Friday, 21 July 2017

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का: औरतों के 'सीक्रेट सपने' [3.5/5]

मुझे रत्ती भर समझ नहीं आता कि किसी (पहलाज निहलानी) भी थोड़े-बहुत समझदार आदमी को अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' से क्या परेशानी हो सकती है? ओह, याद आया. खिड़कियाँ खुलने लग सकती हैं. दरवाजों पर 'खोलो, खोलो' की थाप और मज़बूत होने लग सकती है. 'हाँ', 'हूँ', 'ह्म्म्म' और 'ठीक है' में ख़तम हो जाने वाले लाचार जवाब, आकार बदलकर सुरसा के मुंह की तरह निगल जाने वाले भयानक सवाल बनने लग सकते हैं. सुनाने का दंभ छोड़ना पड़ सकता है, सुनने की आदत डालनी पड़ सकती है. परेशानी तो है. पहाड़ जैसी भारी-भरकम पुरुषवादी सोच के अस्तित्व पर 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' जैसे एक कड़कती बिजली बन के टूट पड़ती है. पहाड़ टूटे न टूटे, हिलने तो ज़रूर लगता है. अपने-अपने दौर में तमाम प्रशंसनीय फिल्में हैं, जिन्होंने परदे पर औरतों को मर्दों का 'साज़-ओ-सामान' बनाकर पेश करने से अलग, उन्हें खालिस औरत समझ कर उनकी निजी आशाओं-अपेक्षाओं और अधिकारों को तवज्जो दी. इस दौर की वैसी ही एक बेहद ज़रूरी फिल्म है, 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का', जो बड़ी दिलेरी से अपने हक का सवाल पूछती है, "आखिर आप हमारी आजादी से इतना डरते क्यूँ हैं?" पूछते वक़्त किरदार कैमरे के ठीक सामने खड़ा है. सवाल आप ही से है, आप सभी से, हम सभी से. 

बुआजी (रत्ना पाठक शाह) भजन-कीर्तन की उम्र में छुप-छुपा कर 'मसालेदार कहानियों' का मज़ा लेती हैं. उनकी कहानी की नायिका रोज़ी भी उन्ही की तरह प्यार ढूंढ रही है. महज़ आँखों-आँखों वाला प्यार नहीं, वो जिसमें कोई बंदिशें न हों, लाज-लिहाज़ न हो, वो जिसमें बेरोक-टोक जिस्मों के उतार-चढ़ाव नापे जा सकें. बुआजी विधवा हैं, ऊपर से उनकी उम्र; बाहर पैर रखना हो तो सत्संग के अलावा कोई और दूसरा बहाना भी क्या ही हो सकता है? रत्ना पाठक शाह इस किरदार की शर्म, झिझक, कसक और लालसा को चेहरे पे बखूबी पोत लेती हैं, और फिर जब एक के बाद उतारना शुरू करतीं हैं, तो आप के पास वाहवाही करने के अलावा कुछ और बचता नहीं. 

भोपाल के उसी तंग मोहल्ले में और भी 'रोज़ी'यां हैं. सब की सब एक दिन उड़ने का सपना पलकों में दबाये जिये जा रही हैं. 4 बच्चों की माँ शीरीन (कोंकणा सेन शर्मा) दिन में एक डोर-टू-डोर मार्केटिंग कंपनी में 'टॉप' सेल्सगर्ल है, पर घर में उसकी रातें अक्सर बिस्तर में पति के 'नीचे' घुटते-दबते-पिसते ही कटतीं हैं. पति (सुशांत सिंह) की मर्दानगी कंडोम न पहनने से लेकर दुबई से 'जब भी आना, एक बच्चा देकर जाना' तक के बीच ही सीमित रहती है. पास के पार्लर में वैक्सिंग कराते हुए लीला (आहना कुमरा) पूछ लेती है, "कभी प्यार से नीचे नहीं छूता न वो तुम्हें? कभी किस भी किया है?" शीरीन कराह पड़ती है, "सब जानती हो, तो पूछती क्यूँ हो?". कोंकणा की तड़प देखनी हो, तो उनके क्लिनिक वाले दृश्य को देखिये, जब वो अपने पति के कंडोम न पहनने की आदत को 'वो ज़ज्बातों में बह जाते हैं' कहकर छुपाने की कोशिश कर रही हैं. 

