Friday 28 July 2017

इंदू सरकार: पॉलिटिकल थ्रिलर के नाम पर नौटंकी! [2/5]

मधुर भंडारकर की फिल्मों को ठीक-ठीक पढ़ने का दावा अगर आप कर पाते हों, तो आपके लिए समझना तनिक मुश्किल नहीं होगा कि 'इंदू सरकार' एक जान-बूझ कर रची गयी नौटंकी भर से ज्यादा कुछ नहीं है. पूर्व प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी और उनके अक्खड़ और बदतमीज़ मिज़ाज सुपुत्र संजय गांधी के तानाशाही आपातकाल को पृष्ठभूमि बनाकर भंडारकर एक ऐसी ढीली-ढाली कहानी रचते हैं, जो नीरस तो है ही, ज्यादातर मौकों पर नुक्कड़ नाटक देखने जैसा महसूस कराती है. फ़िल्म के शीर्षक से ही भंडारकर की नीयत साफ़ हो जाती है. 'इंदू सरकार' आपको सुनने में जरूर 'इंदिरा सरकार' की तरफ धकेलती हो, पर है वास्तव में एक ऐसी लड़की की कहानी, जिसका नाम इंदू सरकार के बजाय मंजू, सीता, गीता कुछ भी हो सकता था. उस पर से ठिठोली ये कि इंदू का असली संघर्ष, उसकी ज़िंदगी का असली सफ़र शुरू ही तब होता है, जब वो अपने नाम से 'सरकार' हटाने का फैसला कर लेती है. हालाँकि 'इंदू सरकार' कम से कम भंडारकर साब की उन छिछली फिल्मों जैसी कतई नहीं है, जिनमें वो समाज के अलग-अलग वर्गों को 'अन्दर से' जान लेने का कोरा झूठ परोसते हैं. 

इंदू (कीर्ति कुलहारी) कवितायें लिखना चाहती है. बोलने में हकलाहट की वजह से भी कविताओं में ही उसे अपनी आवाज़ साफ़ सुनाई देती है. पति (तोता रॉय चौधरी) सरकारी अफसर है और इमरजेंसी के दौर में अपनी पोजीशन और ऊंची पहुँच के बेज़ा इस्तेमाल से हर मुमकिन तरक्की पाने के लिए कुछ भी कर सकता है. इंदू एक अच्छी बीवी बनकर खुश है, पर तभी उसे झुग्गी-झोपड़ी खाली कराने के लिए की गयी पुलिस की ज्यादती में, अपने परिवार से बिछड़े दो बच्चे मिलते हैं. इंदू को जैसे-जैसे इमरजेंसी की त्रासदी का अंदाजा होता जाता है, उसकी जिंदगी को मकसद भी मिलने शुरू हो जाते हैं. और फिर शुरू होती है सिस्टम और सरकार के खिलाफ इंदू सरकार की बग़ावत! 

एक आम, अनाथ लड़की इंदू की कहानी कहते वक़्त जहां भंडारकर जरूरत से ज्यादा नाटकीय हो जाते हैं, वहीँ इमरजेंसी के खलनायकों को परदे पर पेश करते वक़्त उनकी सारी ललक, उनका सारा रोमांच इतना दकियानूसी हो जाता है कि हंसी आने लगती है. देखने-लगने में नील नितिन मुकेश को संजय गांधी के एकदम आसपास तक ला कर खड़े कर देने की बात हो, या उनके चापलूसों की लिस्ट में जगदीश टाइटलर जैसे दिखने वालों को भांड की तरह हर फ्रेम में खड़े दिखा देना; भण्डारकर इससे ज्यादा कुछ सोच नहीं पाते, इस से ज्यादा कुछ (इतिहास के पन्नों से) खोज नहीं पाते. हाँ, कव्वाली और 'स्पेशल 26' के बैकग्राउंड म्यूजिक पर नकली रोमांच पैदा करने की पूरी कोशिश करते हैं.   

फिल्म में इमरजेंसी के मुश्किल हालातों को बयाँ करने के लिए जिस तरह के संवादों और प्रसंगों का सहारा लिया जाता है, आज के हालातों पर एकदम सटीक बैठते हैं. किशोर कुमार को ऑल इंडिया रेडियो से बैन करने पर एक नाई फट पड़ता है, "अब हम क्या सुनें, क्या नहीं, वो भी सरकार तय करेगी?" कुछ याद आया? 'ब' से बीफ?? इसी तरह, एक मंत्री बड़े ऊंचे स्वर में नारा लगा रहे हैं, "ये देश नहीं रुकने वाला, ये देश नहीं झुकने वाला". फिर कुछ याद आया? 56 इंची मोदीजी की चुनावी  दहाड़ 'मैं देश नहीं झुकने दूंगा"?? यहाँ तक कि कोर्ट में इंदू भी वकील साब को टोकते हुए कहती है, "सरकार-विरोधी हूँ, देश-विरोधी नहीं". भंडारकर खुद भाजपाई नीतियों और मोदी सरकार से बिना शर्त इत्तेफ़ाक रखने वाले फिल्मकार माने जाते हैं, ऐसे में समझ नहीं आता कि फिल्म का ऐसा रुख भंडारकर साब की दिलेरी और दिलदारी है, या निपट बेअकली? जिस डाली पर बैठे हैं, उसी पर कुल्हाड़ी चलाने जैसा अपराध नज़र आता है मुझे तो. इसी तरह इंदिरा गांधी सरकार पर किये गए उनके सारे तंज, उनके सारे प्रहार एक एक कर बूमरैंग (वो जो फेंकने के बाद लौट कर वापस आपके पास ही आ जाये) की तरह मोदी सरकार की पीठ पर लगते हैं.

कहाँ तो भंडारकर साब के पास मौका था, इमरजेंसी के काले इतिहास को कुरेद-कुरेद कर इंदिरा गांधी और संजय गांधी की पोल-पट्टी खोल देने का, पर शायद इस सरकार से राष्ट्रीय पुरस्कार लेने के लिए इतना ही काफी था. गुलज़ार साब की 'आंधी' आप सिर्फ इसलिए बार-बार नहीं देखते क्यूंकि सुचित्रा सेन इंदिरा गांधी जैसी दिखती हैं? खैर, इतनी सी बात समझने के लिए मधुर भंडारकर के पास वक़्त कहाँ है? जेपी (जयप्रकाश नारायण) मूवमेंट की तर्ज़ पर सरकार से लोहा लेते हुए नानाजी की भूमिका में अनुपम खेर फरमाते हैं, "देश की एक बेटी ने आज देश को बंधक बना रखा है". सिनेमा भी भंडारकर जैसों के हाथों उसी दौर से गुज़र रहा है. [2/5] 

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