Wednesday, 6 July 2016

सुल्तान: भाई मुबारक!! [3/5]

ईद आ गयी है. सिर्फ इसलिए नहीं क्यूंकि रमज़ान का महीना ख़त्म होने को आया बल्कि इसलिए भी क्यूंकि ‘भाई’ की फिल्म सिनेमाघरों में आ गयी है. लोग अपनों में ईद मनाने ‘अन्दरुने मुल्क’ तो जा ही रहे होंगे, सिनेमाघरों में भी भीड़ गज़ब की उमड़ने लगी है. ये अप्रत्याशित नहीं है. इसी की उम्मीद थी, और ये उम्मीद बड़ी सोची-समझी उम्मीद है. इस उम्मीद का सिनेमा से उतना लेना-देना नहीं है, जितना कि फिल्मों के व्यावसायिक पक्ष से. अली अब्बास ज़फर की ‘सुल्तान’ जिस दिमागी कसरत से उपजती है, वहां स्टार की डेट्स और रिलीज़ का दिन पहले मुकर्रर हो जाता है; कहानी, निर्देशन और अभिनय से जुड़े दूसरे पहलू इसके बाद धीरे-धीरे अपने तय क्रम में जुड़ते चले जाते हैं.

‘भाई’ की कोई भी फिल्म ‘भाई’ की ही फिल्म होती है. ‘सुल्तान’ कुछ अलग नहीं है. हाँ, कुछ मामलों में थोड़ी बेहतर ज़रूर है. बड़े कसमसाते हुए ही सही, ‘भाई’ यहाँ 30 की उम्र से सफ़र करते हुए 40 की दहलीज़ तक पहुँचने का दम-ख़म दिखाते हैं, पहली बार. हालाँकि ‘भाई’ पहले भी स्क्रीन पर शर्ट उतारते नज़र आये हैं, पर इस बार जब वो ऐसा करते हैं, अन्दर से उनके गठीले बदन के खांचे नज़र नहीं आते बल्कि एक थुलथुली सी तोंद सामने छलक पड़ती है. जाने-अनजाने ही सही, ‘भाई’ ने किरदार में ढलने की ओर एक सफल कोशिश तो कर ही दी है. रही-सही कोर-कसर पूरी कर देते हैं ‘मस्तराम’ और ‘मिस टनकपुर हाज़िर हों’ के अभिनेता राहुल बग्गा, जो इस फिल्म में ‘भाई’ के हरियाणवी लहजे पे नज़र रखने वाले मास्टरजी बनकर परदे के पीछे ही डटे रहते हैं. इतने सब के बावजूद भी, ‘भाई’ अपने एक उसूल से पीछे नहीं हटते. ‘भाई’ एहसान लेते नहीं, एहसान करते हैं. चाहे वो अकेले हल चलाकर खेत जोतना ही क्यूँ न हो. वैसे अगर हल को पीछे से जमीन में जोतना वाला कोई न हो तो ये काम काम रह ही नहीं जाता. फिर तो आप दौड़ते रहिये हल सर पे उठाये.

सुल्तान’ में पहलवानी और मुक्केबाजी भरपूर है, पर इसे एक ‘स्पोर्ट्स फिल्म’ कहना उतना ही बचकाना होगा जितना साजिद खान की फिल्मों को कॉमेडी कहना. असलियत में ‘सुल्तान’ दो कुश्तिबाज़ों की प्रेम-कहानी है. आरफ़ा [अनुष्का शर्मा] और सुल्तान [सलमान खान]. आरफ़ा ओलंपिक्स में भारत के लिए गोल्ड मेडल हासिल करने का सपना देख रही है. गाँव का निठल्ला-नालायक सुल्तान जब उसे पहली बार मिलता है, आरफ़ा के मन में कोई दो राय नहीं है. उसके लिए उसका सपना ही सब कुछ है. आपको लगता है ये है हरियाणे की लड़की. बाद में, 30 साल का सुल्तान उसके प्यार में पहलवान तक बन जाता है. अचानक आरफ़ा को निकाह पढ़वाना है. अचानक आरफ़ा को माँ बनने से भी कोई दिक्कत नहीं. अचानक आरफ़ा को अपना सपना सुल्तान के सपने में दिखने लगता है. और ये सब सिर्फ इसलिए क्यूंकि ‘सुल्तान’ ‘भाई’ की फिल्म है. और चूँकि ‘सुल्तान’ ‘भाई’ की फिल्म है तो ‘भाईगिरी’ तो रहेगी ही; ‘बीइंग ह्यूमन’ का तड़का भी होगा, कभी न कम पड़ने वाला ‘स्वाग’ भी होगा, थोड़ी उल-जलूल हरकतें भी होंगीं, इमोशंस का बहाव भी होगा और होगा ढेर सारा एक्शन. सब है. अगर कुछ नहीं है, तो ये सब होने की कोई ख़ास, कोई मुक्कमल वजह!

तकरीबन 3 घंटे के अपने पूरे वक़्त में, ‘सुल्तान’ बेहतरीन कैमरावर्क, शानदार प्रोडक्शन-डिज़ाइन, जोशीले साउंडट्रैक और कुछ बहुत अच्छे फाइटिंग सीक्वेंस के साथ आपको बांधे रखने की पूरी कोशिश करती है. अभिनय में कुमुद मिश्रा, अमित साढ और सुल्तान की दोस्त की भूमिका करने वाला कलाकार पूरी तरह प्रभावित करते हैं. रणदीप हुडा मेहमान कलाकार की हैसियत से थोड़े ही वक़्त स्क्रीन पर नज़र आते हैं. अनुष्का के किरदार के साथ फिल्म की कहानी भले ही पूरी तरह न्याय करती न दिखती हो, पर अनुष्का कहीं भी कमज़ोर नहीं पड़तीं. ‘भाई’ की फिल्म न होती तो शायद हम और फिल्म के लेखक इस किरदार की पेचीदगी को और समझने की कोशिश ज़रूर करते.

अंत में; ‘सुल्तान’ में सलमान बहुत हद तक फिल्म के किरदार को अपनाने की ओर बढ़ते दिखाई देते हैं. फिल्म में कई बार अपने हाव-भाव, अपने लहजे-लिहाज़ और अपने पहनावे से सलमान आपको चौंका देते हैं, और ये हिंदी सिनेमा के लिए काफी अच्छे संकेत हैं हालाँकि उनके अभिनय के बारे में अब भी बहस की जा सकती है, पर सबसे ज्यादा निराश करती है फिल्म की औसत कहानी और उसके घिसे-पिटे डायलाग. ज़िन्दगी के थपेड़ों से लड़ते-जूझते बॉक्सर जिनको अंततः मोक्ष, मंजिल, मुक्ति मिलती है बॉक्सिंग रिंग के अन्दर ही; ऐसी कितनी ही कहानियाँ हम पहले भी परदे पर देखते आये हैं, और इससे कहीं बेहतर ढंग से कही गयी, पर ‘सुल्तान’ की बात अलग है. ये ‘भाई’ की फिल्म है, तो ईद के मौके पर आप सबको...‘भाई मुबारक’! [3/5]          

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