‘बिद्या’ लौट आई है.
‘बागची’ नहीं, इस बार ‘सिन्हा’ बन कर. बाकी का सारा सेट-अप तकरीबन
वैसा ही है. हाँ, दर्शक के तौर पर आप और हम कुछ ज्यादा ही सजग और सचेत हो गए हैं.
‘कहानी’ में मिस बागची की छलावे वाली कहानी से पहले ही ठगे जा चुके हैं, तो
इस बार खुद को तैयार रखे बैठे हैं कि कुछ न कुछ तो होगा ही. परदे पर जो कुछ बड़ी
आसानी से शरबत कहकर पिलाया जा रहा है, ज़रूर उसमें कोई कड़वी दवाई मिलाई गयी होगी. चौकाने
से पहले चौकन्ना कर देना; सुजॉय घोष की ‘कहानी 2: दुर्गा रानी
सिंह’ कम से कम इस मामले में तो पूरे नंबर हासिल कर ही लेती है. पर कहानी यहाँ
ख़त्म नहीं होती, लेखक-निर्देशक घोष बाबू के लिए चुनौती अब और कड़ी हो चली है. ठगे
जाने के लिए जो पहले से ही तैयार बैठे हैं, उन्हें एक जबरदस्त झटका देने का दो ही
तरीका हो सकता था, पहले वाले से अबकी बार कुछ बहुत बड़ा किया जाये या फिर कुछ भी न
किया जाये! अफ़सोस, सुजॉय घोष सबसे आसान तरीके के साथ समझौता करना मंज़ूर कर
लेते हैं. हालांकि, इसे समझते-समझते आपका काफी वक़्त गुज़र जाता है.
रात का सन्नाटा खाली सड़कों
से होता हुआ सोती संकरी गलियों तक फैला है. रेडियो पर गाना चल रहा है. पीले बल्बों
की रौशनी पुराने मकानों को और पुराना बना रही है, और रहस्यमयी भी. ये कोलकाता नहीं
है, पर ये भी बंगाल ही है. बिद्या सिन्हा (विद्या बालन) अपनी 14 साल की
बेटी मिनी (तुनिषा शर्मा) को इलाज़ के लिए अमेरिका ले जाना चाहती है.
मिनी व्हीलचेयर पर है और चल नहीं सकती. रोजाना की ही तरह, एक शाम जब बिद्या ऑफिस
से घर लौटती है, मिनी को किसी ने अगवा कर लिया है. मिनी को बचाने के लिए बिद्या को
कोलकाता जाना होगा, पर उससे पहले ही उसका एक्सीडेंट हो जाता है और अब वो कोमा में
है. तफ्सीस में इंस्पेक्टर इन्द्रजीत सिंह (अर्जुन रामपाल) के
हाथ एक डायरी लगती है. फिल्म अब फ्लैशबैक में है और डायरी के जरिये आपको कहानी
सुना रही हैं, दुर्गा रानी सिंह (विद्या बालन), जो खुद हत्या और
किडनैपिंग की आरोपी है.
‘कहानी’ और ‘कहानी
2’ के बीच इसी साल सुजॉय घोष की ‘तीन’ भी आ चुकी है. हास्यास्पद
है कि अपने क्राइम-थ्रिलर होने की फितरत और कोलकाता में बसे होने आदत दोनों की वजह
से, कोरियाई फिल्म का रीमेक होने के बावजूद, ‘तीन’ पूरी तरह ‘कहानी’
श्रृंखला की ही फिल्म लगी थी. जबकि ‘कहानी 2’ अपने डार्क सब्जेक्ट (बाल
यौन शोषण) और कहानी में कुछेक बहुत ठेठ घुमावदार मोड़ों की वजह से एक कोरियाई
फिल्म ज्यादा लगती है. फिल्म का पहला हिस्सा जिस तरह परत-दर-परत आपको दुर्गा रानी
सिंह की पिछली ज़िन्दगी और 6 साल की मिनी के यौन-शोषण से जुड़े राज़ का खुलासा करती
है, वो न ही बहुत गूढ़ रहस्य लगते हैं और न ही किसी दूसरे बड़े राज़ के छुपे होने का
अंदेशा कराते हैं. हाँ, फिल्म में जिस संजीदगी और सफाई से बाल यौन शोषण की बात की
गयी है, वो बेहद जरूरी और काबिल-ऐ-तारीफ़ है. 6 साल की मिनी को उसके ‘चाचू’ (जुगल
हंसराज) ही इधर-उधर छूते हैं, पर किसी बड़े से वो ये बात करने में कैसे सहज
हो? वो भी जब दुर्गा उसके स्कूल में काम करने वाली एक औरत हो, कोई अपनी सगी नहीं.
सुजॉय घोष पूरी कोशिश करते हैं कि
‘कहानी 2’ आपको ‘कहानी’ जैसी ही लगे, इसीलिए यहाँ भी एक
नौजवान पुलिसवाला है, बॉब बिस्वास की तर्ज़ पर एक मजेदार सुपारी-किलर (इस बार एक
लड़की) है, विद्या बालन हैं, और कहने को ही सही, पर एक ऐसा क्लाइमेक्स
है जो फिल्म के बारे में आपकी अब तक की समझ को झुठला दे. हालाँकि, ये अंत वो आसान अंत
है, जो आप चाहते तो काफी पहले से देख पाते, पर आप इतना आसान कुछ देखना ही नहीं
चाहते थे. ‘कहानी’ का अंत आप चाह कर भी नहीं देख पाते. विद्या अपने ‘डी-ग्लैम’
अवतार को बखूबी अपने अभिनय का सबसे मज़बूत पक्ष बना लेती हैं. अरुण (तोता रॉय
चौधरी) के साथ उनके दृश्य उनके अभिनय की एकरसता को तोड़ने में कामयाब दिखते
हैं. अर्जुन रामपाल से कोई ख़ास शिकायत नहीं होती, हालांकि ‘कहानी’
के परम्ब्रता चटर्जी जैसे चेहरे अर्जुन की जगह ज्यादा सटीक कास्टिंग होते. जुगल
हंसराज ने काफी दिनों बाद निराश किया.
आखिर में; ‘कहानी 2’ एक
अच्छी फिल्म हो सकती थी, और कई मायनों में है भी...जहां तक इसके विषय-वस्तु (चाइल्ड
एब्यूज) की संजीदगी और अहमियत का सवाल है, पर इसे ‘कहानी’ जैसा जामा पहना
कर क्राइम-सस्पेंस थ्रिलर के तौर पर पेश करने की कोशिश और कवायद एक अलग तरह की उम्मीद
जगा देते हैं, जिसे छू पाना इस फिल्म के लिए बेहद मुश्किल हो जाता है. देखिये, पर तैयार
रहिये...‘नहीं’ चौंकने के लिए! [2/5]
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