Friday, 26 July 2019

जजमेंटल है क्या: कुछ नया, कुछ रोमांचक...और थोड़ी सी कसर! [3/5]

आम जिंदगी की बात करें, तो किसी को भी बात-बात पर हंसी-मज़ाक में ‘पागल करार देने और वास्तव में किसी गंभीर मनोरोग से जूझते व्यक्ति को ‘मेंटल कह कर संबोधित करने में हम किसी तरह का कोई फ़र्क या अपराध-बोध महसूस भी नहीं करते. इसका काफी दारोमदार हमारी फिल्मों के सर भी जाना चाहिए. दिमाग़ी रूप से असंतुलित व्यक्ति को ‘दुनिया तबाह करने पर तुला हुआ खलनायक साबित करने के सिवा हमारी समझ कुछ और देखना या दिखाना ही नहीं चाहती. ‘जजमेंटल है क्या इस लकीर से बंध कर नहीं रहती, और अपने दायरे बढ़ाने की हर मुमकिन कोशिश करती है.

फिल्म की मुख्य किरदार एक्यूट सायकोसिस नाम के मनोरोग से ग्रस्त है, पूरी फिल्म में उसकी मन:स्थिति सत्य और भ्रम के झूले में हिचकोले खाती रहती है. उसे दिन के उजाले में वो लोग भी दिखाई और सुनाई देते हैं, जो असल में हैं ही नहीं और सिर्फ और सिर्फ उसके दिमाग का खलल हैं. 80 और 90 के दशक की दर्जनों फिल्मों में ‘पागलखाना खलनायक द्वारा नायक को रास्ते से हटाने के लिए महज़ एक जरिया बना कर दर्शाया जाता रहा है. सलाखों के पीछे ऊल-जलूल बकते और अतरंगी हरकतें करते लोगों को देखकर आप बस हंस ही सकते थे, या फिर इस इंतज़ार में रहते थे कि कब नायक वहाँ से भगे और देश को खलनायक के घातक इरादों से बचाये.  

बॉबी (कंगना रानौत) सलाखों के पीछे नहीं रहती. वो मुंबई के एक इलाके में आपकी अजीब-ओ-गरीब पड़ोसी हो सकती है. अकेले रहती है. फिल्मों में डबिंग आर्टिस्ट का काम करती है. पूरी फिल्म में दवाइयां खाती है, और जब नहीं खाती, उसे कॉकरोच दिखने लगते हैं- मतलब हालत बिगड़ रही है. बचपन में माँ-बाप के बीच रोज़ाना के झगड़े के दौरान उनकी दुर्घटनावश मौत की ज़िम्मेदार ठहरा दिए जाने के बाद, अब बॉबी के ज़ेहन में वही किरदार लुका-छिपी खेलते रहते हैं, जिनको बॉबी परदे पर अपनी आवाज़ दे रही होती है. ऐसे में, एक दिन किरायेदार बन कर आते हैं केशव (राजकुमार राव) और उसकी पत्नी रीमा (अमायरा दस्तूर). शुरू-शुरू में तो बॉबी का झुकाव केशव की तरफ होने लगता है, पर बाद में उसे लगने लगता है कि केशव अपनी बीवी को मारना चाहता है. एक दिन रीमा का क़त्ल हो भी जाता है, लेकिन बॉबी केशव को क़ातिल साबित नहीं कर पाती, उलटे अपने मनोरोग की वजह से खुद शक के घेरे में आ जाती है.

