फ़िल्मकार के तौर पर, सिनेमा आपको एक
ख़ास सहूलियत देता है, अपनी अलग ही एक दुनिया रचने की. ऐसी
दुनिया, जिसे या तो अब तक आप जीते आये हैं, या जिसे जीने के
ख्वाब आपकी आँखों में चमक ला देते हैं. अब ये खालिस आप पर निर्भर करता है कि समाज
के पैरोकार बनकर आप लोगों को सच्चाई की काली कोठरी में, उन्हें उनके अपने ही दर्द-ओ-ग़म
से रूबरू कराना चाहते हैं, या मनोरंजन की परवाह करते हुए, एक
ऐसी ज़मीन तैयार करते हैं, जहां सब कुछ रंगीन है, मनभावन है, और
अतरंगी भी. ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ इस लिहाज़ थोड़ी और अनूठी
है, क्योंकि लेखक-निर्देशक वासन बाला की इस अतरंगी दुनिया के
तमाम साज़ो-सामान, तकरीबन सारी की सारी सजावट और किरदार हिंदी सिनेमा के उस दौर का
जश्न मनाते हैं, जब मनोरंजन को लॉजिक नाम वाली लाठी के सहारे की ज़रुरत नहीं पड़ती
थी.
नायक सूर्या (अभिमन्यु दासानी) को
अज़ीब-ओ-ग़रीब बीमारी है. उसे दर्द महसूस नहीं होता. किसी भी तरह का. हालाँकि बचपन
में ही चेन-स्नैचिंग के एक हादसे में अपनी माँ को खोने के बाद उसने दुनिया से चेन-चोरों
का नामोनिशान मिटाने की कसम ज़रूर खा रखी है, पर सिर्फ अपनी
जिंदगी को एक मकसद देने की गरज़ से. माँ के जाने का दुःख-दर्द भी उसके सपाट चेहरे
पर गिरते ही फिसल जाते हैं. पिता (जिमित त्रिवेदी) दूसरी शादी कर रहे हैं, पर सूर्या
को पता ही नहीं कि शायद उसे गुस्सा होना चाहिए. सूर्या को अगर कोई खतरा है, तो वो है डिहाइड्रेशन. वीएचएस पर ब्रूस ली की फिल्में दिखा-दिखा कर उसके नाना
(महेश मांजरेकर) ने उसे एक पैर वाले कराटे मैन मणि (गुलशन देवैय्या) जैसा लड़ाका बना
दिया है, और अब उसी कराटे मैन को उसी के सनकी जुड़वे भाई
जिम्मी (गुलशन देवैय्या) से बचाने की लड़ाई में सूर्या को सुप्री (राधिका मदान) मिल
गयी है, उसके बचपन का बिछड़ा हुआ प्यार.
जिस तरह कहानी लिखने और उसके
फिल्मांकन में वासन फिल्मों से जुड़े ढेर सारे सन्दर्भों का हवाला पेश करते हैं, कोई घोर-सिनेमाप्रेमी ही कर सकता है. सूर्या की पैदाइश के वक़्त माँ
सिनेमाहॉल में बैठी ‘आज का गुंडाराज’ देख रही है. माँ की मौत
का बदला लेना ही बेटे का मकसद बन जाता है, और ‘पाप को जला कर राख कर दूंगा’ उसका मूलमंत्र. सूर्या का वीडियो कैसेट्स पर फिल्में देखना, ब्रूस ली की
तर्ज़ पर उसका ट्रैकसूट, बात-बात में फिल्मों का ज़िक्र; सब कुछ आपको उस दौर की याद
दिलाता रहता है, जब हम में से ज्यादातर उम्र के उस पड़ाव पर
थे, जहां सिनेमा को अच्छे-बुरे की नज़र से तौलने के बजाय, मनोरंजन
की चाशनी पर ध्यान ज्यादा रहता था.
