Friday, 11 May 2018

राज़ी: सिनेमाई देशभक्ति अपने सही अनुपात में! [3.5/5]


देशभक्ति और राष्ट्रीयता के नाम पर पिछले कुछेक सालों से हिंदी सिनेमा में एक नए दम्भी, आत्ममुग्ध और स्वप्रायोजित देशप्रेम का चलन धड़ल्ले से देखने को मिल रहा था. नायक जहां सिस्टम पर प्रहार करते हुए भी पुलिस की वर्दी या टेबल पर रखे तिरंगे की शान में कोई आंच नहीं आने देता (बाग़ी 2), परदे पर जितना बड़ा तिरंगा, फिल्म का नायक भी तकरीबन उसी अनुपात में स्व-सत्यापित देशभक्त. और अगर नायक द्वारा देश की शान में कशीदे पढ़े जाने वाले भारी-भरकम संवाद चबा-चबा कर बोले जा रहे हों, फिर तो बॉक्स-ऑफिस सफलता भी ज्यादा दूर नहीं. मेघना गुलज़ार की राज़ी इस अतिवादी देशप्रेम के फलते-फूलते-फैलते सिनेमाई फ़ॉर्मूले को कुछ इस मजबूती और ठोस तरीके से नकारने का बीड़ा उठाती है कि भारत-पाकिस्तान के बीच झूलती कहानी  होने के बावजूद परदे पर एक बार भी तिरंगे तक को किसी भी अनुपात में दिखाने की पहल नहीं करती. यहाँ तक कि वतन के आगे कुछ नहीं, खुद भी नहीं जैसे वजनी संवाद का ज़िक्र भी आपको तालियाँ पीटने के लिए उकसाता या बरगलाता नहीं, बल्कि आपको ज़ज्बाती तौर पर किरदारों को समझने और उनके जेहनी हाल-ओ-हालात से वाकिफ होने में ज्यादा मददगार साबित होता है.

1971 का नाज़ुक वक़्त है. कम से कम भारत-पाकिस्तान के लिए तो है ही. कश्मीरी नागरिक हिदायत खान साब (रजित कपूर) के ताल्लुक सरहद पार भी काफी गहरे हैं. पुराने दोस्त पाकिस्तानी ब्रिगेडियर सईद (शिशिर शर्मा) को गाहे-बगाहे खुफ़िया जानकारियाँ पहुंचाते रहते हैं, पर असलियत में उनकी वफादारी हिन्दुस्तानी इंटेलीजेंस एजेंसी की तरफ ही है. इस बार के दौरे से लौटते वक़्त एक अजीब-ओ-गरीब फैसला कर आये हैं, अपनी 20-साला बेटी सेहमत का निकाह ब्रिगेडियर साब के छोटे साहबज़ादे इक़बाल (विक्की कौशल) से. वतन महफूज़ रखने के लिए उन्हें अपने वालिद से रवायत में मिली ये ज़िम्मेदारी अब वसीयत में सेहमत तक पहुँच चुकी है. पड़ोसी मुल्क में इंटेलीजेंस अफसर खालिद मीर (जयदीप अहलावत) की कड़ी ट्रेनिंग शायद ही सेहमत के काम आये, तब जबकि कदम-कदम पर उसे ऐसे फैसले लेने पड़ रहे हों, जिनकी वो इकलौती जिम्मेवार है, और जो उसके दिल-ओ-दिमाग़ के लिए उलझन का सबब. फिल्म का सबसे आखिरी संवाद कहानी को बड़ी सादगी से मुकम्मल कर जाता है, “...कुछ कैज़ुअल्टीज़ ऑफ़ वॉर जिंदा रह जाते हैं.

