आम जिंदगी की बात करें, तो किसी को भी बात-बात पर हंसी-मज़ाक में ‘पागल’
करार देने और वास्तव में किसी गंभीर मनोरोग से जूझते व्यक्ति को ‘मेंटल’ कह कर संबोधित करने में हम किसी तरह का कोई फ़र्क या अपराध-बोध महसूस भी
नहीं करते. इसका काफी दारोमदार हमारी फिल्मों के सर भी जाना चाहिए. दिमाग़ी रूप से
असंतुलित व्यक्ति को ‘दुनिया तबाह करने पर तुला हुआ’ खलनायक साबित
करने के सिवा हमारी समझ कुछ और देखना या दिखाना ही नहीं चाहती. ‘जजमेंटल है क्या’ इस लकीर से बंध कर नहीं रहती, और अपने दायरे बढ़ाने की हर मुमकिन कोशिश
करती है.
फिल्म की मुख्य किरदार एक्यूट सायकोसिस नाम के मनोरोग से ग्रस्त है, पूरी फिल्म में उसकी
मन:स्थिति सत्य और भ्रम के झूले में हिचकोले खाती रहती है. उसे दिन के उजाले में वो
लोग भी दिखाई और सुनाई देते हैं, जो असल में हैं ही नहीं और सिर्फ और सिर्फ उसके
दिमाग का खलल हैं. 80 और 90 के दशक की दर्जनों फिल्मों में ‘पागलखाना’ खलनायक द्वारा नायक
को रास्ते से हटाने के लिए महज़ एक जरिया बना कर दर्शाया जाता रहा है. सलाखों के
पीछे ऊल-जलूल बकते और अतरंगी हरकतें करते लोगों को देखकर आप बस हंस ही सकते थे, या
फिर इस इंतज़ार में रहते थे कि कब नायक वहाँ से भगे और देश को खलनायक के घातक
इरादों से बचाये.
बॉबी (कंगना रानौत)
सलाखों के पीछे नहीं रहती. वो मुंबई के एक इलाके में आपकी अजीब-ओ-गरीब पड़ोसी हो
सकती है. अकेले रहती है. फिल्मों में डबिंग आर्टिस्ट का काम करती है. पूरी फिल्म
में दवाइयां खाती है, और जब नहीं खाती, उसे कॉकरोच दिखने लगते हैं- मतलब
हालत बिगड़ रही है. बचपन में माँ-बाप के बीच रोज़ाना के झगड़े के दौरान उनकी दुर्घटनावश
मौत की ज़िम्मेदार ठहरा दिए जाने के बाद, अब बॉबी के ज़ेहन में वही किरदार लुका-छिपी
खेलते रहते हैं, जिनको बॉबी परदे पर अपनी आवाज़ दे रही होती है. ऐसे में, एक दिन किरायेदार बन
कर आते हैं केशव (राजकुमार राव) और उसकी पत्नी रीमा (अमायरा दस्तूर). शुरू-शुरू
में तो बॉबी का झुकाव केशव की तरफ होने लगता है, पर बाद में उसे लगने लगता है कि केशव अपनी बीवी को
मारना चाहता है. एक दिन रीमा का क़त्ल हो भी जाता है, लेकिन बॉबी केशव को क़ातिल
साबित नहीं कर पाती, उलटे अपने मनोरोग की वजह से खुद शक के घेरे में आ जाती है.
