Sunday, 24 March 2019

मर्द को दर्द नहीं होता: अतरंगी किरदार, रंगीली दुनिया, मजेदार मनोरंजन! (4/5)


फ़िल्मकार के तौर पर, सिनेमा आपको एक ख़ास सहूलियत देता है, अपनी अलग ही एक दुनिया रचने की. ऐसी दुनिया, जिसे या तो अब तक आप जीते आये हैं, या जिसे जीने के ख्वाब आपकी आँखों में चमक ला देते हैं. अब ये खालिस आप पर निर्भर करता है कि समाज के पैरोकार बनकर आप लोगों को सच्चाई की काली कोठरी में, उन्हें उनके अपने ही दर्द-ओ-ग़म से रूबरू कराना चाहते हैं, या मनोरंजन की परवाह करते हुए, एक ऐसी ज़मीन तैयार करते हैं, जहां सब कुछ रंगीन है, मनभावन है, और अतरंगी भी. ‘मर्द को दर्द नहीं होता इस लिहाज़ थोड़ी और अनूठी है, क्योंकि लेखक-निर्देशक वासन बाला की इस अतरंगी दुनिया के तमाम साज़ो-सामान, तकरीबन सारी की सारी सजावट और किरदार हिंदी सिनेमा के उस दौर का जश्न मनाते हैं, जब मनोरंजन को लॉजिक नाम वाली लाठी के सहारे की ज़रुरत नहीं पड़ती थी.  

नायक सूर्या (अभिमन्यु दासानी) को अज़ीब-ओ-ग़रीब बीमारी है. उसे दर्द महसूस नहीं होता. किसी भी तरह का. हालाँकि बचपन में ही चेन-स्नैचिंग के एक हादसे में अपनी माँ को खोने के बाद उसने दुनिया से चेन-चोरों का नामोनिशान मिटाने की कसम ज़रूर खा रखी है, पर सिर्फ अपनी जिंदगी को एक मकसद देने की गरज़ से. माँ के जाने का दुःख-दर्द भी उसके सपाट चेहरे पर गिरते ही फिसल जाते हैं. पिता (जिमित त्रिवेदी) दूसरी शादी कर रहे हैं, पर सूर्या को पता ही नहीं कि शायद उसे गुस्सा होना चाहिए. सूर्या को अगर कोई खतरा है, तो वो है डिहाइड्रेशन. वीएचएस पर ब्रूस ली की फिल्में दिखा-दिखा कर उसके नाना (महेश मांजरेकर) ने उसे एक पैर वाले कराटे मैन मणि (गुलशन देवैय्या) जैसा लड़ाका बना दिया है, और अब उसी कराटे मैन को उसी के सनकी जुड़वे भाई जिम्मी (गुलशन देवैय्या) से बचाने की लड़ाई में सूर्या को सुप्री (राधिका मदान) मिल गयी है, उसके बचपन का बिछड़ा हुआ प्यार.

जिस तरह कहानी लिखने और उसके फिल्मांकन में वासन फिल्मों से जुड़े ढेर सारे सन्दर्भों का हवाला पेश करते हैं, कोई घोर-सिनेमाप्रेमी ही कर सकता है. सूर्या की पैदाइश के वक़्त माँ सिनेमाहॉल में बैठी ‘आज का गुंडाराज देख रही है. माँ की मौत का बदला लेना ही बेटे का मकसद बन जाता है, और ‘पाप को जला कर राख कर दूंगा उसका मूलमंत्र. सूर्या का वीडियो कैसेट्स पर फिल्में देखना, ब्रूस ली की तर्ज़ पर उसका ट्रैकसूट, बात-बात में फिल्मों का ज़िक्र; सब कुछ आपको उस दौर की याद दिलाता रहता है, जब हम में से ज्यादातर उम्र के उस पड़ाव पर थे, जहां सिनेमा को अच्छे-बुरे की नज़र से तौलने के बजाय, मनोरंजन की चाशनी पर ध्यान ज्यादा रहता था.