किरदारों को मजेदार बनाने में बाला
कोई कसर नहीं छोड़ते. आम तौर पर नायक-खलनायक के बीच नायिका अक्सर अपने होने के
बहाने ढूंढती नज़र आती है, पर ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ में सुप्री जिंदगी से समझौते करके जीने वाली लड़की भी अगर है, तो उसकी मजबूरियों का ठीकरा उसके लाचार माँ-बाप के सर फूटता है, ना कि
उसकी अपनी कमजोरियों के. नायक के साथ रात बिताने की खुमारी में केमिस्ट के सामने
ही गर्भ-निरोधक गोली गटकती है, और इशारे से ‘अब ठीक है’ भी बता देती है. एक तरफ नायक को जहां दर्द का एहसास ही नहीं होता, खलनायक जैसे हर बात-हर ज़ज्बात का जश्न मनाने की जिम्मेदारी खुद उठा लेता
है. जिम्मी की सनक रह रह के आपको गुदगुदाती है. दिन में तीन से ज्यादा बार सिगरेट
मांगने पर अपने ही गुंडे को थप्पड़ मारने की हिदायत हो, क्लाइमेक्स
में नायक और गुंडों के बीच कराटे टूर्नामेंट कराने की शर्त,
या फिर अपने ही भाई को हर वक़्त मारने-पीटने-धमकाने कि आदत;
जिम्मी आपको डराता कम है, हंसाता ज्यादा. और फिर, वो एक बूढ़ा स्टोर मैनेजर, जो बिना फॉर्म भरे बंदूकें देने से साफ़ इंकार
कर देता है, जबकि लड़ाई में उसके अपने लोग ही हार रहे हों.
‘मर्द को दर्द नहीं होता’ बड़ी ख़ूबसूरती से गीत-संगीत को दृश्यों में पिरोना जानती है. किशोर कुमार
का ‘नखरेवाली’ रेडियो पर बज रहा है, जब
नायिका पहली बार स्क्रीन पर गुंडों को पटखनी देते हुए दिखाई देती है. फ्लैशबैक में
साउथ इंडियन जुड़वाँ भाइयों, जिम्मी और कराटे मैन मणि की कहानी कहते हुए गायक सुरेश
त्रिवेणी एसपी बालासुब्रमणियम की आवाज़ धर लेते हैं. कुछ ऐसी ही ख़ूबसूरती फिल्म के एक्शन
दृश्यों में झलकती है. कराटे फाइटिंग हिंदी फिल्मों में तो कम ही इस्तेमाल हुई है, मगर ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ का ज्यादातर एक्शन
आपको ब्रूस ली की फिल्मों की याद ज़रूर दिला देगा. इन दृश्यों में परदे पर नायक को
दर्द का एहसास भले ही न हो, आपको मनोरंजन का एहसास हर पल
होता रहता है.
अभिमन्यू के स्टार-किड का चोगा न
पहनने का फैसला फिल्म और अभिमन्यू दोनों के लिए सही साबित होता है. आप उनसे उम्मीद
कम रखते हैं, और वो आपकी उम्मीद से थोड़ा ज्यादा ही देकर जाते
हैं. फिल्म का बहुत सारा हिस्सा उनकी आवाज़ में अपनी कहानी बयान करता है, उस लिहाज़
से अभिमन्यू थोड़ा निराश करते हैं. उनकी आवाज़ थोड़ी बचकाना लगती है. राधिका कमाल
हैं. परदे पर बिजली की ही तरह कौंधती फिरती हैं. माँ के साथ अपनी कमजोरियों, अपनी
बेचारगी, अपने हालातों का जिक्र करते हुए दृश्य में बेहतरीन हैं, और सरल-सहज भी.
महेश मांजरेकर बखूबी अपने किरदार को मजेदार बनाए रखते हैं. इन सबके होते हुए भी, गुलशन देवैय्या बड़े अंतर से बाज़ी मार ले जाते हैं. जहां एक तरफ, एक पैर वाले
मणि के किरदार में उनकी शारीरिक मेहनत, लगन और जोश आपको अभिनेता के तौर पर उनकी
क़ाबलियत कम आंकने में गलत साबित करते हैं, वही जिम्मी के मजेदार
सनकीपन को उभारने में भी गुलशन उतनी ही शिद्दत से पेश आते हैं. बेशक, ये साल की सबसे मजेदार परफॉरमेंस है.
अंत में; ‘मर्द
को दर्द नहीं होता’ विशुद्ध रूप से एक बेहद मनोरंजक फिल्म है, जो बॉलीवुड के ‘फ़ॉर्मूला एंटरटेनमेंट’ वाले खाने को
‘टिक’ मार्क करते हुए भी बहुत कुछ अलग, बहुत कुछ नया और बहुत
कुछ मजेदार कर गुजरती है. फिल्म अपने आप में एक खास तरीके के सिनेमा का जश्न भी है.
देखने जाईये, तो एक सिनेमाप्रेमी के तौर पर आंकिये अपने आपको
कि आखिर फिल्म में और दूसरी फिल्मों के कितने सन्दर्भों को आप पहचानने में कामयाब
रहे? [4/5]