प्यार की कहानियाँ सदियों से अनगिनत
बार कही और सुनाई जाती रही हैं. वासना के हिस्से ऐसे मौके कम ही आये हैं. हालाँकि
दोनों में फर्क बस सामाजिक बन्धनों और नैतिकता के सीमित दायरों का ही है. कितना
आसान लगता है हमें, या फिर कुछ इस तरह के हालात बना दिए गये हैं
हमारे लिए कि प्यार के नाम पर सब कुछ सही लगने लगता है,
पाक-साफ़-पवित्र; और वासना का जिक्र आते ही सब का सब गलत, गंदा और अनैतिक. रिश्तों में वासना तो हम अक्सर अपनी सतही समझ से ढूंढ ही
लेते हैं, वासना के धरातल पर पनपते कुछ अलग रिश्तों, कुछ अलग कहानियों को समझने-तलाशने की पहल नेटफ्लिक्स की फिल्म ‘लस्ट स्टोरीज़’ में दिखाई देती है, जो अपने आप में बेहद अनूठा प्रयास है. ख़ास कर तब,
जब ऐसी कहानियों को परदे पर कहने का दारोमदार हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के चार बड़े
नामचीन फिल्मकारों (अनुराग कश्यप, जोया अख्तर, दिबाकर बैनर्जी, करण जौहर) के मजबूत और सक्षम कन्धों
पर टिका हो.
चार छोटी-छोटी कहानियों से सजी ‘लस्ट स्टोरीज़’ अपने नाम की वजह से थोड़ी सनसनीखेज भले
ही लगती हो, पर कहानी और किरदार के साथ अपनी संवेदनाओं और सिनेमा
के लिए अपनी सशक्त जिम्मेदारियों में खुद को तनिक भी लचर या लाचार नहीं पड़ने देती.
अनुराग की कहानी एक महिला प्रोफेसर के अपने ही एक स्टूडेंट के साथ जिस्मानी
सम्बन्ध बनाने से शुरू होती है. कालिंदी (राधिका आप्टे) का डर, उसकी नर्वसनेस, तेजस (सैराट के आकाश ठोसर) पर जिस
तरह वो अपना अधिकार जमाती है, सब कुछ एक सनक से भरा है. एक
हिस्से में तो वो तेजस का बयान तक अपने मोबाइल में रिकॉर्ड करने लगती है, जिसमें तेजस ‘सब कुछ आपसी सहमति से हुआ था’ की हामी भर रहा है. हालांकि अपने एक से ज्यादा रिश्तों में कालिंदी की
तड़प उन दृश्यों में साफ़ होने लगती है, जिनमें वो कैमरे से रूबरू
होकर कुछ बेहद अहम् सवाल पुरुषों की तरफ उछालती है. राधिका अपने किरदार के पागलपन
में हद डूबी हुई दिखाई देती हैं, पर फिल्म कई बार दोहराव से
भी जूझती नज़र आती है, अपने 35 मिनट के तय वक़्त में भी लम्बी
होने का एहसास दे जाती है.
सुधा (भूमि पेडणेकर) अजीत (नील भूपलम)
के साथ कुछ देर पहले तक बिस्तर में थी. अब फर्श पर पोछा लगा रही है. पोहे की प्लेट
और चाय का कप अजीत को दे आई है. अब बर्तन कर रही है. बिस्तर ठीक करते हुए ही
दरवाजा बंद होने की आवाज़ आती है. अजीत ऑफिस जा चुका है. सुधा उसी बिस्तर पर निढाल
होकर गिर गयी है. जोया अख्तर की इस कहानी में ऊंच-नीच का दुराव बड़ी संजीदगी से
पिरोया गया है. सुधा एक काम करने वाली नौकरानी से ज्यादा कुछ नहीं है, उसे भी पता है. अजीत के साथ शारीरिक सम्बन्धों के बावजूद, अपने ही सामने अजीत को लड़की वालों से मिलते-बतियाते देखते और उनके लिए
चाय-नमकीन की तैयारी करते वक़्त भी उसे अपनी जगह मालूम है,
फिर भी उसकी ख़ामोशी में उसके दबते-घुटते अरमानों और ख्वाहिशों की चीख आप बराबर सुन
पाते हैं. भूमि को उनकी रंग-ओ-रंगत की वजह से भले ही आप इस भूमिका में सटीक मान
बैठे हों, पर असली दम-ख़म उनकी जबरदस्त अदाकारी में है. गिनती
के दो संवाद, पर पूरी फिल्म में क्या दमदार उपस्थिति. इस
फिल्म में जोया का सिनेमा भी क्या खूब निखर कर सामने आता है. कैमरे के साथ उनके
कुछ दिलचस्प प्रयोग मज़ा और दुगुना कर देते हैं.
