खलनायक का पीछा करते-करते अचानक से खेतों में खड़ा प्लेन मिल जाये, और आपको इत्तेफाक़न चलाना आता भी हो क्यूंकि आपने लाइब्रेरी में पढ़ा था; सामने गुण्डे बन्दूक ताने खड़े हों और आप नाचने लग जाएँ, इतना कि फर्श टूट जाये और आप निकल भागें; या फिर कि आप लकड़ी के बड़े से डार्टबोर्ड पर बंधे हों, ख़ूनी कातिल आप पर चाक़ू से निशाना साध रहा हो, और पहिये की तरह लुढ़कते-लुढ़कते वही डार्टबोर्ड नदी में नाव की तरह बहने लग जाये, जिंदगी इतनी आसान तो दादी-नानी की परी-कथाओं में ही होती है, या फिर कॉमिक बुक्स किरदारों के साथ. अनुराग बासु की 'जग्गा जासूस' इन दोनों ही खांचों में फिट बैठती है, पर इतनी ही आसान होते हुए भी, इतनी भी आसान फिल्म नहीं है. खास कर तब, जब उसके तकरीबन सारे ख़ास कलाकार अपनी बात गा कर कहते हों.
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में 'म्यूजिकल' फिल्में उन्हीं को कही जाती हैं, जिनमें 8-10 प्लेबैक गाने हों; पूरी फिल्म गीतों में और गीतों के जरिये ही बयान की जाये, हिंदी फिल्मों में कम आजमाया हुआ नुस्खा है. अनुराग इस तरह का प्रयोग करने की हिम्मत पूरे जोश-ओ-ख़रोश से दिखाते हैं, और इन हिस्सों में ख़ासा कामयाब भी रहते हैं, पर फिल्म की भटकाऊ कहानी और थकाऊ लम्बाई उनके इस जोश-ओ-ख़रोश को ठंडा कर देती है. देखने और सुनने में 'जग्गा जासूस' अनुराग की पिछली फिल्म 'बर्फी' की तरह ही बेहद खूबसूरत तो है, पर मिठास में कहीं न कहीं कम पड़ जाती है.
जग्गा (रणबीर कपूर) अनाथ है, हकलाता है. बचपन में एक दिन उसने एक घायल आदमी को मरने से बचाया था, तब से वही (शाश्वत चैटर्जी) उसके पिता हैं. उन्होंने ही जग्गा को गा-गा कर अपनी बात कहना सिखाया. फिर एक दिन वो जग्गा को छोड़कर चले जाते हैं. अब साल-दर-साल जग्गा के जन्मदिन पर एक विडियो कैसेट भेजते रहते हैं, जिसमें जग्गा से कहने के लिए ढेर सारी बातें होतीं हैं और दुनिया भर की जानकारी. जग्गा अपने कॉलेज का जासूस है, शहर की छोटी-मोटी वारदातों में अपना दिमाग चलाता रहता है, ऐसे में जब एक दिन उसे उसके पिता के मौत की खबर मिलती है, साथ ही मिलती है उसे अपने पिता को खोजने की वजह भी. इस सफ़र में उसके साथ है श्रुति (कटरीना कैफ़)- एक ऐसी 'बैड-लकी' लड़की, जो कुछ ख़ास हालातों में ठीक जग्गा के पापा की तरह ही पेश आती है.
जहाँ तक फिल्म को खूबसूरत दिखाने की बात है, सिनेमेटोग्राफर रवि वर्मन के साथ मिलकर अनुराग हरेक फ्रेम को एक तस्वीर की तरह पेश करते हैं, एक ऐसी तस्वीर जिसमें रंग जैसे छलक के बाहर आ गिर पड़ेंगे. तकरीबन 3 घंटे की फिल्म में शायद ही कभी आप फिल्म की ख़ूबसूरती को एक पल के लिए भी नज़रअंदाज़ कर पायेंगे. ऐसा ही कुछ रोमांच फिल्म की एडिटिंग भी दिखाती है, जब एक दृश्य से दूसरे दृश्य में जाने के लिए कई तरह के सफल प्रयोग बार-बार, लगातार किये जाते हैं. फिल्म को सही और सच्चे मायनों में 'म्यूजिकल' बनाने के लिए अनुराग की तमाम कोशिशों में 'सब खाना खाके दारू पी के चले गए', जग्गा का उसके पिता के साथ पहला दृश्य और 'तुक्का लगा-तुक्का लगा' जैसे दृश्य बेहतरीन हैं. दिक्कत तब आती है, जब फिल्म के दूसरे भाग में इस तरह के मजेदार (गाने में बातचीत) प्रयोग कम हो जाते हैं, और कहानी में भटकाव ज्यादा आ जाता है. इस हिस्से में इमोशन्स भी दूर-दूर ही मिलते हैं.
अभिनय में, 'जग्गा जासूस' बिना शक रणबीर कपूर की सबसे मजेदार, मनोरंजक और बढ़िया अदाकारी वाली फिल्मों में शामिल होती है. गिनती में 'बर्फी' और 'रॉकस्टार' के ठीक बाद. हालाँकि उनके किरदार में एक वक़्त बाद एकरसता आने लगती है, पर परदे पर उनका करिश्मा तनिक भी कम नहीं पड़ता. एक-दो डबिंग की गलतियों को छोड़ दें, तो कटरीना यहाँ कम ही शिकायत का मौका देती हैं. जग्गा के पिता की भूमिका में शाश्वत चैटर्जी फिल्म में जरूरी ठहराव लेकर आते हैं और हर दृश्य में अपनी छाप छोड़ जाते हैं. सौरभ शुक्ला के तो कहने ही क्या! इस तरह की भूमिकाओं में एक तरह से महारत ही हासिल है उन्हें.
आखिर में; 'जग्गा जासूस' को वेस एंडरसन और टिम बर्टन की फंतासी फिल्मों से अलग रखकर देख पायें, तो आपको बॉलीवुड में 'म्यूजिकल' बनाने की एक ईमानदार और दिलेर कोशिश नज़र आएगी, हालाँकि फिल्म कमियों से परे नहीं है. बच्चों की फिल्म में बड़ों के मुद्दे (अंतर्राष्ट्रीय हथियार व्यापार एवं तस्करी), बड़ों की फिल्म में बचकानी हरकतें; 'जग्गा जासूस' अगर दोनों का मनोरंजन भी बराबरी से करती है, तो दोनों को थोड़ा-थोड़ा निराश भी. [4/5]
Kaafi achcha laga padh ke! Dhanyawad! Twitter @joyagarwal
ReplyDeleteBadhiya review
ReplyDelete1/5 nothing new
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