Friday 28 July 2017

राग देश: देश का राग, अपने असली सुर में! [3/5]

देशभक्ति में ओत-प्रोत बहुत सारी फिल्में आपको याद होंगी. 'बॉर्डर', 'क्रांति' जैसी कुछ चीख-चीख कर दुश्मनों के छक्के छुड़ा देने वाली जोशीली, और कुछेक '1971', 'विजेता' जैसी ठहरी हुई; जिनके रोमांच की बुनियाद सिर्फ और सिर्फ एक दमदार कहानी पर टिकी होती है, जो कभी-कभी इतिहास की क्लास जैसी उबाऊ भी लग सकती है, पर कहानी कहते वक़्त ईमानदार बने रहने की कोशिश कभी नहीं छोड़तीं. तिग्मांशु धूलिया की 'राग देश' जैसे किसी केस-फ़ाइल की तरह, पूरी तरह जाँची-परखी और एक संतुलित-संयमित देशभक्ति फिल्म है. उम्मीद ये कतई ना करें कि यहाँ आपका हीरो अकेले दुश्मन के ऊपर टूट पड़ेगा, ना ही कि जंग की मुश्किल घड़ियों में पर्स टटोलेगा और प्रेमिका की फोटो पर उंगलियाँ फिराते हुए गाना गाने लगेगा. 

'राग देश' इतिहास के किसी जरूरी चैप्टर की तरह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के आज़ाद हिन्द फौज़ और उससे जुड़े 3 ख़ास सेनानियों पर ब्रिटिश हुकूमत द्वारा चलाये जाने वाले देशद्रोह के मुकदमे का परत-दर-परत ब्यौरा पेश करता है. दूसरे विश्वयुद्ध में जापान के आगे घुटने टेक देने के बाद, बर्मा में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय सेना की एक टुकड़ी जापानियों के सुपुर्द कर दी थी. जापानियों की मदद से, आज़ाद हिन्द फौज़ की नींव वहीँ पड़ी और धीरे-धीरे बुलंद होती गयी. देश आज़ाद कराने की लड़ाई में अब हिन्दुस्तानियों की ही बन्दूक थी, और हिन्दुस्तानियों का ही सीना. तमाम छोटी-छोटी सफलताओं के बावजूद और नेताजी की असामयिक मृत्यु के बाद, आज़ाद हिन्द फौज बिखरने लगी और अब उसके 3 अधिकारियों मेजर जनरल शाहनवाज़ खान (कुनाल कपूर), लेफ्टिनेंट कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों (अमित साध) और कर्नल प्रेम सहगल (मोहित मारवाह) पर देशद्रोह और मर्डर का मुकदमा चल रहा है. 

फिल्म की शुरुआत में ही, तिग्मांशु धूलिया बड़ी समझदारी से अपनी आवाज़ में 1945 के भारत की तस्वीर पूरी तरह साफ़ कर देते हैं. कोर्ट की प्रक्रिया के साथ-साथ धीरे-धीरे गवाहों के बयानात के ज़रिये, धूलिया आज़ाद हिन्द फौज के गठन और सैनिकों के साथ नेताजी के प्रेरक-प्रसंगों को फ्लैशबैक में पेश करते हैं. धूलिया फिल्म में मनोरंजन का भी ख़ास ख्याल रखते हैं, पर कुछ इस तरह जो अटपटा न हो, और कहानी की गंभीरता से बहुत ज्यादा अलग भी नहीं. कर्नल सहगल के पिता (कंवलजीत सिंह) पंडित नेहरु से वकील बदलने की बात कर रहे हैं, नेहरूजी का जवाब आता है, "कहीं आपका इशारा मेरी तरफ तो नहीं?", सहगल साब साफ़ मना कर देते हैं, "आप राजनीतिक मामलों में तो ठीक है, पर सेना के मामलों में आपके पास ज्यादा कुछ अनुभव नहीं है". इसी तरह कर्नल प्रेम सहगल की हाज़िर-जवाबी और अंग्रेजों के साथ लेफ्ट. कर्नल ढिल्लों की नोक-झोंक रह-रह कर आपको गुदगुदाती रहती है. कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन (मृदुला मुरली) के साथ कर्नल प्रेम सहगल के प्रेम को परदे पर कम ही वक़्त मिल पाता है. 

'राग देश' की खासियत है उसका रिसर्च-वर्क, जो तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने के बजाय ज्यों का त्यों सामने धर देता है, चाहे उसे जानने में आपकी कोई मंशा हो, न हो. फिल्म के किरदार अगर पंजाबी, जापानी, ब्रिटिश हैं तो वे अपनी ही भाषा में बात करते हुए सुनाई देते हैं. फिल्म न सिर्फ विवादास्पद प्रसंगों से बचती है, बल्कि नेताजी के कुछ बहुत ही भावुक पलों को बड़ी ख़ूबसूरती से सामने रखती है, जो आज के वक़्त में प्रासंगिक भी हैं, और प्रेरणास्पद भी, जैसे बर्मा में मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर की कब्र पर चादर चढ़ाते हुए वादा करना कि एक दिन आपको हिंदुस्तान लेकर जायेंगे, जैसे मंदिर से दर्शन के बाद निकलते हुए माथे से तिलक का निशान मिटाना ताकि देश की लड़ाई में किसी एक धर्म की हिस्सेदारी न लगे. कास्टिंग में कुनाल, अमित और मोहित एकदम ठीक-ठीक हैं, अन्य कलाकारों में केनेथ देसाई मजेदार हैं.

आखिर में; 'राग देश' ऐसे मुश्किल वक़्त में जब देशभक्ति को लेकर सबके अपने अपने पैमाने हैं, आज़ादी की लड़ाई की एक सच्ची कहानी, एक सच्ची घटना को पूरी शिद्दत और नेकनीयती से सामने रखती है. मसाले कम हैं, तो थोड़ी बोरियत और सूनापन जरूर घेरने की कोशिश करेगा; मगर फिल्म की तमाम अच्छाइयों के बीच इसे नज़रंदाज़ करना इतना मुश्किल नहीं. [3/5]

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