किरदारों को मजेदार बनाने में बाला कोई कसर नहीं छोड़ते. आम तौर पर नायक-खलनायक के बीच नायिका अक्सर अपने होने के बहाने ढूंढती नज़र आती है, पर ‘मर्द को दर्द नहीं होता में सुप्री जिंदगी से समझौते करके जीने वाली लड़की भी अगर है, तो उसकी मजबूरियों का ठीकरा उसके लाचार माँ-बाप के सर फूटता है, ना कि उसकी अपनी कमजोरियों के. नायक के साथ रात बिताने की खुमारी में केमिस्ट के सामने ही गर्भ-निरोधक गोली गटकती है, और इशारे से ‘अब ठीक है भी बता देती है. एक तरफ नायक को जहां दर्द का एहसास ही नहीं होता, खलनायक जैसे हर बात-हर ज़ज्बात का जश्न मनाने की जिम्मेदारी खुद उठा लेता है. जिम्मी की सनक रह रह के आपको गुदगुदाती है. दिन में तीन से ज्यादा बार सिगरेट मांगने पर अपने ही गुंडे को थप्पड़ मारने की हिदायत हो, क्लाइमेक्स में नायक और गुंडों के बीच कराटे टूर्नामेंट कराने की शर्त, या फिर अपने ही भाई को हर वक़्त मारने-पीटने-धमकाने कि आदत; जिम्मी आपको डराता कम है, हंसाता ज्यादा. और फिर, वो एक बूढ़ा स्टोर मैनेजर, जो बिना फॉर्म भरे बंदूकें देने से साफ़ इंकार कर देता है, जबकि लड़ाई में उसके अपने लोग ही हार रहे हों.

‘मर्द को दर्द नहीं होता बड़ी ख़ूबसूरती से गीत-संगीत को दृश्यों में पिरोना जानती है. किशोर कुमार का ‘नखरेवाली रेडियो पर बज रहा है, जब नायिका पहली बार स्क्रीन पर गुंडों को पटखनी देते हुए दिखाई देती है. फ्लैशबैक में साउथ इंडियन जुड़वाँ भाइयों, जिम्मी और कराटे मैन मणि की कहानी कहते हुए गायक सुरेश त्रिवेणी एसपी बालासुब्रमणियम की आवाज़ धर लेते हैं. कुछ ऐसी ही ख़ूबसूरती फिल्म के एक्शन दृश्यों में झलकती है. कराटे फाइटिंग हिंदी फिल्मों में तो कम ही इस्तेमाल हुई है, मगर ‘मर्द को दर्द नहीं होता का ज्यादातर एक्शन आपको ब्रूस ली की फिल्मों की याद ज़रूर दिला देगा. इन दृश्यों में परदे पर नायक को दर्द का एहसास भले ही न हो, आपको मनोरंजन का एहसास हर पल होता रहता है.

अभिमन्यू के स्टार-किड का चोगा न पहनने का फैसला फिल्म और अभिमन्यू दोनों के लिए सही साबित होता है. आप उनसे उम्मीद कम रखते हैं, और वो आपकी उम्मीद से थोड़ा ज्यादा ही देकर जाते हैं. फिल्म का बहुत सारा हिस्सा उनकी आवाज़ में अपनी कहानी बयान करता है, उस लिहाज़ से अभिमन्यू थोड़ा निराश करते हैं. उनकी आवाज़ थोड़ी बचकाना लगती है. राधिका कमाल हैं. परदे पर बिजली की ही तरह कौंधती फिरती हैं. माँ के साथ अपनी कमजोरियों, अपनी बेचारगी, अपने हालातों का जिक्र करते हुए दृश्य में बेहतरीन हैं, और सरल-सहज भी. महेश मांजरेकर बखूबी अपने किरदार को मजेदार बनाए रखते हैं. इन सबके होते हुए भी, गुलशन देवैय्या बड़े अंतर से बाज़ी मार ले जाते हैं. जहां एक तरफ, एक पैर वाले मणि के किरदार में उनकी शारीरिक मेहनत, लगन और जोश आपको अभिनेता के तौर पर उनकी क़ाबलियत कम आंकने में गलत साबित करते हैं, वही जिम्मी के मजेदार सनकीपन को उभारने में भी गुलशन उतनी ही शिद्दत से पेश आते हैं. बेशक, ये साल की सबसे मजेदार परफॉरमेंस है.