‘जजमेंटल है क्या अपने टीज़र-ट्रेलर और पोस्टर्स से एक ऐसी थ्रिलर फिल्म होने का अनुमान पैदा करती है, जहां एक क़त्ल के दो आरोपी हैं और आरोप-प्रत्यारोप में दोनों की अपनी-अपनी दलीलें, जो केस का रुख बार-बार एक-दूसरे की तरफ मोड़ती रहती हैं. फिल्म में इस तरह का रोमांच बस कुछ पलों के लिए ही बना रहता है, बाक़ी के वक़्त में फिल्म कंगना के किरदार की अतरंगी खामियों और कमियों को हास्यास्पद बना कर पेश करने में, या फिर कंगना की मनोदशा को प्रभावित करते मनगढ़ंत किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है. फिल्म कुल मिलाकर जिन दो निष्कर्षों पर अपने होने की ज़मीन तय करती है- एक, ‘सीता-हरण रावण की चाल न होकर, सीता की सोची-समझी रणनीति भी तो हो सकती है’ और दूसरा- मनोरोग से ग्रस्त लोगों को समझने की ज़रूरत; दोनों फिल्म में उस दम आते हैं, जब तक दर्शक और लेखक-निर्देशक अंत का मुंह ताकते-ताकते थक चुके हैं.

बॉबी कॉकरोच के एक ख़ास तस्वीर पर जाकर बैठ जाने को क़त्ल के सबूत के तौर पर पुलिस के सामने पेश कर रही है, और दर्शक उसकी मानसिक अवस्था पर सहानुभूति दिखाने के बजाय हंस रहे हैं. लेखक-निर्देशक मौन हैं, क्यूंकि सारा ज्ञान अंत के लिए बचा के रखा है. और अंत भी इतना जाना-पहचाना कि जो बिलकुल मखमल में टाट के पैबंद की तरह खटकता हो. कनिका ढिल्लों की कहानी और स्क्रीनप्ले में एक महिला मनोरोगी को मुख्य किरदार बनाने की हिम्मत तो दिखा लेती है, पर जब उस किरदार के साथ दर्शकों का जुड़ाव बनाये रखने की बारी आती है तो थ्रिलर के नाम हथकंडे आजमाने लगती हैं. हालाँकि संवादों में धारदार हास्य और तेवर की कमी नहीं होती.      

‘जजमेंटल है क्या में नयेपन की झलक ख़ूब है, आखिर तक बांधे रखने वाला रोमांच भी है, गुदगुदाने वाला मनोरंजन भी. मगर फिल्म जहां दो ऐसे मज़बूत लोगों को, जो एक-दूसरे को अपनी-अपनी मनोस्थितियों से बार-बार चकमा देते हैं, आमने-सामने खड़ा करके और रोचक बना सकती थी, सिर्फ एक किरदार (बॉबी) के प्रचलित हाव-भाव और तीखे तेवरों पर अपना पूरा भरोसा झोंक देती है. कंगना ऐसी भूमिकाओं में आम सी हो गयी हैं, ख़ास कर जबकि असल जिंदगी में भी उनका व्यक्तित्व कुछ इसी खांचे-ढाँचे का नज़र आता है- बेबाक, मुंहफट, तेज़ तर्रार. हालाँकि बॉबी के किरदार में वो पूरी तरह फिट हैं, उनसे कोई शिकायत नहीं रहती, फिर भी बार-बार ख्याल उठता है कि आखिर इस किरदार में राधिका आप्टे क्यूँ नहीं हैं? राजकुमार राव उन दृश्यों में खासा कमाल हैं, जिनमें वो अपने किरदार का बना-बनाया भ्रम तोड़ते हुए दिखते हैं.

आखिर में; ‘जजमेंटल है क्या श्रीराम राघवन की रंगीन आपराधिक दुनिया में ही पली बढ़ी नज़र आती है. कुछ उसी तरीके का रोमांच, कुछ उसी मिट्टी के बने किरदार, पुराने हिंदी फ़िल्मी गानों का इस्तेमाल; लेकिन इन सबके बाद भी फिल्म एक स्तर के बाद न सिर्फ ऊपर उठने से इनकार कर देती है, बल्कि आखिर तक आते-आते अपनी बनी-बनायी साख को भी नीचे लुढ़कने से बचा नहीं पाती. एक अच्छी प्रयोगधर्मी फिल्म को मुख्यधारा में मिलने की कीमत चुकानी पड़ जाती है. फिर भी, फिल्म में बहुत कुछ है, जो नया है. [3/5]

Friday, 12 July 2019

सुपर 30: हृतिक की मेहनत को ‘जीरो’ करता फिल्मी फ़ार्मूला [2/5]


