गौरी शिंदे की ‘डियर जिंदगी’
देखने के लिए आपको एक ख़ास तरह का चश्मा चाहिए होगा. वो चश्मा जिसके भीतर से आप देख
पाएं कि कैसे एक सुपरस्टार अपने स्टारडम का बोझ धीरे-धीरे ही सही, अपने मज़बूत कन्धों
से उतारने की कोशिश तो कर रहा है. हालाँकि कई बार आपको ये कोशिश जबरदस्ती की लगेगी,
और कई बार बहुत बनावटी, फिर भी. तकरीबन तीन दशकों के अपने पूरे फ़िल्मी कैरियर में शाहरुख़
इस तरह की बेहद जरूरी कोशिश सिर्फ गिनती के कुछ वक़्त ही (स्वदेश और चक
दे! इंडिया) करते नज़र आते हैं, इसीलिए इसके मायने और भी बढ़ जाते हैं. फिल्म
में उनका किरदार एक जगह कहता भी है, “ज़िन्दगी में जब भी पैटर्न और आदतें बनती
दिखाई दें, जीनियस वही है जिसे पता हो कि कब और कहाँ रुकना है?” इस फिल्म से
शायद शाहरुख़ भी यही सीख रहे हैं.
...और इसी करामाती चश्मे
से शायद आप ये भी देख पाएं कि एक ‘मेनस्ट्रीम’ हिंदी फिल्म होते हुए भी, अपनी
कहानी और कहानी कहने की शैली की वजह से कैसे ‘डियर जिंदगी’ कमोबेश एक
प्रयोगधर्मी ‘इंडी’ फिल्म का चोला ओढ़ने में कहीं कोई शर्मिंदगी नहीं दिखाती.
ज़िन्दगी की मुश्किलों को आसान बनाने के रास्ते सुझाती, ये फिल्म भले ही किसी बड़ी सर्जरी
की तरह हिंदी सिनेमा की सारी तकलीफें एक झटके में दूर न कर पाती हो, पर एक सुकून
भरा ‘सेशन’ तो है ही, जिसका असर आने वाले वक़्त में बिलकुल दिखाई देगा.
रिश्ते बनाने-निभाने में
काईरा (आलिया भट्ट) थोड़ी कच्ची है. ‘बाय’ बोलने की जैसे उसको जल्दी रहती
है. दूसरा कोई बोले, दर्द हो, दुःख पहुंचे, इससे पहले खुद ही बोल दो. जाने कैसे-कैसे डर पाले
बैठी रहती है, बिलकुल हम सबकी तरह. रोने का मन हो तो हरी मिर्ची चबा कर कहती है, “मिर्ची
की वजह से हो रहा है ये”. सिड (अंगद बेदी) के बाद रघुवेंद्र (कुनाल
कपूर) भी उसकी जिंदगी से जाता दिख रहा है. डिप्रेशन का दौर है ये. गोलियां खाने
के बाद भी काईरा को नींद नहीं आती. दिमाग के डॉक्टर, जहांगीर खान (शाहरुख खान)
के सामने बैठी है, पर अपनी तकलीफ़, अपना डर सब कुछ अपना न कह कर, अपनी दोस्त के नाम
पर धड़ल्ले से बताती जा रही है. आखिर, ऐसे डॉक्टर के पास जाने वाले को ‘लोग’ पागल जो
समझते हैं.
खैर, डॉक्टर खान को मर्ज़
जानने में कोई मुश्किल नहीं होती. उन्हें बस उस ज्वालामुखी को कुरेदना है, जहां सब
कुछ धधकते लावे की शक्ल में जमा होता जा रहा है. हालाँकि वो खुद डाइवोर्स जैसे अँधेरे
रास्ते से गुजर चुके हैं, और कहते हुए झिझकते नहीं कि वो अपने बेटे को अच्छी यादें
देना चाहते हैं, ताकि उसके पास अपने ‘थेरेपिस्ट’ को बताने के लिए कुछ तो हो.
सच कहिये तो ऐसे ‘थेरेपिस्ट’ के पास जाने की जरूरत हम सबको है, जिनके फ़ोन
कॉल्स अपने माँ-बाप के लिए कभी दो-चार मिनट से ज्यादा लम्बे नहीं होते.
‘डियर ज़िन्दगी’
अपने छोटे-छोटे, हलके-फुल्के पलों में बड़े-बड़े फलसफों वाली बातें कहने का जोखिम बखूबी
और बेख़ौफ़ उठाती है. डॉक्टर खान जब भी रिश्तों को लेकर ज़िन्दगी का एक नया पहलू काईरा
को समझा रहे होते हैं, उनकी इस भूमिका में शाहरुख़ जैसे बड़े कलाकार का होना
अपनी अहमियत साफ़ जता जाता है. ये चेहरा जाना-पहचाना है. बीसियों साल से परदे पर प्यार,
दोस्ती और ज़िन्दगी की बातें करता आ रहा है, पर इस बार उसकी बातों की दलील पहले से
कहीं ज्यादा गहरी है, मजबूत है, कारगर है. आलिया जिस तरह भरभरा कर टूटती
हैं परदे पर, हिंदी सिनेमा में अपने साथ के तमाम कलाकारों को धकियाते हुए एकदम आगे
निकल जाती हैं. फिल्म की खासियतों में से एक ये भी है कि शाहरुख़ जैसा दमदार
स्टार होते हुए भी कैमरा और कहानी दोनों आलिया के किरदार से कभी दूर हटते
दिखाई नहीं देते.
गिनती के दो-चार बेहद आम
दृश्यों को छोड़ दें, खासकर काईरा का ‘फॅमिली अफेयर’ जहां फिल्म की कहानी दूसरे
हिस्सों के मुकाबले काफी बेअसर और लचर दिखाई पड़ती है, तो ‘डियर जिंदगी’
एक बहुत ही सुलझी हुई फिल्म है. जितना बोलती है, उतना ही कहती भी है, पूरी तरह
नाप-तौल कर, पूरी तरह सोच-समझ कर! [3.5/5]