अंत में; ‘मर्द को दर्द नहीं होता विशुद्ध रूप से एक बेहद मनोरंजक फिल्म है, जो बॉलीवुड के ‘फ़ॉर्मूला एंटरटेनमेंट वाले खाने को ‘टिक मार्क करते हुए भी बहुत कुछ अलग, बहुत कुछ नया और बहुत कुछ मजेदार कर गुजरती है. फिल्म अपने आप में एक खास तरीके के सिनेमा का जश्न भी है. देखने जाईये, तो एक सिनेमाप्रेमी के तौर पर आंकिये अपने आपको कि आखिर फिल्म में और दूसरी फिल्मों के कितने सन्दर्भों को आप पहचानने में कामयाब रहे? [4/5]  

Friday, 15 March 2019

फ़ोटोग्राफ : उदासी, ख़ामोशी, खालीपन...और मुंबई! (4/5)

उदासी का रिश्ता अलग ही होता है. मुंबई जैसे भीड़ भरे शहर में भी, जहां वक़्त को भी ठहरने का वक़्त नहीं, दो एकदम अनजान उदास लोग एक-दूसरे को जानने-समझने लगे हैं. दोनों की दुनिया ही पूरी तरह अलग है, मगर खालीपन का एक कमरा दोनों ही के हिस्से बराबर आया है. दोनों अपने-अपने बंद कमरों से निकलने को छटपटा रहे हैं. हालाँकि ये छटपटाहट महसूस करने के लिए आपको उनकी लील लेने वाली ख़ामोशी में गहरे उतरने का हौसला और हुनर, दोनों साथ रखना पड़ेगा. अपनी पहली फिल्म ‘द लंचबॉक्स में इंसानी ज़ज्बातों की कुछ ऐसी ही उथलपुथल रितेश बत्रा पहले भी दिखा चुके हैं. उन्हें आता है, ढर्रों पर भागते अनजान किरदारों को धकेल-धकेल कर एक दूसरे के करीब ले आना, उन्हें भाता है. ‘फ़ोटोग्राफ’ का ज़ायका भी कमोबेश वैसा ही है.

मिलोनी (सान्या मल्होत्रा) टॉपर है. उसे चार्टर्ड अकाउंटेंट बनाने के लिए पूरी फैमिली नज़र गड़ाये बैठी है. ऐसी लड़कियों की तस्वीरें अक्सर पासपोर्ट साइज़ की ही बन के रह जाती हैं, कभी किसी फॉर्म पे, कभी किसी आई कार्ड पे और ज्यादा हुआ तो किसी ‘अनुपम सर की कोचिंग क्लास’ के बिलबोर्ड पे. ऐसे में, एक दिन गेटवे ऑफ़ इंडिया पर टहलते हुए मिलोनी पासपोर्ट साइज़ के फोटो से निकल कर पोस्टकार्ड साइज़ में छप जाती है. कैमरे की मेहरबानी कहिये या फोटोग्राफर की वो ‘एक पैसा मुस्कुराईये’ वाली रटी-रटाई गुज़ारिश; मिलोनी को फोटो में अपनी ही शकल अनजान लगने लगती है, पहले से थोड़ी ज्यादा खुश, पहले से थोड़ी ज्यादा ख़ूबसूरत.

रफ़ी (नवाज़ुद्दीन सिद्दिकी) जैसे तमाम फोटोग्राफर आपको गेटवे ऑफ़ इंडिया पर ’पचास (रूपये) में, गेटवे के साथ ताज़ (होटल)’ बेचते नज़र आ जायेंगे, शायद ही आप उनमें से किसी एक के साथ उनके घर तक लौटते हों. रितेश हमें ले जाते हैं, उस एक तंग कमरे में जहां हर कोई अपनी-अपनी आपबीती खुल के बयाँ कर रहा है, यहाँ तक कि कमरे का पंखा भी. रफ़ी को वसीयत में बाप का क़र्ज़ और एक बेबाक बोलने वाली दादी (फारुख जफ़र) नसीब हुई हैं, जिनकी जिद रफ़ी के निकाह पर आ कर बंद घड़ी की सुई जैसे टिक गयी है. टालने के लिए रफ़ी ने शाम की खिंची तस्वीर दादी को पोस्ट कर दी है. मिलोनी अब रफ़ी की ‘नूरी बन गयी है.