दिहाड़ी में 3 रूपये रोज बढ़ाने की मांग करने वाली दलित लड़कियों की बलात्कार के बाद हत्या होते हम पिछले हफ्ते ही ‘आर्टिकल 15’ में देख चुके हैं. जातिगत भेदभाव के बाद, इस हफ्ते बॉलीवुड के निशाने पर है शिक्षा के क्षेत्र में आर्थिक रूप से पिछड़े होनहार छात्रों के साथ हो रही नाइंसाफ़ी. ऊंची जात और नीची जात के बीच की खाई से कम गहरा नहीं है अमीर और गरीब के बीच का फ़र्क. दोनों फ़िल्में अपना कथानक अखबारों की सुर्खियों और असल ज़िंदगी की घटनाओं से उधार लेती हैं, पर एक बड़ा अंतर जो इन दोनों को लकीर के बिलकुल आर-पार, आमने-सामने खड़ा कर देता है, वो है फ़िल्म बनाते वक़्त कहानी और उसके कहे जाने के पीछे के मकसद के साथ बरती जाने वाली ईमानदारी. ‘आर्टिकल 15’ कहानी में कोई एक नायक खोजने या बनाने के फ़िज़ूल चक्करों में नहीं फंसती, जबकि ‘सुपर 30 एक ख़ालिस दमदार नायक होने के बावज़ूद, कहानी में नायक गढ़ने के लिए जबरदस्ती के ताने-बाने बुनने में अपनी सारी अक्ल खर्च कर देती है. ये कुछ उतना ही बड़ा जुर्म है, जैसा राजकुमार हिरानी ‘संजू बनाते वक़्त कर बैठते हैं. ‘सुपर 30 में ड्रामा है, एक्शन है, इमोशन है, गीत-संगीत भरपूर है, पर सब का सब बड़ी सफाई और सहूलियत से कहानी में ठूंसा हुआ. ठीक वैसे ही जैसे फिल्म में हृतिक का किरदार अपनी गर्लफ्रेंड के चेहरे को ख़ूबसूरती के गणितीय-सूत्र से मापता फिरता है.


आर्थिक स्तर पर तंगी से जूझता आनंद कुमार (हृतिक रोशन) अप्रत्याशित तौर से मेधावी है. पैसों की कमी ने न सिर्फ कैंब्रिज यूनिवर्सिटी जाने का सपना उससे छीन लिया है, उसके पिता (वीरेंद्र सक्सेना) भी नहीं रहे. शिक्षा-माफिया लल्लन सिंह (आदित्य श्रीवास्तव) को आनंद साइकिल पर पापड़ बेचता हुआ मिलता है. अब आनंद लल्लन सिंह के कोचिंग इंस्टिट्यूट का ‘प्रीमियम टीचर है. पैसों ने उसका हाल बदल दिया है, उसकी चाल बदल दी है. जिदंगी के साइकिल की चेन उतर गयी थी, मगर वापस चढ़ने में बहुत देर नहीं लगती. गुरु द्रोणाचार्य को राजाओं के बेटों को राजा बनाने से बेहतर लगने लगा है, प्रतिभा से धनी-साधनों से हीन एकलव्यों को उनकी शिक्षा का हक़ देना/दिलाना.         

बिहार के मशहूर गणितज्ञ आनंद कुमार और उनके मेधावी छात्रों पर बनी ‘सुपर 30 के साथ सबसे बड़ी विडम्बना ये है कि फिल्म जिस मुद्दे के खिलाफ़ पूरे जोश से नारे लगाती है, उसी चक्रव्यूह में खुद अन्दर तक फंसी नज़र आती है. ‘राजा का बेटा राजा नहीं बनेगा, राजा वही बनेगा जो हक़दार होगा का परचम बुलंद करते हुए परदे पर ‘ग्रीक गॉड’ कहे जाने वाले हृतिक रोशन आनंद कुमार कम, ब्रांडेड फेयरनेस क्रीम के विज्ञापन में अपनी रंगत के लिए लगातार शर्मिंदगी झेलने वाले संभावित ग्राहक ज्यादा दिखते हैं. एक दृश्य में एक अमीर छात्र पूछ लेता है, ‘सर, मैं अमीर हूँ तो इसमें मेरी क्या गलती है?’. जवाब देने के लिये, सामने फिर हृतिक ही खड़े मिलते हैं, फिल्म में अपने आप के ही अस्तित्व को खारिज़ करते हुए. हालाँकि फिल्म में उनका अभिनय आप पर चढ़ते-चढ़ते चढ़ ही जाता है, पर कहीं न कहीं उसके पीछे हृतिक के अभिनय कौशल से ज्यादा उनकी जी-तोड़ मेहनत और साफ़ नीयत हावी रहती है.