दिबाकर बैनर्जी की कहानी एक बीचहाउस
पर शाम होते ही गहराने लगती है. रीना (मनीषा कोईराला) साथ ही बिस्तर में है, जब सुधीर (जयदीप अहलावत) को सलमान (संजय कपूर) का फ़ोन आता है. सलमान को
लगने लगा है कि उसकी बीवी रीना का कहीं किसी से अफेयर चल रहा है. शादी-शुदा होने
का बोझ और बीवी होने से ज्यादा ‘बच्चों की माँ’ बन कर रह जाने की कसक अब रीना की बर्दाश्त से बाहर है. सलमान को खुल कर सब
सच-सच बता देने में ही सबकी भलाई है. वैसे भी तीनों कॉलेज के ज़माने से एक-दूसरे को
जानते हैं. शादी से बाहर जाकर अवैध प्रेम-संबंधों और अपने पार्टनर से वफादारी के
मुद्दे पर दिबाकर इन अधेड़ उम्र किरदारों के जरिये एक बेहद सुलझी हुई फिल्म पेश
करते हैं, जहां एक-दूसरे की जरूरतों को बात-चीत के लहजे में समझने
और समझ कर एक माकूल रास्ता तलाशने में सब के सब परिपक्व और समझदार बन कर सामने आते
हैं. मनीषा और संजय को नब्बे के दशक में हम बहुत सारी मसाला फिल्मों में ‘नॉन-एक्टर’ घोषित करते आये हैं, इस एक छोटी फिल्म में दोनों ही उन सारी फिल्मों में अपने किये-कराये पर
मखमली चादर डाल देते हैं. जयदीप तो हैं ही बाकमाल.
आखिरी किश्त करण जौहर के हिस्से है, और शायद सबसे फ़िल्मी भी. कहानी पिछले साल की ‘शुभ
मंगल सावधान’ से बहुत अलग नहीं है. मेघा (कियारा आडवाणी) के
लिए बिस्तर पर अपने पति पारस (विक्की कौशल) के साथ ‘सुख’ के पल गिनती के ही रह जाते हैं (हर बार वो उँगलियों से गिनती रहती है), और उसके पति को कोई अंदाज़ा ही नहीं कि उसकी बीवी का सुख उसके सुख से अलग
है, और कहीं ज्यादा है. मनचाही ‘ख़ुशी’ के लिए बैटरी और रिमोट से चलने वाले खिलौने की दखल के साथ, करण कहानी को रोचक बनाने में ज्यादा उत्तेजित दिखते हैं, कुछ इस हद तक कि अपनी महान पारिवारिक फिल्म ‘कभी
ख़ुशी कभी गम’ के गाने का मज़ाक उड़ाने में भी झिझकते नहीं.
विक्की कौशल मजेदार हैं.
आखिर में, ‘लस्ट स्टोरीज़’ 2013 में आई अनुराग, ज़ोया, दिबाकर और करण की ‘बॉम्बे
टॉकीज’ वाले प्रयोग की ही अगली कड़ी है. फिल्म इस बार बड़े
परदे पर नहीं दिखेगी, और सिर्फ नेटफ्लिक्स पर ही मौजूद रहेगी, इसलिए अपनी सहूलियत से कभी भी और कहीं भी देखने का लुत्फ़ आप उठा सकते
हैं. ज़ोया और दिबाकर की कहानियों के बेहतर होने के दावे के साथ ही, एक बात की ज़मानत तो दी ही जा सकती है कि हिंदी सिनेमा के आज में इस तरह
की समर्थ, सक्षम और असामान्य कहानियां कहने की कोशिशें कम ही
होती हैं, खुद इन चारों फिल्मकारों को भी आप शायद ही इन
मुद्दों पर एक बड़ी फिल्म बनाते देख पायें, तब तक एक ही फिल्म
में चारों अलग-अलग ज़ायकों का मज़ा लीजिये. ‘लव’ से ज्यादा मिलेगा, कुछ नया मिलेगा. [4/5]
Agree sirji
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