ढर्रे को तोड़ना, उस जमीन
पर रास्ते तलाशना जहाँ पहले कभी इंसानी पाँव पड़े ही नहीं, अपने ही बनाये मानकों को
लांघ कर आगे निकल जाना; बॉलीवुड के लिए कभी आसान नहीं रहा. फिर भी इस पूरे साल, कईयों
ने हिम्मत दिखाई और अपनी मौजूदगी का बाकायदा एहसास कराते रहे. ‘पिंक’ अगर औरतों
के प्रति मर्दों की सदियों पुरानी सड़ांध भरी मानसिकता को कड़े शब्दों में ‘ना’ कहने,
और ‘ना’ का मतलब ‘ना’ ही होने की जोरदार पहल करती है, तो ‘अलीगढ़’
समलैंगिकता के जुड़े ज़ज्बातों को ‘ओछी नैतिकता’ के दुनियावी दलदल से निकाल
कर हमारे दिलों और घरों में बाइज्ज़त कायम करने की सफल कोशिश करती है.
हिंदी सिनेमा की भाषा
बदल रही है, और इस बात की मिसाल ‘कपूर एंड संस’ से बढ़िया और क्या हो सकती
है? पारिवारिक अंतर्कलह हमेशा से हिंदी सिनेमा के रंगीन परदे को लुभाता रहा है. दर्शकों
की आँखों में नमी लाकर बॉक्सऑफिस पर पैसे बटोरने का फ़न पुराना और बासी हो चला है,
और इस बात की भनक तब लगती है, जब हम ‘कपूर एंड संस’ से मिलना तय करते हैं.
यहाँ सब कुछ वैसा ही बेतरतीब है, जैसे अपने घरों में होता है. यहाँ सब जैसे टूटे
हुए बैठे हैं या टूट कर बिखरने की कगार पर हैं. मलाल, गुस्सा, शिकवे-शिकायतें और कुढ़न,
सबके अन्दर जैसे एक ज्वालामुखी सो रहा है, जब उठेगा, फटेगा तो जाने क्या होगा?
यहाँ आने में आपको थोड़ी झिझक जरूर होगी, पर एक बार आ गए तो जाने में भी उतनी ही मुश्किल.
साल 2016 के इन 10
बेमिसाल फिल्मों में कहीं न कहीं आपको पुराना बॉलीवुड नये चोले पहनता हुआ दिखाई
देगा. हौसला-अफजाई तो बनती है...शुक्रिया!
#एयरलिफ्ट #डियर जिंदगी #निल
बट्टे सन्नाटा #नीरजा #अलीगढ़
#रमन राघव 2.0 #कपूर एंड संस #उड़ता पंजाब #दंगल #पिंक
AIRLIFT
is a nice, well-intended break from loud and fake jingoism in Hindi cinema. The
patriotism portrayed here is never too pushy, preached or purposefully painted.
No matter how millionth of times you have seen a tricolour being hoisted up
from soil to sky, you’re tend to feel the ‘get-up-and-go’ force within you but
Raja Menon gives it all a reason, more unadulterated and uncontaminated.
The merit also lies in
casting Akshay Kumar who deliberately decides to underplay his unapologetically
self-interested image for a while and gives us a character that’s more human
than just feeding off someone’s unchallenged starry ego. He’s not new to the
flavor though. BABY and SPECIAL 26 have done quite well for him in the past.
AIRLIFT is a greater addition to the list.
‘डियर ज़िन्दगी’ अपने छोटे-छोटे, हलके-फुल्के पलों में बड़े-बड़े
फलसफों वाली बातें कहने का जोखिम बखूबी और बेख़ौफ़ उठाती है. डॉक्टर खान जब भी
रिश्तों को लेकर ज़िन्दगी का एक नया पहलू काईरा को समझा रहे होते हैं, उनकी इस भूमिका में शाहरुख़ जैसे बड़े कलाकार का होना अपनी अहमियत साफ़ जता
जाता है. ये चेहरा जाना-पहचाना है. बीसियों साल से परदे पर प्यार, दोस्ती और ज़िन्दगी की बातें करता
आ रहा है, पर इस बार उसकी बातों की दलील पहले से कहीं
ज्यादा गहरी है, मजबूत है, कारगर है.
आलिया जिस तरह भरभरा कर टूटती हैं परदे पर, हिंदी सिनेमा में अपने साथ के
तमाम कलाकारों को धकियाते हुए एकदम आगे निकल जाती हैं. फिल्म की खासियतों में से
एक ये भी है कि शाहरुख़ जैसा दमदार स्टार होते हुए भी कैमरा और कहानी दोनों आलिया के किरदार से कभी दूर हटते दिखाई नहीं देते.
