Thursday, 29 December 2016

पार चलो…(Language no Barrier!)

भाषाई सरहद सिनेमा के आड़े कभी नहीं आती. खास कर तब, जब परदे पर परोसी जाने वाली संवेदनायें सतही न होकर, सार्वभौमिक हों. आंसुओं की कोई जात नहीं होती, हंसी का कोई मजहब नहीं होता. याद कीजिये, जब फिल्मों में भाषा का प्रयोग होता ही नहीं था, मनोरंजन के साथ-साथ फिल्म का दर्शकों के साथ ‘कनेक्शन’ तब भी कुछ कम तो नहीं था?

तिथि’ भले ही कर्नाटक के सुदूर में बसे एक गाँव-परिवार की कहानी कहती है, पर किरदार इतने सुगढ़ और सहज हैं कि उनसे जुड़ने में आपको कतई झिझक नहीं होती. ‘चौथी कूट’ में आतंकवाद के साए में दुबका-सहमा ८० के दशक का पंजाब अपना डर आपसे साझा करने से पहले, आपसे पंजाबी होने का सबूत नहीं मांगता. 

विसारनाई’ तो दर्द बांटने में एक कदम और आगे बढ़ जाती है. गरीब-मजदूर वर्ग के कुछ सीधे-सादे किरदारों की नंगी पीठ पर जब पुलिस के फट्टे बेहयाई से पड़ते हैं, दर्द से आप चीख उठते हैं, परदे से आँखें चुराने लगते हैं, मुट्ठियाँ गुस्से में भिंच जाती हैं. सिनेमा का असर और सिनेमा का बूता अगर महसूस करना है, तो साल 2016 की इन क्षेत्रीय भाषा फिल्मों को जरूर देखें...      

#तिथि (कन्नड़)  #चौथी कूट (पंजाबी) #सैराट (मराठी)  #विसारनाई (तमिल) #कम्माटीपादम् (मलयालम)




जिन्दगी की कठोर, निर्मम, धीर-गंभीर सच्चाईयां जो हास्य उत्पन्न करती हैं, उनका कोई सानी नहीं. करीने से सजे-सजाये, चटख रंगों में रंगे-पुते, ठंडे-हवादार कमरों में बैठकर गढ़े गए चुटकुलों की शेल्फ़-लाइफ़ कुछ घंटों, कुछ दिनों से ज्यादा की कतई नहीं होती, पर असल जिन्दगी के दांव-पेंच कुछ अलग ही मिज़ाज के होते हैं. आपकी व्यथा, आपकी पीड़ा, आपका दुःख कब किसी दूसरे के लिए हास्य का सबब बन जाता है, आपको अंदाज़ा भी नहीं रहता. 

कुल मिला के 26 साल के हैं फ़िल्मकार राम रेड्डी, पर अपनी पहली ही कन्नड़ फिल्म ‘तिथि’ में जिस सफाई से ज़िन्दगी को उधेड़-उधेड़ कर आपके सामने फैलाते हैं और फिर उतनी ही बारीकी से उसे किरदारों के इर्द-गिर्द बुनते भी हैं, उसे देखकर अगर आप बड़े हैं तो हैरत और अगर बराबर उम्र के हैं तो जलन होना लाज़मी है.






80 के दशक का पंजाब दहशत और अविश्वास के माहौल में दबी-दबी सांसें ले रहा है. पुलिसिया बूट पर पॉलिश चढ़ रही है. सरकारी वर्दी गेंहू और गन्ने के खेतों में उग्रवादी खोज रही है. दोनाली बंदूकों की बटों ने बेक़सूर पीठों पर अपने नीले निशान छोड़ने सीख लिए हैं. अपने ही कौम के काले चेहरों से रात और भी भयावह लगने लगी है. कौन किसपे ऐतबार करे? कौन अपनी हद में है, और कौन शक की ज़द में? किसे पता. 

गुरविंदर सिंह की पंजाबी फिल्म ‘चौथी कूट’ कहानी कह भर देने की जल्दबाजी नहीं दिखाती, बल्कि कहानी जीने का आपको पूरा-पूरा वक़्त और मौका देती है. आतंक यहाँ सुनसान गलियों के सन्नाटे में पलता है, डरे हुए चेहरों पे चढ़ता है और धीरे, बहुत धीरे, सहमे-सहमे क़दमों से आप तक पहुँचता है. ये एक अलग भाषा है. सिनेमा में एक अलग तरीके की भाषा, जो ठहराव से हलचल पैदा करना चाहती है, और इस बेजोड़ कोशिश में बखूबी कामयाब भी होती है.





The system sharks are after the most vulnerable fishes in the water. A fake confession will work well for both the parties but getting one from the innocents needs lot of muscle wrestling exercises. Police brutality in India is probably the most accepted illegal practice today in our system, by our system and for our system. The powerful have been using it for ages to force their control over the powerless but the torture, pain and brutality Vetri Maaran’s Tamil Film VISARANAI (INTERROGATION) shows is excruciatingly sickening, shocking and real. 

There are moments absolutely existent where I couldn’t trust my intelligence as it is being acted or is a documentation of some actual events captured. 





सैराट’ जहां एक तरफ नौजवान दिलों की धड़कन का मधुर संगीत है, इश्किया सपनों का खुला आसमान है, वहीँ सामाजिक कुरीतियों और जातिगत संघर्ष का घिनौना मैदान भी है. मंजुले की खासियत ये है कि वे उन्ही जगहों से आते हैं, जहां की वो बात करते हैं. ऐसे में, फिल्म के किरदारों और उनके बीच बनते-पनपते पलों से जुड़ाव महसूस करना आपके लिए कतई आसान हो जाता है. 

बचपन की दोस्ती, दोस्तों का प्यार और पहले-पहले इश्क का बुखार स्लो-मोशन शॉट्स में बहुत मजेदार लगने वाला है, पर सिनेमा सिर्फ इतना ही तो नहीं. मंजुले का सिनेमा सिर्फ इतना ही नहीं. सैराट’ के साथ मंजुले जिस तरह आपको चौंकाते हैं, आप दहल जाते हैं. आपके अन्दर एक ऐसा भूचाल आ जाता है, जिसकी थिरकन फिल्म देखने के बहुत बाद तक वैसी ही तरोताज़ा रहती है.








Rajiv Ravi has dismantled all conventional concepts of Malayali aesthetics by capturing the unadulterated beauty of black skin through characters like ‘Ganga’, ‘Balettan’ and others who portrayed the lives of Dalits. The director has continued to use his anarchic concepts of visualisation, which include shaky shots, blurred frames and sometimes abrupt sequences. 

The realistic and daring approach of Rajiv Ravi deserves standing ovation at times when the paper tigers in this industry still fear to come up with something different from the old mould.  
(Goutham VS, The Indian Express)

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