Friday 28 September 2018

पटाखा: चटख किरदार, विस्फ़ोटक अभिनय! [4/5]


सारे रिश्ते हर वक़्त लगाव की चाशनी में डूबे रहें, नहीं होता. सारे रिश्ते हमेशा ही नफरतों की आग में भुनते रहें, ये भी नहीं होता, पर कुछ एकदम अलग से होते हैं. चंपा (राधिका मदान) और गेंदा (सान्या मल्होत्रा) के रिश्ते जैसे. नाम फूलों के, पर अंदाज़ काँटों से भी तीखे, जहर बुझे और नुकीले. जनम से सगी बहनें, लेकिन करम से एक-दूसरे की कट्टर दुश्मन. भारत-पाकिस्तान जैसे. एक को भिन्डी बेहद पसंद हैं, तो दूसरी भिन्डी का नाम सुनकर ही इस कदर बौखला जाती है कि किसी का खून तक कर दे. एक का सपना ही है अपना खुद का डेरी फार्म खोलना, तो दूसरी को दूध देख के ही मितली आने लगती है. ‘मुक्का-लात ही जिनके लिए मुलाक़ात का बहाना है, और अजीब-ओ-ग़रीब गालियों का सुन्दर प्रयोग आपस की बातचीत का ज्यादातर हिस्सा. आम रिश्तों में जहां प्यार, दुलार और अपनापन जैसे नर्म, नाजुक इमोशन्स अपनी जगह बना रहे होते हैं, यहाँ गेंदा और चम्पा के बीच गुस्सा, जलन, नफरत हावी है. दोनों एक-दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहातीं, और कभी-कभी तो लगता है कि एक-दूसरे को नीचा दिखाने की जिद में ही अपने किरदारों की पसंद-नापसंद, सपने-उम्मीदें गढ़ती रहती हैं.

विशाल भारद्वाज की ‘पटाखा अपनी गंवई पृष्ठभूमि, रोचक किरदारों और उनके बीच घटने वाली मजेदार घटनाओं के साथ हिंदी कहानी की चिर-परिचित शैली को परदे पर उकेरने की एक बेहद सफल कोशिश है. विशाल इससे पहले शेक्सपियर और रस्किन बॉन्ड के साहित्य को सिनेमाई रूप दे चुके हैं. इस बार भी, जब वो दर्शकों के लिये चरण सिंह पथिक की एक छोटी कहानी ‘दो बहनें’ को चुनते हैं, मनोरंजन की कसौटी पर कोई चूक नहीं करते. पथिक की कलम हमें राजस्थान के एक छोटे से गाँव का हिस्सा बना रख छोड़ती है, जहां रंग-रंगीले किरदार बड़ी बेपरवाही और घोर ईमानदारी से अपने खालिस ज़ज्बातों की पूरे शोर-शराबे के साथ बयानबाज़ी करते हैं. विशाल बेशक इसे नाटकीय और भरपूर मनोरंजक बनाने में बखूबी अपना योगदान देते हैं. बेटियों को बीड़ी न फूंकने की सलाह देते हुए बापू (विजय राज) कहता है, “बापखाणियों की! बच्चेदानी झुलस जावेगी, बाँझ बन के रह जाओगी. कौन करेगो ब्याह?’’ गेंदा के पास अलग सवाल है, “पड़ोस की ताई ने तो खो-खो की टीम जन दी, 5 साल की थी, तब से फूंके हैं बीड़ी. वो तो न हुई बाँझ”. लड़ाई सिर्फ जबान तक नहीं रहती, चम्पा और गेंदा जब एक-दूसरे का झोंटा पकड़-पकड़ के लड़ती हैं, पूरा गाँव देखता है और वो ये तक नहीं देखतीं कि बीच-बचाव कराने आया उनका बापू भी धक्के से गिरकर गोबर में लोट रहा है.