‘जजमेंटल है क्या’ अपने टीज़र-ट्रेलर और
पोस्टर्स से एक ऐसी थ्रिलर फिल्म होने का अनुमान पैदा करती है, जहां एक क़त्ल के दो
आरोपी हैं और आरोप-प्रत्यारोप में दोनों की अपनी-अपनी दलीलें, जो केस का रुख
बार-बार एक-दूसरे की तरफ मोड़ती रहती हैं. फिल्म में इस तरह का रोमांच बस कुछ पलों
के लिए ही बना रहता है, बाक़ी के वक़्त में फिल्म कंगना के किरदार की अतरंगी
खामियों और कमियों को हास्यास्पद बना कर पेश करने में, या फिर कंगना की मनोदशा को
प्रभावित करते मनगढ़ंत किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है. फिल्म कुल मिलाकर जिन
दो निष्कर्षों पर अपने होने की ज़मीन तय करती है- एक, ‘सीता-हरण रावण की चाल न होकर, सीता की सोची-समझी रणनीति
भी तो हो सकती है’ और दूसरा- मनोरोग से ग्रस्त लोगों को समझने की ज़रूरत; दोनों
फिल्म में उस दम आते हैं, जब तक दर्शक और लेखक-निर्देशक अंत का मुंह ताकते-ताकते
थक चुके हैं.
बॉबी कॉकरोच के एक ख़ास
तस्वीर पर जाकर बैठ जाने को क़त्ल के सबूत के तौर पर पुलिस के सामने पेश कर रही है, और दर्शक उसकी मानसिक
अवस्था पर सहानुभूति दिखाने के बजाय हंस रहे हैं. लेखक-निर्देशक मौन हैं, क्यूंकि सारा ज्ञान
अंत के लिए बचा के रखा है. और अंत भी इतना जाना-पहचाना कि जो बिलकुल मखमल में टाट के
पैबंद की तरह खटकता हो. कनिका ढिल्लों की कहानी और स्क्रीनप्ले में एक महिला मनोरोगी
को मुख्य किरदार बनाने की हिम्मत तो दिखा लेती है, पर जब उस किरदार के साथ दर्शकों का जुड़ाव बनाये रखने
की बारी आती है तो थ्रिलर के नाम हथकंडे आजमाने लगती हैं. हालाँकि संवादों में धारदार
हास्य और तेवर की कमी नहीं होती.
‘जजमेंटल है क्या’ में नयेपन की झलक ख़ूब
है, आखिर तक बांधे रखने वाला रोमांच भी है, गुदगुदाने वाला मनोरंजन भी. मगर फिल्म
जहां दो ऐसे मज़बूत लोगों को, जो एक-दूसरे को अपनी-अपनी मनोस्थितियों से बार-बार
चकमा देते हैं, आमने-सामने खड़ा करके और रोचक बना सकती थी, सिर्फ एक किरदार (बॉबी)
के प्रचलित हाव-भाव और तीखे तेवरों पर अपना पूरा भरोसा झोंक देती है. कंगना ऐसी
भूमिकाओं में आम सी हो गयी हैं, ख़ास कर जबकि असल जिंदगी में भी उनका व्यक्तित्व
कुछ इसी खांचे-ढाँचे का नज़र आता है- बेबाक, मुंहफट, तेज़ तर्रार. हालाँकि बॉबी के किरदार में
वो पूरी तरह फिट हैं, उनसे कोई शिकायत नहीं रहती, फिर भी बार-बार ख्याल
उठता है कि आखिर इस किरदार में राधिका आप्टे क्यूँ नहीं हैं? राजकुमार राव उन
दृश्यों में खासा कमाल हैं, जिनमें वो अपने किरदार का बना-बनाया भ्रम तोड़ते हुए दिखते
हैं.
आखिर में; ‘जजमेंटल है क्या’ श्रीराम राघवन की रंगीन आपराधिक दुनिया में ही पली बढ़ी नज़र आती है. कुछ उसी तरीके
का रोमांच, कुछ उसी मिट्टी के बने
किरदार, पुराने हिंदी फ़िल्मी गानों का इस्तेमाल; लेकिन इन सबके बाद भी फिल्म एक
स्तर के बाद न सिर्फ ऊपर उठने से इनकार कर देती है, बल्कि आखिर तक आते-आते अपनी
बनी-बनायी साख को भी नीचे लुढ़कने से बचा नहीं पाती. एक अच्छी प्रयोगधर्मी फिल्म को
मुख्यधारा में मिलने की कीमत चुकानी पड़ जाती है. फिर भी, फिल्म में बहुत कुछ है, जो नया है. [3/5]