सच्ची घटनाओं और हरिंदर एस. सिक्का की किताब कालिंग सेहमत पर बनी राज़ी में मेघना गुलज़ार भारत-पाकिस्तान के बीच के 71 के तनाव को बढ़ा-चढ़ा कर रोमांचक बनाने की बजाय सरहद के दोनों तरफ के किरदारों के ज़ज्बाती उतार-चढ़ाव को कुरेदने में ज्यादा वक़्त बिताती हैं. कुछ इस नरमी और समझदारी से कि किरदारों का इन्सानीपन उनसे पल भर के लिए भी अलग न हो. फेफड़ों में ट्यूमर झेल रहे हिदायत खान की ब्रिगेडियर सईद से की गयी सुनियोजित गुज़ारिश भी दो दोस्तों की गुफ्तगू से ज्यादा कुछ और नहीं लगती. डाइनिंग टेबल पर सेहमत के सामने ही भारत के खिलाफ मंसूबे रचे जा रहे हैं, इक़बाल अकेले में माफ़ी मांग रहा होता है, “घर वाले भूल जाते हैं, हिंदुस्तान तुम्हारा वतन है. हालाँकि फिल्म के दूसरे हिस्से में घटनायें कुछ इस रफ़्तार से एक के बाद एक घटती चली जाती हैं, कि अगर फिल्म सत्य घटनाओं पर आधारित होने का बोर्ड नहीं लेकर घूमती होती, तो आपको कम विश्वसनीय लगती.

उर्दू की चाशनी में लिपटे गुलज़ार साब के संवादों को परदे पर काफी अरसे बाद जगह मिली है. ...जिंदगी के कश शायद कुछ ज्यादा ही लम्बे खींच लिए मैंने हो या खालिद मीर के सेहमत की शादी के मसअले पर उसकी माँ (सोनी राजदान) की राय जानने के सवाल पर हिदायत खान की बेबाकी वो चाहती हैं कि आप खा कर जाएँ जैसे दिलचस्प और समझदार प्रयोग फिल्म को अलग ही रंग दे जाते हैं. ये भी अनूठा ही है कि फिल्म का सबसे दमदार गाना ऐ वतन, मेरे वतन पाकिस्तान में स्कूली बच्चों द्वारा पाकिस्तान के लोगों के लिए गाया जा रहा हो, पर उसकी हर लाइन हिन्दुस्तानी होने के तौर पर आपका रोम-रोम रोमांचित कर रही हो. फिल्म में खुफ़िया एजेंट्स के साथ संवाद स्थापित करने के लिए फिल्म में बार-बार कोड-वर्ड्स में बात होती है, जो कई बार बेहद बनावटी या जानबूझ कर मजाकिया बनाया गया लगता है. मसलन, बिल्ली को ठण्ड लग गयी. गर्म कपड़े भेजो’, बिल्ली को बाहर ले जाओ, गर्म कपड़ों से कुछ नहीं होगा’, छत टपक रही थी, मरम्मत हो गयी है. किताब पढ़ चुके लोग इस पर ज्यादा खुल कर राय दे पायेंगे.

राज़ी की सफलता में आलिया भट्ट की बाकमाल अदाकारी की हिस्सेदारी काफी बड़ी है. लिंगभेद के चक्कर में न पड़ें, तो फिल्म का नायक वहीँ हैं. महज़ 25 साल की उमर में इस तरह का परिपक्व अभिनय बेहद कम अभिनेताओं के हिस्से आया होगा. ये उनके किरदार की मासूमियत और उनके खुद के बारीक अभिनय का नतीजा ही है कि आप दर्शक के तौर पर, खुफ़िया गतिविधियों में हर वक़्त उनकी सलामती के लिए फिक्रमंद महसूस करते हैं. परदे पर उनका रोना कहीं न कहीं आपको भी द्रवित कर जाता है, खास कर दो अलग-अलग दृश्यों में. खालिद मीर के सामने सबसे आखिर में, और अपने शौहर इक़बाल के सामने पहली बार खुल कर सामने आने के वक़्त. इस एक दृश्य में विक्की कौशल भी परदे पर पूरी तरह छा जाते हैं. अब तक आप उन्हें महज़ एक जहीन शौहर के रूप में सराह रहे थे, जो बीवी के हिन्दुस्तानी क्लासिकल संगीत की पसंद को पूरी अहमियत और वाजिब जगह देता है, मगर इस दृश्य में तो वो जैसे फट पड़ते हैं. अपना सब कुछ झोंक देने की चाह में. सफल रहते हैं.