‘फ़ोटोग्राफ’ में मुंबई शहर फिल्म का एक अलग से किरदार बन कर सामने आता है, चाहे वो इंसानी शक्ल में घर की नौकरानी (गीतांजलि कुलकर्णी) हो, जिसे चौपाटी पर लिपस्टिक लगाए, बैग लटकाए घूमते देख आप मुश्किल से पहचान पायेंगे या फिर इमारती तौर पर रफ़ी का वो कमरा, जहां चार-चार लोग एक साथ करवट बदल रहे हैं. ‘फ़ोटोग्राफ’ के मिलोनी और रफ़ी ‘द लंचबॉक्स’ के इला और साजन फ़र्नान्डिस से परे नहीं हैं. दोनों की जिंदगियों के टुकड़े मिले-जुले तो हैं, पर जिनके एक होने की उम्मीदें कम ही हैं. मिलोनी बचपन के ‘कैम्पा कोला से बंधी हुई है, तो रफ़ी महीने के आखिर में ‘कुल्फी खाने की आदत के साथ अपने अब्बू की यादों से जुड़ा हुआ. बेहतर है कि दोनों को करीब लाने में बत्रा ज़ज्बातों को कोई नाम देने की जल्दबाजी नहीं दिखाते.

उदासी, बेबसी और नाउम्मीदी भले ही हवा में सीलन की तरह पसरी हो, पर बत्रा उस माहौल में भी हंसी के पल ढूंढ ही लेते हैं. एक ऐसी हंसी जो देर तक कचोटती भी है. मौत जैसे गंभीर मामलों वाले दृश्यों में खास तौर पर. रफ़ी के कमरे में किसी ने कभी ख़ुदकुशी कर ली थी, और उसका एहसास कमरे में रहने वाले को तब हुआ था, जब लाश के बोझ से पंखे ने घूमना बंद कर दिया था और कमरे में गर्मी बढ़ गयी थी. पंखा आज भी घिघिया रहा है. रफ़ी ने अपने माँ-बाप को बचपन में ही खो दिया था, दादी से नूरी बनकर मिलते वक़्त, मिलोनी अपने परिवार को भी मस्जिद की दीवार के तले दबा कर मार देती है. उनके दर्द में साझा होने की गरज़ से.

अदाकारी में, नवाज़ जहाँ अपनी जानी-पहचानी दुनिया में पूरे दमखम के साथ लौटते नज़र आते हैं, सान्या अपने अब तक के निभाए सबसे मुश्किल किरदार में पाँव धरती हैं. मिलोनी बेहद कम बोलती है. उसकी ख़ामोशी उससे कहीं ज्यादा बातें करती है. उसकी ज्यादातर जिंदगी उसके परिवार की चुनी हुई है. रफ़ी के साथ बिताये वक़्त ही उसके अपने हैं. ऐसे किरदार में सान्या पूरी शिद्दत से रच-बस जाती हैं. फारुख जफ़र अपनी बेबाक बकबक से गुदगुदाती रहती हैं. उनके उलाहने, उनकी कहानियाँ, अपने पोते रफ़ी को लेकर उनकी शिकायतें सब इतनी ईमानदार हैं कि आपको उनके अदाकारा होने का भरम भी नहीं होता. गीतांजलि कुलकर्णी भी कुछ इतनी ही जबरदस्त हैं. एक नौकरानी के किरदार में, जहाँ कहने-सुनने से ज्यादा फ्रेम में आने-जाने भर का ही स्कोप रह जाता हो, वहाँ भी और गिनती के उन दो-तीन दृश्यों में भी, गीतांजलि अकेली ही मुझे फिल्म दोबारा देखने को उत्साहित करती हैं. उनके हाव-भाव मुझे घंटों बाद भी याद हैं.

