Friday, 1 September 2017

बादशाहो: 'डिसअपॉइंटमेंट, डिसअपॉइंटमेंट, डिसअपॉइंटमेंट'! [1.5/5]

महीने भर के अंतर पर ही, 'बादशाहो' दूसरी ऐसी फिल्म है जो सन् 1975 में इंदिरा गांधी सरकार के आपातकाल को अपनी कहानी का आधार बनाती है. मधुर भंडारकर की 'इंदू सरकार' ने परदे पर जहां सिनेमा के शऊर, सिनेमा की तमीज को कठघरे में ला खड़ा कर दिया था; मिलन लूथरिया ने 'बादशाहो' के साथ तो जैसे मनोरंजन पर ही इमरजेंसी लागू कर दी. 'द डर्टी पिक्चर' से 'एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट, और एंटरटेनमेंट' का जाप करने वाले मिलन अपने फिल्म-राइटर रजत अरोरा के साथ मिलकर मसालेदार मनोरंजन के नाम पर इस बार जो कुछ भी बासी, पुराना और सड़ा हुआ परोसते हैं, उसे सवा दो घंटे तक झेलना दर्शकों के लिए खुद किसी 'आपातकाल' से कम नहीं है. 

दिमाग़ी दिवालियेपन से निकली 'बादशाहो' की कहानी जयपुर की महारानी गायत्री देवी और उनसे जुड़े तमाम सुने-सुनाये किस्सों से उधार लेकर लिखी गयी है. संजय गांधी जैसी शक्ल और तेवर वाले नेता संजीव (प्रियांशु चैटर्जी) की बुरी नज़र पहले महारानी गीतांजली देवी (इलियाना डी'क्रूज़) और अब उनके इनकार के बाद, उनके पुश्तैनी खजाने पर है. सरकार, जब्त करने के बाद, सारा सोना एक आर्मी ट्रक में भर कर जयपुर से दिल्ली के लिए निकल पड़ी है. सरकार और सेना के हाथों से सोना वापस लूटने के लिए रानी साहिबा मदद लेती हैं अपने ही वफादार भवानी (अजय देवगन) और उसके साथियों (इमरान हाश्मी, संजय मिश्रा) की. उधर सोने की हिफाजत के लिए मुस्तैद है जाबांज अफसर सहर सिंह (विद्युत् जामवाल). इसके बाद शुरू होता है वो सब कुछ, जो दशकों पहले आप वीएचएस (VHS) के ज़माने में जरूर देख चुके होंगे. 

मिलन-रजत की जोड़ी पहले भी अपने आप को दोहराती आई है. तालियों की भूखी लाइनों और शोरगुल से भरे एक्शन दृश्यों वाली फिल्मों को औसत दर्जे के अभिनय से सजा-सजा के ऐसी कहानियों को परदे पर लाना, जिनकी सारी खामियों को 'मसाला' कह के आसानी से बॉक्स-ऑफिस पर चलाया जा सके. रजत की हर लाइन में 'पंच' रचने की कोशिश इस बार औंधे मुंह गिरती है, जब हर किरदार 70s के गंवई खलनायकों और हास्य-कलाकारों की तरह बार-बार एक ही लाइन 'तकियाकलाम' की शक्ल में बोलता रहता है. फिल्म की कहानी में लॉजिक या तर्क की रत्ती भर भी गुंजाईश नहीं दिखती. पूरे महल की तलाशी को महज़ कुछ पांच-सात लोगों से अंजाम दे दिया जाता है, सन् 75 के जमाने में 'वो उन्हें जरूर कॉल करेगी' जैसी गलतियां भर-भर के हैं, इमरजेंसी के दौर में भी आइटम-नंबर की जगह और इन सबसे ऊपर डकैती के कुछ बुनियादी उसूल. फिल्म में डकैती को अंजाम तक पहुंचाने में जितनी रुकावटें, जितनी बाधाएं बताई जा रही हों, सबको एक-एक करके पार करने की जद्दोजेहद. 

अभिनय में अजय देवगन सीधे विमल गुटखे के विज्ञापन से निकल कर राजस्थान लाये गए लगते हैं. हाँ, गंभीर अभिनय के नाम पर उनके किरदार में हंसी-ठिठोली की कमी भरपूर रखी गयी है. सेक्सिस्म का लबादा ओढ़े हाशमी अपनी पुरानी हरकतों के बदौलत ही फिल्म में रेंगते नज़र आते हैं. संजय मिश्रा ही हैं, जो इस डूबती फिल्म में पत्ते की तरह बहते हुए थोड़ा बहुत हास्य उत्पन्न कर पाते हैं. इलियाना और जामवाल परदे पर थोड़ा स्टाइल जरूर बिखेर पाते हैं. फिल्म में इस्तेमाल राजस्थानी बोली उतनी ही नकली लगती है, जितनी फिल्म की कहानी में इमरजेंसी का मुद्दा. अंत तक आते-आते फिल्म इतनी वाहियात हो जाती है कि टिकट पर खर्च किये 150-200 रूपये भी आपको बड़ी लूट की तरह झकझोर देती है.

आखिर में; जिस फिल्म का टाइटल ही बेमतलब, बकवास और सिर्फ बोलते वक़्त वजनी लगने की गैरत से रख दिया गया हो, फिल्म की कहानी से कुछ लेना-देना न हो, उस फिल्म से बनावटीपन और थकाऊ मनोरंजन के सिवा आप चाहते भी क्या थे? तकलीफ ये है कि लाखों (उस वक़्त के हिसाब से) के सोने की कीमत और अहमियत बार-बार बताने वाली 'बादशाहो', अपनी चीख-पुकार, चिल्लाहट से सोने के असली सुख से भी आपको वंचित रखती है. वरना सवा दो घंटे की नींद भी कम फायदे का सौदा नहीं होती! [1.5/5]

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