न मिलने की वजह से ‘बाहर की बिरयानी’ खाने का मन बना चुके हैं. प्लान के मुताबिक तीनों रितेश के गाँव उसके वीरान बंगले को बेचने की नीयत से आते हैं. इस वीरान बंगले में एक भूत का कब्ज़ा है, भूत वो भी हद्द खूबसूरत [उर्वशी रौतेला] और 50 साल से मर्दों के लिए प्यासी. आप सोच रहे होंगे, टेंशन क्या है? पर नहीं, पहले तो ये तीनों भूखे भेड़िये (उनकी एक्टिंग देख कर तो कम से कम ऐसा ही लगता है) आपस में ‘मे बेस्ट मैन विन’ की रेस लगाने लगते हैं और बाद में भूत की शर्त. कुल मिलाकर आपको 2 घंटे 10 मिनट तक बेवकूफ बनाये रखने का पूरा इंतज़ाम यहाँ मौजूद है. कहने की बात नहीं है कि अंत में सारे मर्द ‘लौट के बुद्धू घर को आये’ और ‘सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते’ जैसे कहावतों की बिला पर साफ़ बरी हो जाते हैं.

अभिनय की नज़र से ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ एक बहुत जरूरी फिल्म है, उन लोगों के लिए ख़ास जिन्हें परदे पर कभी न कभी इंसानों के पूर्वजों की भूमिका करने में दिलचस्पी रही हो. ‘फैरेक्स-बेबी’ आफ़ताब इस लिहाज़ से काफी मजबूत कलाकार हैं. उनकी उछल-कूद देखकर मन में कोई दुविधा नहीं रह जाती. विवेक थोड़े पीछे रह जाते हैं. रितेश इस तरह की भूमिकाओं में ‘पदमश्री’ लेकर ही मानेंगे. उर्वशी रौतेला गानों में अपना जौहर ज्यादा बखूबी से पेश करती हैं, अभिनय में उनका सफ़र अभी काफी लम्बा और काटों भरा है. उषा नाडकर्णी और संजय मिश्रा पर हँसी कम, तरस ज्यादा आता है. फिल्म का सबसे दमदार दृश्य मेहमान भूमिका में सुदेश लाहिरी के हिस्से आता है, जहां वो रामसे ब्रदर्स और उनकी तमाम भूतिया फिल्मों पर छींटाकशी करते नज़र आते हैं. दिलचस्प बात ये है कि वो खुद उन्हीं फिल्मों के ‘लालटेन वाले चौकीदार’ की भूमिका में हैं.

ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ के एक मार-धाड़ वाले दृश्य में एक आदमी उड़ता हुआ मशहूर पेंटर Vincent van Gogh की पेंटिंग के ऊपर आ गिरता है. कला और सिनेमा पर ये फिल्म उसी तरह का एक निर्मम प्रहार है. इनका बंद होना तो नाजायज़ और नामुमकिन है; उम्मीद करता हूँ इन पर हंसने वालों की तादात थोड़ी कम हो. बहरहाल, मस्ती के नाम पर ये है एक गन्दी, सस्ती और बचकानी फिल्म! [1/5]    

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