Tuesday 27 December 2016

देखन में छोटन लगें...! (Small in Size, Big on Content)

साल 2016 जाने को है. वक़्त है, एक बार फिर मुड़ कर देखने का. हर शुक्रवार भाग-भाग कर फिल्में देखना और उनके बारे में लिखने का सारा जोश-ओ-खरोश एक बार फिर समेट कर कागज़ पर उड़ेलना है. साल की बेहतरीन फिल्मों को एक और बार इज्ज़त बक्शने की बारी आ गयी है...पहल करता हूँ उन 10 फिल्मों से, जो देखने में ज़रूर छोटी लगी होंगीं, कभी नए कलाकारों की वजह से तो कभी ख़बरों और अख़बारों में कम सुर्खियाँ बटोर पाने की वजह से, पर इन सभी ने अपनी-अपनी अलग-अलग खूबियों से सिनेमाहाल तक जाने का मेरा फैसला ग़लत साबित नहीं होने दिया. बहुत बहुत शुक्रिया...


#ज़ुबान #जुगनी #साला खड़ूस #अमरीका #बुधिया सिंह- बोर्न टू रन #लाल रंग #वेटिंग #धनक #पार्च्ड #चौरंगा





पहली बार निर्देशन की बागडोर सँभालते मोज़ेज सिंह की ‘ज़ुबान’ एक ऐसे नौजवान की कहानी है, जो अपने सपनों के लिए किसी भी हद तक जा सकता है पर, एक दिन जब उसके चाहतों की दुनिया उसके क़दमों में बिछी दिखाई देती है, उसे एहसास होता है इस पूरे सफ़र में उसने अपनी पहचान ही खो दी है, अपनी जुबान ही खो दी है.

ज़ुबान’ में सब कुछ अच्छा हैऐसा नहीं है. कहानी की पकड़ अक्सर आप पर बनती-छूटती रहती है. फिल्म की रफ़्तार भी कुछ इस तरह की है कि आप इसे एक ‘स्लो’ फिल्म कहने से गुरेज नहीं करतेपर इन सबके बावजूद ‘ज़ुबान’ एक आम फिल्म नहीं हैएक आसान फिल्म नहीं है. 








A simple, unpretentious and wide-eyed country boy is trying to be apologetic to the girl he’s been with all night under the same sheet. Local liquor brand can be held responsible but the girl is taken aback, “Sorry? What for?” “For everything”, the boy is in deep guilt. “Not for everything. Say sorry only for why you left me alone there.” The girl is definitely more independent, free and open, and emotionally less complicated. So is Shefali Bhushan’s JUGNI. It likes to have its own sense of rhythm with melodies that induce extreme likeness and energy in you to match up with the beats life throws at you.






SAALA KHADOOS charms you with the uninhibited, wild and fresh performance by Ritika Singh, a professional boxer before making her first attempt at acting. Her free-spirited, loud-mouthed and all moody role-play is efficiently delightful. 


Madhavan gives SAALA KHADOOS everything it demands from him. He looks every bit of a full-grown ex-boxer with all the attitude, arrogance and aggression in him, hitting the right cord. One of his highly approving works!









प्रशांत नायर की ‘अमरीका’ उत्तर भारतीय गाँवों की आकांक्षाओंआशाओं और अपेक्षाओं पर भावनात्मक चोट है. कहानी वर्तमान की नहीं है पर वर्तमान से परे भी नहीं है. बड़ा बेटा [प्रतीक बब्बर] अमेरिका चला गया है. माँ को लगता है सारा सुखसारा भविष्य अमेरिका में ही है. चिट्ठियों से ही पूरे गाँव को बेटे और अमेरिका के बारे में नई-नई बातों का पता चलता है. घटनाएं तब एक तगड़ा मोड़ लेती हैं जब पिता की मृत्यु के बाद छोटे बेटे [‘लाइफ ऑफ़ पाई’ के सूरज शर्मा] को छुपी हुई सच्चाइयों का पता चलता है. साथ ही कुछ सवालजिनके जवाब सिर्फ अमेरिका जा कर पता चल सकते हैं. 

‘अमरीका’ एक बहुत ही करीने से बनाई गयी फिल्म हैजहां कुछ भीऔर मैं बहुत सोच समझ के कह रहा हूँकुछ भी बेतरतीब या बेढंगा नहीं है.





इस फिल्म में ‘आगे क्या होगा’ वाला रोमांच कम है, मैच के आख़िरी पलों में गोल दाग कर या छक्का मार कर टीम जिताने वाला हीरो भी कोई नहीं है, और ना ही फिल्म की सफलता के लिए ‘देशभक्ति’ का बनावटी छौंका लगाकर आपके अन्दर के ‘भारतीय’ को जबरदस्ती का झकझोरने की कोशिश. 

बुधिया सिंह- बॉर्न टू रन’ फार्मूले से अलग एक ऐसी ‘स्पोर्ट्स’ फिल्म है, जो सिर्फ सतही तौर पर खेल से जुड़े रोमांच को भुनाने की कोशिश नहीं करती, बल्कि उसके पीछे की मेहनत-मशक्कत, लगन और मुश्किलातों को सच्चे मायनों में आपके सामने उसकी असली ही शकल-ओ-सूरत में पेश करती है.









LAAL RANG is a good thriller that may not pump your heartbeat up in the usual way most of bollywood thrillers do. It also might not give you much of a pulsating action to cheer, and it definitely would not pitch obligatory twists & turns in the plot but even then, the firm writing has enough to make it an enjoyably unlike experience. 