आखिर में; राज़ी देशप्रेम पर बनने वाली हालिया तमाम फिल्मों में सबसे समझदार, सुलझी हुई और बेहद ज़ज्बाती फिल्म है, जहां बेवजह की डायलागबाज़ी नहीं, नायकों की फालतू की तुनकमिजाजी नहीं, सरकारों के एजेंडे से मेल-जोल रखने वाली सिनेमाई साज़िश नहीं...है तो बस परदे पर कही, सुनी, देखे जाने लायक एक अच्छी कहानी और उस कहानी में देशभक्ति, अपने सही अनुपात में. [3.5/5]               

Friday, 4 May 2018

ओमार्ता (A): राजकुमार राव के अभिनय में एक और तमगा! [3.5/5]


सिनेमाई खलनायकों में अक्सर हमें मानवीय संवेदनाएं ढूँढने की आदत है. उनके अतीत में सेंध लगाकर जानने की कोशिश कि आखिर वो जैसे हैं, वैसे क्यूँ हैं? समाज या फिर सिस्टम से चोट खाए, बदले की आग में सब कुछ जला देने की सनक लिए ऐसे ढेर सारे एंटी-हीरोज को हमने सालों तक सर बिठाया है. और फिर आते हैं कुछ वो क्रूर, निर्दयी लेकिन रंग-बिरंगे, अजीब-ओ-गरीब खलनायक (मोगैम्बो, सर जूडा, शाकाल) जिनका पागलपन एकदम समझ से परे है. दुनिया पर कब्ज़ा करने की सनक में अंधे, अलग ही किस्म के हंसोड़ विलेन. हंसल मेहता की ओमार्ता का नायक भी खलनायक ही है, असल जिंदगी का है, पर इन दोनों किस्मों के खलनायकों से बिलकुल अलग. उसका अड्डा किसी काली पहाड़ी के पीछे की गुफा नहीं है. उसका पहनावा किसी सर्कस के रिंगमास्टर की याद नहीं दिलाता. किसी ने उसके माँ-बाप की हत्या बचपन में उसकी आँखों के सामने नहीं की थी. उसकी जमीन भी किसी साहूकार के हाथों बंधक नहीं पड़ी. पर फिर भी उसकी सनक, उसका पागलपन, उसका शैतानी दिमाग आपकी हड्डियों तक को कंपा देने में कहीं से भी कम नहीं पड़ता.

पुरानी दिल्ली के एक छोटे से मकान में 4 विदेशियों को बंधक रखा गया है. पाकिस्तानी मूल के ब्रिटिश आतंकवादी अहमद उमर सईद शेख़ (राजकुमार राव) का शायद पहला ही मिशन है ये. उमर पकड़ा जाता है. बोस्निया में उसके अपने भाइयों पर हो रहे ज़ुल्म के चलते उसने अपने लिए ज़ेहाद का रास्ता चुना है. उसे छुडाने के लिए कंधहार में इंडियन एयरलाइन्स का जहाज़ तक अगवा कर लिया गया है. ये उमर ही है, जिसके तार आगे चलकर अमेरिका में 9/11 अटैक और वॉल स्ट्रीट जर्नल के पत्रकार डेनियल पर्ल की निर्मम हत्या से जुड़े. मुंबई में 26/11 हमले के वक़्त, इसी शैतानी दिमाग ने भारत और पाकिस्तान को अलग-अलग फ़ोन करके युद्ध की स्थिति तक ला खड़ा किया था. धार्मिक उन्माद किस तरह पढ़े-लिखे जहीन दिमाग नौजवानों को हैवानियत की हद तक ला फेंकता है, ओमार्ता इसका बेहद करीबी और एकदम सटीक तस्वीर पेश करती है. वो भी असलियत के एकदम आसपास रहते हुए.