‘पटाखा अपने आप में एक अलग ही दुनिया है. यहाँ शादियों के फैसले पत्थर को टॉस की तरह उछाल कर किये जाते हैं. थूक से गीला हिस्सा आने पर बड़की का ब्याह, सूखा आया तो छोटकी का. गाँव के रंडवे पटेल की बहू नेपाली है, दाम देकर ब्याही गयी है. गालियों, गंदगियों और मार-पीट, लड़ाई-झगड़े से भरी एक ऐसी दुनिया, जो सुनने में काली भले ही लग रही हो. देखने में एकदम रंगीन है. ईस्टमैन कलर जितनी रंगीन. ऐसी दुनिया, जिसमें जाने से आपको कोई गुरेज न हो. इसका काफी सारा क्रेडिट किरदारों में हद साफगोई और उन किरदारों में जान फूंकते कुछ दिलचस्प, काबिल अदाकारों के अभिनय को जाता है. गेंदा के किरदार में जब सान्या पागलों की तरह परदे पर उछलती हैं, ‘दंगल’ वाले अक्खड़, पर बंधे-बंधे से किरदार की खाल भी टूट कर चकनाचूर हो जाती है. फिल्म के दूसरे हिस्से में शादीशुदा गेंदा तो और भी ज्यादा प्रभावित करती है, खासकर अपने डील-डौल और हाव-भाव में संजीदगी ले आकर. राधिका मदान चम्पा के किरदार में जिस बेपरवाही से घुसती हैं, परदे पर किसी विस्फ़ोट से कम अनुभव नहीं होता उन्हें देखना. दागदार दांतों से निचला ओंठ दबाते, उनकी शरारती आँखों की चमक देर तक याद रह जाती है. न थमने-न रुकने वाली शुरूआती लड़ाईयों से लेकर आखिर में ह्रदय-द्रवित कर देने वाले उलाहनों और तानों के मार्मिक दृश्य तक, दोनों का पागलपन एक-दूसरे को टक्कर भी देता है, और एक-दूसरे का पूरा साथ भी.

‘पटाखा में सुनील ग्रोवर भी खासे चौंकाते हैं. एक तरह फिल्म के सूत्रधार भी वही हैं. नारद मुनि की तरह बीच-बीच में आते हैं और फिल्म को एक नया रुख देकर निकल लेते हैं. दोनों बहनों के साथ उनका रिश्ता अनाम ही है, पर शायद सबसे ज्यादा करीबी. दोनों जब लड़ती हैं, तो टिन का डब्बा पीट-पीट कर नाचता है, जब शांत रहती हैं तो लड़ने के लिए उकसाता है. फिल्म के होने की वजह में इस ‘डिपर’ का होना भी उतना ही ख़ास है, जितना चंपा-गेंदा का. परेशान पिता की भूमिका में विजयराज सटीक हैं. यह भूमिका निश्चित तौर पर उनकी सबसे जटिल है. अपने हाव-भाव में विजयराज इस बार अपनी उस जानी-पहचानी, लोकप्रिय छवि से भी दूर रहने की कोशिश करते हैं, जहां उनके अभिनय में रस अक्सर उनके हाज़िर-जवाब, लच्छेदार संवादों का मोहताज़ रहती है.

आखिर में, ‘पटाखा किसी हज़ार-दस हज़ार की लड़ी जितनी ही मजेदार है. एक बार फटनी शुरू होती है, तो ख़तम होने का नाम ही नहीं लेती. हालाँकि कभी कभी दिक्कत का सबब भी वही बन जाती है. विशाल अक्सर बीच-बीच में ट्रम्प-मोदी, भारत-पाकिस्तान, इजराईल-फ़िलिस्तीन जैसे रूपकों के साथ, राजनीतिक व्यंग्य और राष्ट्रीय सरोकार के प्रति अपना प्रेम दर्शाते रहते हैं, लेकिन मैं इसे सीधे-सादे तौर पर ‘एक अजीब से रिश्ते की एक गज़ब ज़ज्बाती कहानी’ ही मान कर देखना पसंद करूंगा, जहां कहानी का चरमोत्कर्ष आपका दिल भर दे, और आँखें नम कर दे. [4/5]                  

6 comments:

  1. फ़िल्म #पटाख़ा
    समीक्षा #बम
    👌

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  2. This comment has been removed by the author.

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  3. Bahut sundar. Aapki sameeksha ki prateeksha rehti hai.

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  4. behad sateek sameeksha .. Gaurav Bhai aapke vichaar padhne ke baad dil se aalochna shabd nahi nikalta sameeksha shabd hi nikalta hai :)

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  5. अच्छी समीक्षा...

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