Friday 21 September 2018

मंटो: तीखे सवाल, जरूरी फिल्म! [3.5/5]


सआदत हसन मंटो उर्दू अदब के सबसे सनसनीखेज अफसाना-निगार (लेखक) तो पहले से ही माने जाते रहे हैं, इधर कुछेक दशकों से उनकी शोहरत नयी पीढ़ी के पढ़ने-लिखने वालों में ख़ासी बढ़ी है. मंटों की जिंदगी पर बनी नंदिता दास की ताज़ातरीन फिल्म ‘मंटो देखते वक़्त, सिनेमाहॉल में मेरे ठीक पीछे एक महीन आवाज़ उभरती है, “ओह, आई लव मंटो.” मुझे नहीं पता, सासाब (उनकी बीवी सफिया उन्हें फिल्म में अक्सर इसी नाम से पुकारती हैं) के लिये इन मोहतरमा के इस ‘क्रेज की ज़मीन क्या है? असल जिंदगी में उनके बाग़ी तेवर, दुनिया को लेकर उनका अक्खड़ रवैया या फिर उनकी कहानियों में गाढ़े सच्चाई की डरावनी शक्ल? या कुछ और? खैर! वजह जो कुछ भी हो, मंटो की अहमियत जेहनी तौर पर आज भी उतनी ही पुख्ता है, जितनी तब, जबके वो खुद जिस्मानी तौर पर दुनिया में, दुनिया भर से लड़ने-भिड़ने को मौजूद रहे थे.

कम पैसे देकर कॉलम छापने वाला प्रिंटिंग-प्रेस का मालिक मंटो (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) को मशवरा दे रहा है, “घर जाईये, लिख कर कल ले आईयेगा.” मंटो बोतल से शराब गले में गटकते हुए फरमाते हैं, “20 रूपये के लिए मैं तुम्हारे दफ्तर के दो चक्कर लगाऊँगा?” जबान की हद साफगोई और तेवर में तलवार की धार लिए मंटो दोस्तों के बीच बैठे-बैठे साफ़ कर देते हैं, “अगर मेरे अफसाने आपको बर्दाश्त नहीं, तो फिर ये दुनिया ही नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त है”. मंटो से रूबरू कराने के लिए नंदिता उनकी जिंदगी का एक छोटा सा हिस्सा ही परदे पर जिंदा करती हैं. आज़ादी से कुछेक साल पहले की बम्बई, और आजादी के ठीक बाद का लाहौर. पहला हिस्सा वो दौर है, जब कहानी लिखने वाले अपने किरदारों की तलाश में जिंदगी के अंधेरों से टकराने में मशरूफ़ रहते थे. कृशन चंदर और इस्मत चुगताई (राजश्री देशपांडे) के साथ बम्बई में कॉफ़ी पीते हुए मंटो इस्मत आपा के ‘लिहाफ़’ के आखिरी हिस्से को ‘मामूली होने के लिए कोस रहे हैं. फ़िल्मी पार्टियों में ख़ास दोस्त श्याम (ताहिर राज भसीन) के साथ व्हिस्की के पैग टकराते हुए मज़ाक में के. आसिफ से उनकी नयी फिल्म स्क्रिप्ट पर राय देने की फीस मांग रहे हैं. वहीँ जद्दन बाई (इला अरुण) बेटी नर्गिस के साथ महफ़िल की शान में, अशोक कुमार (भानू उदय) के कहने पर नज़्म सुना रही हैं.  

...मगर जल्द ही मंटो साब का उनके अपने शहर मुंबई से नाता टूटने वाला है. चारों तरफ बस ‘हिन्दू-मुसलमान’ और ‘हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का शोर है. सासाब दो-दो टोपियाँ आजकल अपने साथ रखने लगे हैं, हिन्दू की अलग, मुसलमान की अलग. ‘जब मज़हब दिलों से निकल कर सिर पर चढ़ जाए, तो कोई कुछ और करे भी तो क्या?’. लाहौर की गलियाँ तो और संकरी हैं. उनकी कहानियों को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है. उन्हें ‘अश्लील होने के इल्जामों से नवाज़ा जा रहा है. मंटो साब से लिखा नहीं जा रहा. लिखें तो भी क्या, खून-खराबा, क़त्ल-ओ-गैरत और इनके बीच घुटता इंसानियत का दम? शराब कम से कम शरीर तो गरम रखती है. एक कहानीकार के तौर अपनी जिम्मेदारियों और आस-पास की सड़ांध मारती दुनिया के दोगलेपन के बीच पिसते मंटो साब के तेवर मंद पड़ने लगे हैं, मगर कौन कह सकता था कि 70 साल बाद मंटो के सवाल आज भी उतने ही तीखे लगेंगे?  