लीला (अहना कुमरा) की सगाई हो रही है. उसकी मर्ज़ी के बिना. सगाई की रात ही वो अपने विडियो-फोटोग्राफर प्रेमी (विक्रांत मैसी) के साथ एमएमएस बना रही है, "हरामी, स्साले! धोखा दिया ना, तो फेसबुक पे डाल दूँगी". लीला का सपना है, अपना खुद का बिज़नेस ताकि उसकी माँ को पैसे के लिए आर्ट-स्टूडेंट्स के सामने न्यूड पेंटिंग्स का 'मॉडल' न बनना पड़े. अहना बड़ी बेबाकी से अपना किरदार निभाती हैं, और अपने दृश्यों में एक ख़ास तरह की एनर्जी ले आती हैं. फिल्म में एक स्टूडेंट रिहाना (प्लबिता बोर्थाकुर) भी है. कॉलेज के मोर्चे में  'जीन्स का हक दो, जीने का हक दो' का झंडा बुलंद करती है, बैंड में माइली सायरस के गाने गाने गाती है, पर घर लौटने से पहले 'सुलभ शौचालय' में जाकर बुर्का पहनना नहीं भूलती. अब्बू की सिलाई की दुकान है, थोक में बुर्के सिलते हैं. उनकी ही बेटी बुर्का न पहनने, क़यामत न हो जायेगी, जैसे बेटी नहीं, उनके बुर्कों की 'ब्रांड-एम्बेसडर' हो.   

फिल्म अपनी पृष्ठभूमि तंग शहर भोपाल की ही तरह, अलग-अलग वर्ग की औरतों के उन तमाम मसअलों से ढूंस-ढूंस कर भरी पड़ी है, जिनपे चर्चा करने से हम मर्द भागते रहते हैं. प्यार, उम्मीदें, ज़ज्बात, जिस्मानी जरूरतें, बंदिशें, पहरे और वो सब जिनसे मिलकर एक लफ्ज़ बनता है, 'आजादी'. आज़ाद होने का, हदों को लांघने और बन्धनों को तोड़ने का ख़याल अलंकृता बड़ी चतुराई से फ्रेम-दर-फ्रेम अपनी फिल्म में पिरोती रहती हैं. परदे पर ऐसे कई सारे दृश्य हैं, जो आपको विचलित करने के लिए काफी हैं. लीला का एमएमएस वाला दृश्य हो, बुआजी का उनके स्विमिंग ट्रेनर के साथ फ़ोन-सेक्स या फिर शीरीन का पार्लर वाला दृश्य; 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' परदे पे खुलने में थोड़ी भी झिझक नहीं दिखाती. हालाँकि कुछ गिनती के दृश्य जाने-पहचाने, देखे-दिखाए जरूर हैं, मसलन बुआजी का पहली बार मॉल में एस्केलेटर पर चढ़ना. एक बात और, यहाँ के मर्दों से कुछ भी अच्छा उम्मीद करना आपकी बेवकूफी होगी. फिल्म इस मामले में थोड़ी तो कंजूस और दकियानूसी होने का सबूत देती है.

आखिर में; 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' एक कोशिश है कि आप औरतों की शख्सियत का वो पहलू भी देख पायें, जहां उनकी पहचान माँ, बेटी, बहन, बीवी से अलग हटकर सिर्फ और सिर्फ एक औरत होने की है. मर्दों के बदलने का इंतज़ार छोड़िये, अगर फिल्म देख कर औरतें भी अपने आप और अपनी ख्वाहिशों के लिए कदम बढ़ाने की हिम्मत जुटा पायें; समझिये लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' की कामयाबी वहीँ कहीं मिलेगी. फिल्म के आखिर में चारों अहम् किरदार (बुआजी, लीला, शीरीन, रिहाना) तमाम गहमा-गहमी के बीच एक कमरे में बैठ कर रोज़ी की कहानी का अंत पढ़ने में मशगूल हो जाते हैं; कोई क्रांति नहीं आती, कोई भूचाल नहीं आता. वो आपको करना है, और अगर आप पहलाज निहलानी नहीं हैं, तो ये ज्यादा मुश्किल भी नहीं है. [3.5/5]    

No comments:

Post a Comment