किसी खोजी रिपोर्ट या काबिल डाक्यूमेंट्री ड्रामा की तर्ज़ पर बनी ओमार्ता एक डार्क क्राइम थ्रिलर है, जहां निर्देशक हंसल मेहता आपके रोंगटे खड़े करने के लिए अख़बारों की असल सुर्ख़ियों, समाचारों के फुटेज और रूह कंपा देने वाली भयावह तस्वीरों का बेझिझक और बेख़ौफ़ इस्तेमाल करते हैं. ये तब और भी जरूरी लगने लगता है, जब हंसल उमर सईद शेख़ के आतंकवादी बनने की तरफ बढ़ने की आग को किसी और इमोशनल ईंधन से भड़काने की कोई होशियारी नहीं दिखाते, और तब भी जब उसके वहशियाना शख्सीयत को उधेड़ कर सामने रख देना चाहते हैं. अनुज राकेश धवन की बाकमाल सिनेमेटोग्राफी के साथ, हंसल फिल्म के दृश्यों को पूरी तरह आप पर ज़ाहिर होने देने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाते. यहाँ तक कि फिल्म के सबसे नाटकीय दृश्य (डेनियल पर्ल की हत्या) में भी आपको सब कुछ होते हुए साफ़-साफ़ नहीं दिखता, कैमरा उमर के चेहरे तक ही सीमित रहता है, पर घृणा, डर और दर्द से आपका दिल बैठा देने में नाकाम नहीं होता. इससे भयावह कुछ हिंदी सिनेमा में कम ही देखा है मैंने.

ओमार्ता राजकुमार राव के कद्दावर अभिनय में एक और तमगा है. जिस ख़ामोशी और ठहराव से वो उमर के किरदार में दाखिल होते हैं, और फिर वक़्त-बेवक्त उसके गुस्से, उसकी सनक और उसकी नफरत को बराबर मात्रा में नाप-जोख के परदे पर निकालते हैं, देखने लायक है. चेहरे पर कोई पछतावा नहीं, दिल में कोई मलाल नहीं, और वो हलकी सी शैतानी मुस्कराहट (रावण का अट्टहास नहीं); राजकुमार राव का यह किरदार हालिया खलनायकों की लिस्ट में बड़ी आसानी से, बहुत वक़्त तक याद रखा जाने लायक है. अगर याद हो, शाहिद में हंसल ने जेल के दृश्य में शाहिद आज़मी (राजकुमार राव) की मुलाक़ात कुछेक दृश्यों में उमर सईद शेख़ (तब, प्रबल पंजाबी) से कराई थी. अपने भाइयों पर हो रहे जुल्म से लड़ने के लिए दोनों अलग-अलग रास्ते चुनते हैं. इसे महज़ एक रोचक तत्थ्य मानने से हटकर देखें, तो हंसल इस तरह इस्लामिक आतंकवाद और धार्मिक भेदभाव के सन्दर्भ में अपना घेरा पूरा कर लेते हैं.  
             
हम अल्लाह के बन्दे हैं’, अल्लाह हमारे साथ है’, जैसे घिसे-पिटे संवादों से भरे दो-चार मौलानाओं की दकियानूसी और फ़िल्मी बर्गालाहट भरे दृश्यों को नज़रंदाज़ कर दें, तो किसी आतंकवादी की एकलौती बायोपिक होने के साथ-साथ ओमार्ता एक जरूरी और बेहद मुश्किल फिल्म है, देखने के लिए भी और बनाने के तौर पर भी. फिल्म किसी तरह का कोई सन्देश देने की या फिर एक मुकम्मल अंत देने की जिद से बचती है, इसलिए और भी सच्ची लगती है. [3.5/5]