Friday, 8 September 2017

समीर: उम्मीदों से खेलती एक नासमझ फिल्म! [2/5]

'कर्मा इज़ अ बिच'. याद है, मोहम्मद जीशान अय्यूब जाने कितनी बड़ी-बड़ी फिल्मों में छोटे-छोटे किरदार निभाने के बावजूद कैसे तारीफों का सारा टोकरा खुद भर ले जाते रहे हैं? उन्हें बड़े स्टार्स की हाय आखिर लग ही गयी. दक्षिण छारा की 'समीर' में मुख्य भूमिका निभाते हुए भी जीशान फिल्म में बहुत असहज और असहाय नज़र आते हैं, और ठीक उनकी पिछली फिल्मों की तरह ही, दर्शकों को इस फिल्म में भी सहायक और छोटे (इस मामले में उम्र में भी) कलाकार ही ज्यादा धीर-गंभीर और ईमानदार लगते हैं. हालाँकि यह 'कर्मा इज़ अ बिच' वाला बचकाना नजरिया मैंने सिर्फ मज़े और मज़ाक के लिए यहाँ इस्तेमाल किया है, पर यकीन जानिये फिल्म भी एक मंझे हुए कलाकार के तौर पर जीशान की ज़हानत और मेहनत का ऐसा ही मज़ाक बनाती है. एक ऐसी ज़रूरी फिल्म, जो मुद्दों पर बात करने की हिम्मत तो रखती है, जो सोते हुओं को जगाने और चौंकाने का दम भी दिखाती है, पर अक्सर किरदारों और कहानी की ईमानदारी के साथ खिलवाड़ कर बैठती है. 

एटीएस के हाथों एक बेगुनाह लगा है, उसी को मोहरा बनाकर एटीएस के लोग एक खतरनाक आतंकवादी तक पहुंचना चाहते हैं. चीफ बेगुनाह को धमका रहा है, 'मिशन पूरा करने में हम साम, दाम, दंड सब इस्तेमाल करेंगे', पिटता हुआ बेगुनाह जैसे भाषा-विज्ञान में पीएचडी करके लौटा हो, छिटक पड़ता है, "...और भेद?". स्क्रिप्ट में ऐसे सस्ते मज़ाकिया पंच ख़ास मौकों पर ही प्रयोग में लाये जाते हैं. एक तो जब पूरी की पूरी फिल्म या किरदार भी इतना ही ठेठ हो, या फिर जब फिल्म रोमांच और रहस्यों में उलझी-उलझी हो, और आप इन मज़ाकिया संवादों के सहारे दर्शकों को आगे आने वाले झटकों से पूरी तरह हैरान-परेशान होते देखना चाहते हों. फिल्म बेशक दूसरे तरीके के मनोरंजन की खोज में है. 

बंगलौर और हैदराबाद में बम धमाकों के बाद, यासीन अब अहमदाबाद में सीरियल ब्लास्ट करने वाला है. एटीएस चीफ देसाई (सुब्रत दत्ता) यासीन के साथ पढ़ने वाले स्टूडेंट समीर (जीशान) का इस्तेमाल कर, उसके ज़रिये यासीन तक पहुँचने की पूरी कोशिश में है. इस काम में रिपोर्टर आलिया (अंजलि पाटिल) भी देसाई के साथ है. अब भोले-भाले समीर को देसाई के हाथों की कठपुतली बना कर उस जंगल में छोड़ दिया गया है, जहां उसके सर पर तलवार चौबीसों घंटे लटकी है और कुछ भी एकदम से निश्चित नहीं है. झूठ का पहाड़ बढ़ता जा रहा है, और लोगों की जान का ख़तरा भी.

दक्षिण छारा अपनी फिल्म 'समीर' के जरिये दर्शकों को आतंकवाद के उस चेहरे से रूबरू कराने की कोशिश करते हैं, जो सिस्टम और राजनीति का घोर प्रपंच है, कुछ और नहीं. आम मासूम लोग बार-बार उन्हीं प्रपंचों का शिकार बनते रहते हैं और उन्हें इसका कोई अंदाजा भी नहीं होता. जहां तक फिल्म के कथानक और उसके ट्रीटमेंट की बात है, बनावट में 'समीर' काफी हद तक राजकुमार गुप्ता की बेहतरीन फिल्म 'आमिर' जैसी लगती है. दोनों में ही थ्रिलर का पुट बहुत ख़ूबसूरती से पिरोया गया है, मगर 'आमिर' में जहां आप मुख्य किरदार के लिए अपने माथे पर शिकन और पसीने की बूँदें महसूस करते हैं, 'समीर' यह अनुभव देने में नाकाम रहती है. जीशान का किरदार मनोरंजक ज्यादा लगता है, हालातों का शिकार कम. 

फिल्म के सबसे मज़बूत पक्ष में उभर कर आते हैं कुछ छोटे किरदार, जैसे एक तुतलाता-हकलाता बच्चा राकेट (मास्टर शुभम बजरंगी) जो गांधीजी को 'दादाजी' कह कर बुलाता है और मोहल्ले में नुक्कड़ नाटक चलाने वाले मंटो (आलोक गागडेकर) के साथ मिलकर बड़ी-बड़ी बातें बेहद मासूमियत से बयाँ कर गुजरता है. देसाई के किरदार में सुब्रत दत्ता अच्छे लगते हैं, पर उनकी अदाकारी में एकरसता भी बड़ी जल्दी आ जाती है. बोल-चाल में उनका बंगाली लहजा भी कई मौकों पर परेशान करता है. अंजली पाटिल को हम बेहतर भूमिकाओं में देख चुके हैं, इस किरदार के साथ उनकी अदाकारी में किसी तरह का कोई इजाफा नज़र नहीं आता. 

आखिर में; 'समीर' एक अलग, रोचक और रोमांचक फिल्म होने की उम्मीदें तो बहुत जगाती है, पर अपने बचकाने रवैये से उन्हें बहुत जल्द नाउम्मीदी में बदल कर रख देती है. काश, थोड़ी सी संजीदगी और समझदारी 'शाहिद' और 'आमिर' से उधार में ही सही नसीब हो गयी होती!! [2/5]                               

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