रात के गहरे सन्नाटे में एक दैत्याकार काली गाड़ी दिल्ली की सुनसान सड़कों पर चली जा रही है. कैमरा किसी बाज़ या चील के पैरों में कस कर बाँध दिया गया हो जैसे. गाड़ी के ठीक ऊपर, उसी की रफ़्तार में उड़ा जा रहा है. एक तिराहे पर गाड़ी रूकती है, कैमरा भी ठहर गया है. ड्राइविंग सीट से एक आदमी उतर कर पीछे की तरफ चला जाता है. उसकी जगह अब दूसरे ने ले ली है. गाड़ी वापस उसी रफ़्तार, उसी मुर्दई के साथ चल पड़ी है. कैमरा भी. बैकग्राउंड साउंड सुनकर आपका दिल बैठा जा रहा है. आप अच्छी तरह जानते हैं, क्या होने वाला है? क्या हो रहा है? क्या होता आया है? अखबारों में पढ़ते आये हैं, 'चलती गाड़ी में गैंगरेप'. टीवी पर समाचारों में सुनते आये हैं, 'फिर शर्मसार हुई इंसानियत'; वही रटी-रटाई लाइनें, वही थकी-थकाई नाउम्मीदी में लिपटी प्रतिक्रियाएं, 'कोई सेफ नहीं आजकल'. बस्स. लेकिन जिस माकूल अंदाज़ से परदे पर रवि उद्यावर यह पूरा मंजर पेश करते हैं, डर भी लगता है और रोंगटे भी खड़े हो जाते हैं.
तकलीफ़ की बात ये है कि रवि की ये कामयाबी सिर्फ और सिर्फ उनके 'सिनेमाई कौशल' के हक में गिरती है, और इंटरवल के पहले तक ही प्रभावित कर पाती है, बाकी का सारा आधा हिस्सा किसी बहुत ही औसत 'एक्शन फिल्म' की तरह शुरू होता है और ख़तम हो जाता है. शुक्र है कि इन दोनों, एक-दूसरे से इतने अलग हिस्सों में कोई तो है, जो अपनी खाल एक पल के लिए भी नहीं उतारता. 'मॉम' श्रीदेवी की 300वीं फिल्म है, और उन्हें परदे पर अदाकारी करते देख लगता है कि जैसे उनके लिए 'कट' की आवाज़ का कोई मतलब ही नहीं. एक बार जो किरदार में उतरीं, तो उसे किनारे तक छोड़ आने से पहले कोई 'कट' नहीं. फिल्म में ऐसे दसियों दृश्य हैं, जिनमें श्री जी को देखते-देखते आप किरदार याद रखते हैं, अदाकारी याद रखते हैं, फिल्म भूल जाते हैं.
देवकी (श्रीदेवी) आर्या (सजल अली) के लिए 'मॉम' नहीं, बस 'मैम' हैं. घर में भी. अपनी पहली माँ को भूली नहीं है अभी वो. 'उसको समझाने की नहीं, समझने की जरूरत है'. देवकी कोशिश कर रही है. आम माओं की तरह अपनी फ़िक्र चीख-चिला कर नहीं बताती, पर देर रात पार्टी के लिए जा रही आर्या को फ़ोन चार्ज रखने के लिए बोलना नहीं भूलती. आर्या घर नहीं लौटी है. सुबह किसी ने उसे सड़क किनारे, नाले में अधमरी हालत में पाया और अब वो हॉस्पिटल में है. कुछ लोगों ने बलात्कार के बाद उसे गला दबाकर मारने की कोशिश की थी. शिनाख्त के बावजूद, 'पर्याप्त' सबूतों के अभाव में सारे अभियुक्त (उनमें से एक मोहित, आर्या की क्लास का स्टूडेंट था) छूट जाते हैं, पर माँ के लिए अभी केस ख़तम नहीं हुआ है.
रवि उद्यावर अपनी पहली ही फिल्म में बड़े स्टाइलिश तरीके से एक 'इमोशनल थ्रिलर' के सारे हथकंडे आजमा लेते हैं. फिल्म के पहले हिस्से में उनकी समझदारी, उनके सिनेमा से पूरी तरह 'हैण्ड इन हैण्ड' चलती है, चाहे वो स्कूल में मोहित से देवकी का सामना हो, देवकी का आईसीयू में आर्या के सामने फूट-फूट कर रोना हो या फिर लोकल डिटेक्टिव डीके (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) के साथ इंटरवल का वो रोमांचक पल, जहाँ देवकी कहती है, "भगवान् हर जगह नहीं होते, डीके जी" और डीके जवाब देता है, "...इसलिये तो उसने माँ बनाई है". यहाँ तक की पूरी फिल्म जितनी ईमानदारी से थ्रिलर होने का फ़र्ज़ निभाती है, यहाँ के बाद उतनी ही बेशर्मी से कोई आम 'बदले की फिल्म' बन के रह जाती है. नवाज़ुद्दीन का किरदार बेवजह और बेवक्त का हंसी-मज़ाक पेश करने में उलझा दिया जाता है, जबकि इस तरह की फिल्म से उस तरह के हास्य की उम्मीद कोई करता भी नहीं. 'मैं भी अपनी माँ जैसा सिंगर बनना चाहता था' 'आपकी माँ गाती थीं?' 'नहीं, वो भी बनना चाहती थीं'. सच्ची? क्यूँ?
अभिनय में; सजल अली बलात्कार-पीड़िता आर्या की भूमिका किसी बहुत ही माहिर अदाकारा की तरह पेश आती हैं. श्री जी के बाद वही हैं, जो फिल्म में कहीं कमज़ोर नहीं पड़तीं. अदनान सिद्दीकी (देवकी के पति की भूमिका में) पूरे ठहराव के साथ श्री जी का पूरा साथ देते हैं. नवाज अपने अलग लुक और हंसोड़ अंदाज़ से थोड़े वास्तविकता से दूर जरूर लगते हैं, पर फिल्म आगे चल कर जिस तरह का रुख ले लेती है, मज़ेदार भी लगते हैं. अक्षय खन्ना सिर्फ अपने चिर-परिचित अंदाज़ और स्टाइलिश लुक को ही चमकाते नज़र आते हैं.
आखिर में, 'मॉम' एक औसत फिल्म है, जिसे श्रीदेवी के रूप में एक ऐसी कलाकार तोहफे में मिल गयी, जिसका आकर्षण, जिसकी अभिनय-क्षमता और कैमरे के साथ जिसके रिश्तों पर उम्र का कोई असर नहीं दिखता. फिल्म औरतों पर होने वाले अत्याचारों की बात ज़रूर करती है, लेकिन बड़े परिदृश्य में 'पिंक' की तरह किसी बड़े मुहिम की तरफ बढ़ने का इशारा भी नहीं करती. 'मॉम' के लिए न सही, श्रीदेवी के लिए देखिये. [3/5]
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