आखिर में, ‘फ़ोटोग्राफ एक ऐसी फिल्म है जो आसान नहीं है. घंटों बाद भुलानी भी, और अपने दो घंटे के कम वक़्त में बिना विचलित हुए देखनी भी. फिल्म जहाँ कुछ दृश्यों में अपने आपको दोहराने की गुनाहगार समझी जा सकती है, वहीँ अपनी धीमी रफ़्तार की वजह से लम्बी होने का एहसास भी करा जाती है. बावजूद इसके, आखिर कितनी बार आप इंसानी ज़ज्बातों का कोई ऐसा ताना-बाना देख पाते हैं, जहाँ रिश्तों में ईमानदारी इस हद तक हो कि उसे नाम देने की जरूरत ही न पड़े! [4/5]

Friday, 1 March 2019

सोनचिड़िया : मुक्ति के प्यासे, बीहड़ के पंछी! (3.5/5)


बीहड़ के बाग़ियों की सारी लड़ाईयां सरकारी फौज़ और जातियों में बंटे अलग-अलग गैंगों तक ही सीमित नहीं है. कुछ मुठभेड़ अंदरूनी भी हैं. खुद से खुद की लड़ाई. जिन बाग़ियों की बन्दूक दूसरी बार सवाल पूछने पर गोलियों से जवाब देना पसंद करती है, अब बार-बार खुद ही सवाल पूछने लगी है. ‘बाग़ी का धर्म क्या है?’. जवाब भी सबके अपने अपने हैं, कुछ अभी भी तलाश रहे हैं. आम तौर पर हिंदी फिल्मों में चम्बल के डाकू या तो खूंखार लुटेरे होते हैं, या सामाजिक अन्याय और सरकारी दमन से पीड़ित कमज़ोर नायकों के विरोध का प्रखर स्वर बनने की एक प्रयोगशाला. ‘बैंडिट क्वीन और ‘पान सिंह तोमर इसी खांचे-सांचे की फिल्में होते हुए भी उत्कृष्ट अपवाद हैं. अभिषेक चौबे की ‘सोनचिड़िया थोड़ी और गहरे उतरती है. ज़मीनी किरदारों के ज़ेहन तक पैठ बनाने वाली, बदले-छलावे, न्याय-अन्याय, सही-गलत, जाति-पांति और आदमी-औरत के भेदों के साथ-साथ मोक्ष, मुक्ति और पछतावे का पीछा करती फिल्म. 1972 में आई प्रकाश मेहरा की फिल्म ‘समाधि’ के पहले हिस्से जैसा कुछ.

मान सिंह (मनोज बाजपेई) के कंधे झुकने लगे हैं. बढ़ती उम्र की वजह से नहीं, कंधे पर हर वक़्त टंगी दोनाली की वजह से नहीं, बल्कि कुछ है जो अतीत से बार बार बाहर निकल कर दबोच लेता है. गैंग के एक दूसरे नौजवान सदस्य लाखन सिंह (सुशांत सिंह राजपूत) को भी उस 5 साल की लड़की की चीख आज भी डराती रहती है, जो मान सिंह और लाखन के कुकर्मों की इकलौती चश्मदीद रही थी. दोनों अब मोक्ष और मुक्ति की तलाश में हैं, और दारोगा गुर्जर (आशुतोष राणा) इन्हें मौत तक पहुंचाने के फ़िराक में. गैंग धीरे-धीरे ख़तम हो रहा है. रेडियो पर इंदिरा गांधी के आपातकाल की घोषणा हो चुकी है. साथियों में ‘सरेंडर’ की भी सुगबुगाहट चल रही है. एक बाग़ी की चिंता है कि सरेंडर के बाद जेल में ‘मटन’ मिलेगा या नहीं? ऐसे में, इंदुमती तोमर (भूमि पेडणेकर) और आ टकराती है अपनी ‘सोनचिरैय्या को साथ लिए. साथी बाग़ी वकील सिंह (रनवीर शौरी) की मर्ज़ी के खिलाफ, लाखन के लिए यही सोनचिरैय्या (यौनशोषण की शिकार एक बच्ची) उसके अतीत के दाग को पश्चाताप की आग में तपाने का जरिया दिखने लगती है.