आनंद कुमार हर साल 30 गरीब छात्रों को आई.आई.टी. जैसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों की प्रवेश-परीक्षाओं के लिए तैयार करते हैं. उनके रहने-खाने से लेकर पढ़ाई की दूसरी जरूरतों तक, सब मुफ़्त में मुहैय्या कराते हैं, और अपने आम से दिखने वाले व्यक्तित्व और अध्यापन में अपनी ख़ास ठेठ शैली के लिए सराहे जाते हैं. गणित के भारी-भरकम सूत्रों को असल जिंदगी के आसान उदाहरणों से जोड़ कर पढ़ाई को मनोरंजक बनाने की उनकी पहल फिल्म में दिखती तो है, पर उसका अंत कुछ इस नाटकीयता तक पहुँच जाता है, जो आपको सच्चाई से कोसों परे लगती है और आप धीरे-धीरे फिल्म से कटने लगते हैं. बच्चे हथियारबंद गुंडों का मुकाबला कर रहे हैं, गणित के सूत्रों का इस्तेमाल करके. इस मुकाम पर आकर ‘गैंग्स ऑफ़ वास्सेपुर और ‘चिल्लर पार्टी एक ही फ्रेम का हिस्सा हो जाते हैं. अंग्रेजी से डरकर भागने वाले बच्चे बीच चौराहे पर टूटी-फूटी अंग्रेजी में गीत गा रहे हैं, ‘बसंती! डोंट डांस’, और देखते ही देखते पूरी की पूरी भीड़ उनके साथ उन्हीं के राग में रम जाती है. फिल्म के लेखक-निर्देशक अब अपना दिमाग़ चलाने लगे हैं. उन्हें शायद आनंद कुमार की शख्सियत और उनकी कहानी में दम दिखना बंद हो चुका है.

‘सुपर 30 का सबसे तगड़ा पहलू है, गरीब बच्चे-बच्चियों के किरदार में अभिनेताओं का सटीक चयन. फिल्म में जितने भी पल आपको द्रवित कर पाते हैं (गिनती के ही सही, पर यकीनन फिल्म में ऐसे दृश्य हैं), सब के सब इन्हीं बच्चों के हिस्से. आदित्य श्रीवास्तव और वीरेंद्र सक्सेना की सहज अदाकारी ही है, जो फिल्म के बैकड्राप में बिहार को स्थापित कर पाती है वरना तो पंकज त्रिपाठी भी कुछ नया पेश करने की कोशिश में असफल ही नज़र आते हैं. दो ख़ास दृश्यों में साधना सिंह और मृणाल ठाकुर बेहतरीन हैं. एक दृश्य में साधना जी अपने आप को ‘हॉट’ कह कर शर्माती हैं, दूसरे में मृणाल ‘मर्दों में मेरी चॉइस हमेशा अच्छी रहती है कहकर मानव गोहिल को गुदगुदाती हैं.

आखिर में; ‘सुपर 30 आनंद कुमार को सुपर-नायक बनाने की कोशिशों में गरीब बच्चों को लेकर उनके ईमानदार प्रयासों और प्रयोगों को कमतर आंकने की भूल कर बैठती है. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की कहानी में फ़ार्मूला ढूँढने की भूख ने एक और फिल्म को बेहतर होने से काफी पहले रोक लिया है. आनंद कुमार को जानने-सराहने के लिए उनके साथ एक घंटे का इंटरव्यू ही ज्यादा माकूल होता. [2/5]