Syed Ahmad Afzal makes sure it takes its own course of time to grow on the viewers. He never looks in hurry when establishing scenes or while making the shift from one to another.



अनु मेनन की ‘वेटिंग’ ज़िन्दगी और मौत के बीच के खालीपन से जूझते दो ऐसे अनजान लोगों के इर्द-गिर्द घूमती है जिनमें कहने-सुनने-देखने में कुछ भी एक जैसा नहीं है, पर एक पीड़ा, एक व्यथा, एक दुविधा है जो दोनों को एक दूसरे से बांधे रखती है. 

प्रोफ़ेसर शिव धीर-गंभीर और शांत हैं, जबकि तारा अपनी झुंझलाहट-अपना गुस्सा दिखाने में कोई शर्म-लिहाज़ नहीं रखती. तारा को मलाल है कि ट्विटर पर उसके पांच हज़ार फ़ॉलोवर्स में से आज उसके पास-उसके साथ कोई भी नहीं, जबकि प्रोफ़ेसर को अंदाज़ा ही नहीं ट्विटर क्या बला है? इसके बावज़ूद, अपने अपनों को खो देने का डर कहिये या फिर वापस पा लेने की उम्मीद, दोनों एक-दूसरे से न सिर्फ जुड़े रहते हैं, अपना असर भी एक-दूसरे पर छोड़ने लगे हैं.







एक सच की दुनिया है जो हमारे आस-पास चारों तरफ पसरी है, और एक दुनिया है जैसी हम अपने लिये तलाशते हैं, जिसके होने में हम यकीन करना चाहते हैं. अपने देश के साथ भी ऐसा ही कुछ कनेक्शन है हमारा. एक, जैसी हम देखना चाहते हैं, मानना चाहते हैं और दूसरा जो वाकई में है. 

नागेश कुकूनूर की ‘धनक’ हमारी परिकल्पना और सच्चाई की इन्हीं दो दुनियाओं के बीचोंबीच कहीं बसी है. अगर आप अच्छे हैं, दिल के सच्चे हैं तो आपके साथ बुरा कैसे हो सकता है? परीकथाओं में अक्सर इस तरह के मनोबल बढ़ाने और नेकी की राह पर चलते रहने के लिए हिम्मत बंधाने वाली उक्तियाँ आपने भी पढ़ी या सुनी होंगी. ‘धनक’ किसी एक प्यारी और मजेदार परी-कथा जैसी ही है, जिसमें बहुत सारे अच्छे लोग हैं और जो बुरे भी हैं वो सदियों पुराने, जाने-पहचाने जैसे हमेशा कोसते रहने वाली ‘डायन’ चाची और बच्चे उठाने वाला दुष्ट गिरोह.





हाव-भाव और ताव में लीना यादव की ‘पार्च्ड’ पिछले साल रिलीज़ हुई पैन नलिन की ‘एंग्री इंडियन गॉडेसेज’ से बहुत कुछ मिलती-जुलती है, और अपने रंग-रूप में केतन मेहता की ‘मिर्च मसाला’ जैसी तमाम भारतीय सिनेमा के मील के पत्थरों से भी. जाहिर है, इस तरह का ‘पहले बहुत कुछ देख लेने’ की ऐंठ आप में भी उठेगी, पर जिस तरह की बेबाकी, दिलेरी और दबंगई ‘पार्च्ड’ दिखाने की हिमाकत करती है, वो कुछ अलग ही है. 

यहाँ ‘आय ऍम व्हाट आय ऍमका जुमला बेडरूम के झगड़ों और कॉफ़ी-टेबल पर होने वाली अनबन में सिर्फ जीत भर जाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता. ‘पार्च्ड’ अपने किरदारों को उनके तय मुकाम तक छोड़ आने तक की पूरी लड़ाई का हिस्सा बन कर एक ऐसा सफ़रनामा पेश करती है, जो हमारी ‘घर-ऑफिस, ऑफिस-घर’ की रट्टामार जिन्दगी से अलग तो है, पर बहुत दूर और अनछुई नहीं.






जातिगत विसंगतियों के दुष्प्रभाव, छूत-अछूत के लाग-लपेट और धर्म के नाम पर विकलांग मानसिकता का परिचय देते भारतीय समाज को हमने पहले भी श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलाणी के सिनेमा में तार-तार होते देखा है. ‘चौरंगा’ भी काफी हद तक इसी दायरे में फैलती-सिमटती दिखाई देती है, इसीलिए एक मूल प्रश्न बार-बार दिमाग में कौंधता रहता है. ‘क्या कुछ भी नहीं बदला है?’ 

उत्तर फिल्म ख़तम होने के तुरंत बाद कुछ सरकारी तथ्यों के परदे पर उभरने के साथ ही मिलने शुरू हो जाते हैं. सच में, कुछ भी नहीं बदला है. और अगर नहीं बदला है तो सिर्फ सिनेमा में बदलाव दिखा देने भर से क्या सचमुच बदलाव आ जायेगा? ‘चौरंगा’ की पृष्ठभूमि, ‘चौरंगा’ के कथानक और ‘चौरंगा’ के पात्रों से पुराने होने की गंध भले ही आती हो, पर ‘चौरंगा’ के प्रासंगिकता की चमक पर कहीं कोई धूल जमी दिखाई नहीं देती. ‘चौरंगा’ एक सार्थक कोशिश है भारतीय समाज के उस एक वर्ग को टटोलने में, जिसे हम शहरी चकाचौंध के लिए कहीं अँधेरे में छोड़ आये हैं.  


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