‘सोनचिड़िया में अभिषेक चौबे चम्बल को दिखाने के लिए जिस चश्मे का इस्तेमाल करते हैं, वो बेहद जाना-पहचाना है. शेखर कपूर वाला. हालाँकि अपने कथानक में वो जिस तरह डार्कनेस ले आते हैं, और रूखे-रूखे व्यंगों का प्रयोग करते हैं, वो उनका अपना ही ट्रेडमार्क है. फिल्म की शुरुआत आपको अंत का आभास कराती है. एक ऐसी शुरुआत जहां सब कुछ ख़तम हो रहा है. मानसिंह का गैंग अपना अच्छा खासा नाम कमा चुका है. खौफ़ के लिए उसे सिर्फ लाउडस्पीकर पर मुनादी ही करनी पड़ती है, गोलियों की बौछार नहीं. शादी लूटने पहुंचे डाकू दुल्हन को 101 रूपये का शगुन दे रहे हैं. नए हथियारों की जरूरत तो है, पर गैंग के पास पैसे ही नहीं हैं. गोली लगती है, तो मानसिंह हँसता है, “सरकार की गोली से कबहूँ कोऊ मरे है? अरे इनके तो वादन से मर जात है लोग.’. दारोगा गुर्जर जाति का है, और उसके नीचे काम करने वाले चाचा-भतीजा ठाकुर जाति के. चाचा (हरीश खन्ना) की समझ पुख्ता है. वर्दी से बड़ी है चमड़ी. चमड़ी पे कोई स्टार नहीं लगे होते, जैसी जिसको मिल गयी, मिल गयी. एक दृश्य में एक महिला बाग़ी का दर्द सामने निकल रहा है. ‘ठाकुर, बाभन मर्दों में होते हैं, औरतों की जात अलग ही होती है’. झूठ नहीं है, तभी तो 12-14 साल का बेटा बंदूक टाँगे माँ को खोज कर मारने के लिए डकैतों के बीच घूम रहा है. खुद में बाप से ज्यादा मर्दानगी महसूस करता है.

‘सोनचिड़िया एक डकैतों की फिल्म लगने के तौर पर आम दर्शकों में जितनी भी उम्मीदें जगाती है, सब पर तो खरी नहीं उतरती. मसलन, फिल्म का एक्शन मसालेदार होने का बिलकुल दावा नहीं करता, हालाँकि सच्चाई से दूर भी नहीं जाता. हट्टे-कट्टे 6 फुटिया पहलवान को दबोचने में 3-3 डाकू हांफने लगते हैं. फिल्म की रफ़्तार धीमी लगती है. गीत-संगीत भी किरदारों के मूड से ज्यादा बीहड़ की बड़ाई में रचे-बसे हैं. इतने सब के बावजूद, सिनेमा की नज़र से फिल्म किसी मास्टरक्लास से कम नहीं. स्क्रीनप्ले में अभिषेक की बारीकियां, खालिस बुन्देलखंडी बोली के संवाद, बेहतरीन कैमरावर्क और कलाकारों का शानदार अभिनय; ‘सोनचिड़िया डकैतों की फिल्म होने से कहीं ज्यादा कुछ है. मनोज बाजपेई कमाल हैं. ढलती उम्र को जिस तरह मनोज अपने किरदार में ढाल कर पेश करते हैं, आप उन्हें खलनायक से अलग, इंसानी तौर पर देखने से नहीं रोक पाते. सुशांत बिलकुल घुलमिल जाते हैं. उनकी पहली फिल्म होती तो शायद आप उन्हें ‘एनएसडी के लौंडों’ से अलग नहीं समझते! रनवीर शौरी फिर एक बार जता जाते हैं कि बॉलीवुड उन्हें कितना कमतर आंकता है? आशुतोष राणा अपने पुराने अवतार में हैं. उनकी कन्चई आँखें अब भी अपनी कुटिलता से आपके अन्दर सिहरन पैदा करने में कामयाब रहती हैं, इतने सालों बाद भी. भूमि गिनती के दृश्यों में ही आगे आती हैं, और उनमें सटीक हैं.  

आखिर में, ‘सोनचिड़िया चम्बल की घाटियों और रेतीली पहाड़ियों में आम से दिखने वाले डकैतों का एक नया सच है, जहां सब अपनी अपनी मुक्ति का मार्ग ढूंढ रहे हैं. जाति, धर्म, समाज और सरकार से लड़ते-लड़ते एक बड़े अंत की तलाश में भटकते कुछ ऐसे बाग़ी, जिनकी जिंदगियों के मायने और मकसद एक बड़ा मतलब लिए हुए हैं. [3.5/5]