सपनों के कोई दायरे नहीं हुआ करते. छोटी आँखों
में भी बड़े सपने पलते देखे हैं हमने. फेसबुक की दीवारों और अखबारों की परतों के
बीच आपको दिल छू लेने वाली ऐसी कई कहानियाँ मिल जायेंगी, जिनमें
सपनों की उड़ान ने उम्मीदों का आसमान छोटा कर दिया हो. हालिया मिसालों में वाराणसी
के आईएएस (IAS) ऑफिसर गोविन्द जायसवाल का हवाला दिया सकता है, जिनके पिता
कभी रिक्शा चलाते थे.
अश्विनी अय्यर तिवारी की मार्मिक, मजेदार और
प्रशंसनीय फिल्म ‘निल बट्टे सन्नाटा’ भी ऐसी ही एक मर्मस्पर्शी कहानी के जरिये
आपको जिंदगी के उस हिस्से में ले जाती है, जहां गरीबी
सपनों की अमीरी पर हावी होने की कोशिश तो भरपूर करती है पर अंत में जीत हौसलों से
लथपथ सपने की ही होती है.
Real-life heroes are way better than the ones
we see, create or admire on big screen. They might not look perfectly decked-up
all the time, make a grand entry and an even greater exit from the frame in the
most overrated slow-motion shots. They might not be so exceptionally skilled to
kill every bad man in their way; on the other hand, they might get killed at
the end.
And trust me if they do so, it’s never pre-designed to sympathetically
benefit their own image amongst their fans. Real-life heroes also necessarily
don’t have to be always a ‘Hero’ to inspire; they can also come in as a bold,
fearless, strong-headed and proud 23-year old girl from the next door! Ram
Madhvani’s inspirational biopic NEERJA successfully brings us closer to one
such hero, most of us wouldn’t have known of if the efforts were not made.
दो-चार-दस गिनती की फिल्में को छोड़ दें तो हिंदी
फिल्म इंडस्ट्री ने समलैंगिकों और समलैंगिकता को जिस बेरुखी, जिस छिछले
तरीके से परदे पर अपने मतलब (...और भौंडे मनोरंजन) के लिए इस्तेमाल किया है, उसे साफ़ और
पाक करने के लिए कोई एक फिल्म काफी साबित नहीं हो सकती, ये एक
शर्मनाक सच है...पर इसी के साथ एक सच और भी है, कोशिशों ने
हौसलों का दामन अभी छोड़ा नहीं है.
हंसल मेहता की बेहद सुलझी हुई, संजीदगी और
सादगी से भरी हुई ईमानदार फिल्म ‘अलीगढ़’ ऐसी ही एक बेहतरीन कोशिश है, जो
समलैंगिकता को सनसनीखेज बनाकर परोसने की बेहयाई नहीं करती बल्कि उसे ‘निजता के
अधिकार’ के साथ मिलाकर एक ऐसा मुहीम छेड़ देती है जिससे बचना-मुंह मोड़ना और अनदेखा
कर देना किसी भी संवेदनशील आदमी के लिए आसान नहीं रह जाता!
अपनी नई फिल्म ‘रमन राघव 2.0’ को अनुराग उनकी सबसे ख़तरनाक लव-स्टोरी का दर्जा देते हैं.अनुराग कश्यप
और लव-स्टोरी?? इसका सटीक जवाब तो आपको फिल्म के आख़िरी पलों में ही
मिलता है, पर अच्छी बात ये है कि ‘बॉम्बे वेलवेट’ की नाकामयाबी ने उन्हें
वापस उनके अपने जाने-पहचाने दायरे में ला खड़ा किया है. हालांकि भारतीय सिनेमा में
ये दायरा भी उन्हीं की बदौलत इस मुकाम तक पहुंचा है. यहाँ उनका कोई दूसरा सानी
नहीं. इस बार भी उनसे कहीं कोई चूक नहीं होती.
‘रमन राघव 2.0’ अब तक की उनकी सबसे
‘डार्क’ फिल्म बिना किसी झिझक कही जा सकती है. रक्त का रस और गाढ़ा हो चला है. खौफ़
का चेहरा पल-पल मुखौटे बदल रहा है. अँधेरे का साम्राज्य और गहराने लगा है.
It seems Bollywood has learnt its way to deal
Indian families in films the way it should be. Chaotic, dramatic, relatable and
real! With Shakun Batra’s KAPOOR & SONS (SINCE 1921), even Dharma Productions have come a long way. Forget Karan Johar’s all
elite, genteel and heavenly prosperous families melting & merging patently
into the equally overwhelming interiors inspired by latest interior design
magazines! The characters here, in Shakun’s world, don’t really chew their words before
spitting them out. On the contrary, they are loose out in the open to grind
each other’s peace unabashedly.
