चुनावों के वक़्त टीवी चैनलों और अखबारों में, नाखूनों पे लगी स्याही दिखाते जोशीले चेहरों की तस्वीरें कितने फ़क्र से भारत में लोकतंत्र की बहाली, चुनावों की कामयाबी और जनता के प्रतिनिधित्व का सामूहिक जश्न बयाँ करतीं हैं. ऐसा ही एक दृश्य अमित मासुरकर की 'न्यूटन' में भी है, मगर जब तक फिल्म में ये दृश्य आता है, आँखों के आगे से सारे परदे गिर चुके होते हैं, आसमान से झूठ के बादल छंट चुके होते हैं और अब उन्हीं चेहरों से भारत में लोकतंत्र की खोखली इमारत का सच टुकुर-टुकुर झाँक रहा होता है. ठीक वैसे ही, जैसे किसी बच्चे को खिलौना दिखाकर उसके हाथ में सिर्फ खाली पैकेट थमा दिया गया हो. 'न्यूटन' बिना शक आज के राजनीतिक माहौल और सरकारी तंत्र की खामियों पर एक सही, सीधी और सटीक टिप्पणी है.
सोते हुओं को जगाने के लिए, 'न्यूटन' छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्र दंडकारण्य को अपनी प्रयोगशाला बनाती है. स्थानीय प्रत्याशी की हत्या के बाद क्षेत्र में दुबारा चुनाव कराये जा रहे हैं, सेना की देखरेख में. नौजवान चुनाव अधिकारी (राजकुमार राव) अपने नाम की तरह ही अजीब है, अजब है, अकडू है. अपना नाम न्यूटन उसने खुद ही रखा था, नूतन कुमार से बदल कर. 'आई वांट टू मेक अ डिफरेंस' वाली फैक्ट्री से निकला है, घोर ईमानदारी का पुतला है. सिर्फ 76 मतदाताओं वाले पोलिंग बूथ पे चुनाव कराना कौन सी बड़ी बात है, मगर आर्मी अफसर आत्मा सिंह (पंकज त्रिपाठी) का डरना-डराना भी जायज़ है. ये वो इलाका है, जहां के बारे में टीवी स्टूडियोज में बैठे सूट-बूट वाले न्यूज़ एंकर्स को ज्यादा पता है, और उनकी चीख-चिल्लाहट में हमने भी काफी कुछ सुन (ही) रखा है. "अपने ही लोग हैं, अपने ही लोगों के खिलाफ हैं", "देशद्रोही हैं स्साले, देश बांटने की मांग करते हैं", "चींटी की चटनी खाते हैं, बताओ!", वगैरह, वगैरह.
खैर, 'न्यूटन' किसी भी तरह और तरीके से नक्सल की समस्या पर पक्ष-विपक्ष का पाला चुनकर बैठ जाने की कोशिश नहीं करती, बल्कि फिल्म के समझदार और ईमानदार नजरिये की वजह से आप जरूर अपने आप को इस दुविधा में अक्सर लड़खड़ाते हुए पाते हैं. लोकल बूथ लेवल ऑफिसर मलको (अंजलि पाटिल) जब भी बातों-बातों में वहाँ के लोगों की बात सामने रखती है, आपके नजरिये को एक ठेस, एक धक्का जरूर लगता है. आत्मा सिंह जब बन्दूक न्यूटन के हाथ में थमा कर कहता है, 'ये देश का भार है, और हमारे कंधे पर है'; या फिर जब विदेशी रिपोर्टर पूछती है, 'चुनाव सुचारू रूप से चलाने के लिए आपको क्या चाहिए?" और उसका जवाब होता है, "मोर वेपन (और हथियार)!"; वो आपको खलनायक नहीं लगता, बल्कि आपको उसकी हालत और उसके हालात पर दया ज्यादा आती है. वो भी उसी सिस्टम का मारा है, और महंगा जैतून का तेल खरीदते वक़्त उसके माथे पर भी शिकन आती है.
फिल्म के एक दृश्य में गाँवों से लोग मतदान के लिए जुटाए जा रहे हैं, और बराबर के दृश्य में एक महिला काटने-पकाने के लिए मुर्गियां पकड़ रही है. 'न्यूटन' इस तरह के संकेतों और ब्लैक ह्यूमर की दूसरी ढेर सारी मिसालों के जरिये आपका मनोरंजन भी खूब करती है, और आपको सोचने पे मजबूर भी. आत्मा सिंह नाश्ता करते हुए कहता है, "बड़ी इंटेंरोगेशन के बाद मुर्गियों ने अंडे दिये हैं". न्यूटन के पूछने पर कि क्या वो भी निराशावादी है?, मलको टन्न से बोल पड़ती है, "मैं आदिवासी हूँ'. खंडहर पड़े प्राइमरी स्कूल में बने बूथ में सब अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठे-बैठे लोगों के आने का इंतज़ार कर रहे हैं, माहौल शांत है, पर धीरे-धीरे आपको सरकारी तंत्र और खोखले दावों की चरमराहट सुनाई देनी शुरू हो जाती है.
इतने सब उथल-पुथल और खामियों के बावज़ूद, 'न्यूटन' एक आशावादी फिल्म बने रहने का दम-ख़म दिखाने में सफल रहती है. न्यूटन की ईमानदारी, उसकी साफगोई, बदलाव के लिए उसकी ललक कहीं न कहीं आपको उसकी तरफ खींच कर ले जाती है. ऐसे न्यूटन अक्सर सरकारी दफ्तरों में किसी अनजाने टेबल के पीछे दफ़न भले ही हो जाते हों, उनकी कोशिशों का दायरा भले ही बहुत छोटा रह जाता है, पर समाज में बदलाव की जो थोड़ी बहुत रौशनी बाकी है, उन्हीं से है. ठीक 9 बजे ऑफिस आ जाने वालों पर हँसते तो हम सभी हैं, पर शायद ऐसे न्यूटन भी उन्हीं में से एक होते हैं. फिल्म में ट्रेनर की भूमिका में संजय मिश्रा फरमाते हैं, "ईमानदार होके आप कोई एहसान नहीं कर रहे, ऐसा आपसे एक्सपेक्टेड है'. कम से कम फिल्म इस कसौटी पर सौ फीसदी सही साबित होती है.
राजकुमार राव और पंकज त्रिपाठी की बेहतरीन अदाकारी, रघुवीर यादव, अंजलि पाटिल और संजय मिश्रा के सटीक अभिनय और मयंक तिवारी के मजेदार संवादों से लबालब भरी 'न्यूटन' साल की सबसे अच्छी फिल्म तो है ही, अपने विषय-वस्तु की वजह से बेहद जरूरी भी, और 'उड़ान', 'आँखों-देखी', 'मसान' जैसी नए भारत के नए सिनेमा की श्रेणी और शैली की मेरी पसंदीदा, चुनिन्दा फिल्मों में से एक. [4.5/5]
maza aaya padh ke bhai !! .. likhte raho :)
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