नंदिता न सिर्फ 40 के दशक का बम्बई और लाहौर बड़ी ख़ूबसूरती से परदे पर रौशन करती हैं, बल्कि उतनी ही समझदारी से मंटो की असल जिंदगी और उनकी कुछ मशहूर कहानियों की दुनिया के बीच का फर्क मिटा देती हैं. ‘ठंडा गोश्त’, ‘खोल दो, ‘तोबा टेक सिंह’ और ‘दस रूपये जैसी कहानियों के बीच मंटो अपनी असल जिंदगी से चलते-चलते कुछ इस तरह दाखिल होते हैं, मानो उनकी भी जिंदगी उतना ही अफसाना हो, या फिर वो तमाम अफ़साने उन्हीं की जिंदगी के कुछ और सफहे. पाकिस्तान और भारत दोनों ही देशों में मंटो की ज़िन्दगी और उनकी कहानियों पर आधा दर्ज़न फिल्में बन चुकी हैं, पर नंदिता अपने ‘मंटो को जिस दिलचस्प और रोमांचक तरीके से परदे पर पेश करती हैं, हर दृश्य आपको बांधे रखने में कामयाब रहता है. इसमें कुछ हद तक नंदिता का वो प्रयोग भी शामिल है, जिसमें वो छोटे से छोटे किरदार के लिए भी जाने-पहचाने चेहरों का चुनाव करती हैं. यही वजह है कि फिल्म में आप जावेद अख्तर, दिव्या दत्ता, चन्दन रॉय सान्याल, तिलोत्तमा शोम, पूरब कोहली, रनवीर शौरी, नीरज कबी, परेश रावल, गुरदास मान, ऋषि कपूर, इला अरुण, विनोद नागपाल, शशांक अरोरा जैसे दर्जन भर कलाकारों को देख कर चौंक जाते हैं.

‘मंटो में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी अपने उसी जाने-पहचाने अंदाज़ में हैं, जहां उनकी मौजूदगी किरदार पर हर पल हावी होती दिखाई देती है. उनके मंटो को याद करते वक़्त शायद आप के ज़ेहन में जो चेहरा उभरे, वो सिद्दीकी की पिछली फिल्मों के किरदारों के इर्द-गिर्द ही हो, पर इसका ये मतलब नहीं निकला जाना चाहिए कि उनसे ‘मंटो’ करते वक़्त किसी तरह की कोई गुंजाइश बाकी रह जाती है. फिल्म के आखिरी हिस्सों में वो थोड़ा उंचाई तक जाते ज़रूर हैं, पर मंजिल दूर ही रह जाती है. स्वेत/श्याम फिल्मों के मशहूर अदाकार सुन्दर श्याम के किरदार में ताहिर परदे पर अपना करिश्मा ख़ूब बिखेरते हैं. रसिका दुग्गल मंटो की पत्नी सफिया के किरदार में जान फूँक देती हैं. इस्मत चुगताई बनी राजश्री और अशोक कुमार बने भानू उदय पूरी तरह रोमांचित करते हैं.

आखिर में; ‘मंटो हालिया दौर में एक बेहद जरूरी फिल्म है, जो कुछ ऐसे चुभते सवालों के साथ आपका ध्यान खींचती है, जिनका सीधा सीधा लगाव देश, देश में रहने वाले लोगों, उनकी आवाज़, उनकी आज़ादी और साथ ही, देश और धर्म से जुड़े ढेर सारे कुचक्रों से है. सच्चाई क्यूँ न कही जाए, जैसी की तैसी? मंटो हिंदुस्तान-पाकिस्तान, हिन्दू-मुसलमान और श्लील-अश्लील जैसे दायरों में कैद हो सकने वालों में से नहीं थे. इस फिल्म को भी ऐसे किसी भी दायरों से अलग कर के देखे जाने की जरूरत है. [3.5/5]                      

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