Backed up by good writing and even better
direction skills, KAPOOR & SONS (SINCE 1921) marks the arrival of a totally
fascinating and utterly dysfunctional ‘on-screen’ family you would love to see
more of it.
गुलज़ार साब की ‘माचिस’ जैसी कुछेक को अलग रख कर देखें तो पंजाब को हिंदी फिल्मों ने हमेशा मीठी
चाशनी में ही लपेट कर परोसा है. दिन में बैसाखी के मेले और रात में लोहड़ी का जश्न, इससे आगे
बढ़ने की हिम्मत पंजाबी सिनेमा ने तो कभी-कभी दिखाई भी है पर बॉलीवुड कमोबेश बचता
ही रहा है. अब तक. ‘उड़ता पंजाब’ के आने तक.
पंजाब की जो सपनीली तस्वीर आपने ‘यशराज फिल्म्स’ के चश्मे से
देखी थी, अभिषेक
चौबे की ‘उड़ता पंजाब’ पहले फ्रेम से ही उस तस्वीर पे चिपके ‘एनआरआई कम्पेटिबल’ चमक को खरोंचने
में लग जाती है. सीने पर आतंकवाद का बोझ और पीठ पर ’84 के ज़ख्म
उठाये पंजाब को अब हेरोइन, स्मैक और कोकीन की परतों ने ढक लिया है. खुरदुरी, किरकिराती, पपड़ी जमी
परतों ने!
अपने अधूरे सपनों का बोझ अपने
बच्चों के नरम-नाज़ुक कन्धों पे डाल देना; हमारे माँ-बाप के लिए कोई नया नहीं है, और ज्यादातर मामलों और मायनों में
वाज़िब भी नहीं. सख्ती कब ज्यादती बन जाती है, कोई नहीं बता सकता. धागे भर का ही फर्क है दोनों
में. लकीर के इस पार का पिता अक्सर उस पार खड़ा ‘हानिकारक खलनायक’ दिखने लगता है, पर तभी तक, जब तक बच्चों को अपने पिता के
सपनों में अपना भविष्य देख पाने की नज़र और समझ पैदा नहीं हो जाती.
नितेश तिवारी की ‘दंगल’ बड़ी समझदारी से इस टकराव का सामना करती है और इस
पेशोपेश से जुड़े हर ज़ज्बात को परदे पर पूरी ईमानदारी से पेश करती है. एक ऐसी फिल्म
जो खुद को ही सवालों के घेरे में खड़ा करने से न डरती है, न ही पीछे हटती है. इससे पहले कि
आप के ज़ेहन में कुलबुलाहट हो, कोई न कोई किरदार आपके सवालों को अपने अल्फाज़ दे
देता है.
हमारे यहाँ लड़कियों को
‘करैक्टर-सर्टिफिकेट’ देने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता. सब अपनी-अपनी सोच के साथ
राय बना लेने में माहिर हैं, और वक़्त पड़ने पर अपने फायदे के लिए उनका इस्तेमाल
करने से भी चूकते नहीं. मर्दों की यौन-कुंठा इस कदर प्रबल हो चली है कि उन्हें
लड़कियों/औरतों के छोटे-छोटे हाव-भाव भी ‘सेक्सुअल हिंट’ की तरह नज़र आने लगते हैं.
ब्रा-स्ट्रैप दिख जाना, बात करते-करते हाथ लगा देना, कमर का टैटू और पेट पे
‘पिएर्सिंग’; कुछ भी और सब कुछ बस एक ‘हिंट’ है. ‘ना’ का यहाँ
कोई मतलब नहीं है.
‘पिंक’ बड़ी बेबाकी से और पूरी ईमानदारी
से महिलाओं के प्रति मर्दों के इस घिनौने रवैये को कटघरे में खड़ी करती है. हालांकि
फिल्म की कहानी दिल्ली और दिल्ली के आस-पास ही डरी-सहमी घूमती रहती है, पर ये सिर्फ देश के उसी एक ख़ास
हिस्से की कहानी भी नहीं है. इस फिल्म की खासियत ही शायद यही है कि इसकी हद और ज़द
में सब बेरोक-टोक चले आते हैं.
behad umda vishleshan Gaurav Bhai .. sateek bhaav aur shabd .. aap likhte rahiye taki hum sab ko achha padhne ko milta rahe .. apne vichaaro ko saajha karne k liye dhanyawad .
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