ऐसे मुश्किल वक़्त में, जब हमारा समाज महिलाओं के सम्मान, उनके अधिकारों और उनके साथ होने वाले अपराधों के प्रति संवेदनशील होने की हर शर्त नज़रंदाज़ करता जा रहा है; मुझे समझ नहीं आता, संजय लीला भंसाली जैसे जज़्बाती और काबिल फ़िल्मकार को परदे पर 'पद्मावत' कहने की क्या सूझी? हालाँकि मैं देश की संस्कृति और इतिहास से जुड़े महाकाव्यों और लोकगाथाओं को सिनेमाई चोगा पहनाने के खिलाफ नहीं हूँ, और विषय चुनने की स्वतंत्रता को भी फ़िल्मकार का कलात्मक अधिकार समझता हूँ, मानता हूँ; फिर भी भंसाली जैसे फ़िल्मकार से इतनी तो उम्मीद की ही जा सकती थी. 'पद्मावत' राजपूतों की आन-बान और शान के भव्य कशीदों के बीच फँसी एक ऐसी दकियानूसी, गर्वीली और ठेठ पुरुष मानसिकता का 'पैम्फलेट' है, जिसे कोरा इतिहास मान कर देखना, सराहना और उसका जश्न मनाना किसी दुरुस्त दिमाग या दिल के लिए आसान नहीं होगा. राजपूताना शौर्य की नायिका को जौहर के लिए पति से अनुमति मांगते देखना ह्रदय-विदारक नहीं है, तो क्या है?
भंसाली की 'पद्मावत', मलिक मोहम्मद जायसी के इसी नाम वाले महाकाव्य को अपनी बुनियाद बनाकर इतनी भव्यता से परदे पर परोसती है, कि लोकगाथा जैसी लगने वाली कमज़ोर कहानी उसके नीचे कई बार दम तोड़ती नज़र आती है. मेवाड़ के राजपूत राजा रतन सिंह (शाहिद कपूर) अपनी पहली पत्नी की जिद पूरी करने के लिए, अनूठे मोतियों की खोज में सिंहल (अब श्रीलंका) तक चले आये हैं. वापस लौट रहे हैं, तो साथ हैं सिंहल की राजकुमारी पद्मावती (दीपिका पादुकोण). पद्मावती का रूप इतना बाकमाल कि दिल्ली सल्तनत का खूंखार सुल्तान खिलजी (रणवीर सिंह) उन्हें देखने की गरज से, महीनों तक अपने सैनिकों के साथ मेवाड़ के किले के सामने डेरा जमाये बैठा रहा. दिवाली मनाई, होली मनाई और पता नहीं क्या-क्या! युद्ध टालने के लिए रानी की झलक आईने में दिखा दी गयी है. खिलजी की भूख बढ़ती जा रही है. और कहानी धीरे-धीरे ही सही, खिलजी के षडयंत्रों और राजा रतन सिंह के तेवरों से होते हुए रानी पद्मावती के जौहर की तरफ.
फिल्म का लुक हो, लोकेशन, बड़े-बड़े सेट या किरदारों का पहनावा; भंसाली अपनी पैनी नज़र से दृश्यों की सजावट का ख़ासा ध्यान रखते हैं. 'पद्मावत' जैसी पीरियड फिल्म को इसकी दरकार भी थी, और फिल्म को भंसाली अपने इस पागलपन से नवाजते भी खूब हैं, पर कहीं न कहीं दृश्यों की बनावट, किरदारों के तेवर और फिल्म में इस्तेमाल गानों का फिल्मांकन भंसाली की पिछली फिल्म 'बाजीराव मस्तानी' से इस हद तक मेल खाता है कि भंसाली साब की रचनात्मकता को सराहने की ललक जाती रहती है. फिल्म में रानी पद्मावती का जौहर को जायज़ ठहराने और वीरता का प्रतीक बताने वाले दृश्य के बाद, संजय लीला भंसाली का अपने ही बनाये उम्मीदों के सिनेमा के खंडहर में खुद को दोहराते, ढहते, ढमिलाते देखना दूसरा सबसे दिल बैठा देने वाला वाकया है. और परेशान करने वाला भी.
अभिनय में 'पद्मावत' रणवीर सिंह के जुनूनी अदाकारी का जीता-जागता नमूना है. मांस के लोथड़े पर दांत गड़ाये, आँखों में धूर्तता और चालाकी की चमक जगाये और हाव-भाव में जिस तरह का पागलपन रणवीर लेकर आते हैं, बहुत अरसे बाद किसी हिंदी फिल्म के खलनायक में दिखे हैं. शाहिद थोड़े मिसफिट जरूर दिखते हैं, अपनी कद काठी की वजह से, पर अभिनय में कम ही निराश करते हैं. दीपिका परदे पर आग की तरह धधकती रहती हैं, और फिल्म के ज्यादातर दृश्यों को खूबसूरत बनाने में पूरा योगदान देती हैं. खिलजी के पुरुष-प्रेमी की भूमिका में जिम सरभ बोल-चाल के लहजे में कमज़ोर होने के बावजूद अच्छे लगते हैं. छोटी भूमिका में ही, अदिति राव हैदरी कहीं-कहीं दीपिका को भी पीछे छोड़ देती हैं.
आखिर में; 'पद्मावत' एक राजपूताना मोम के पुतलों के अजायबघर जैसा है. देखने में भव्य, सुन्दर और शानदार, पर उन्हें बिना हिलते-डुलते पौने तीन घंटे तक एकटक देखते रहने का दुस्साहस कौन कर पायेगा भला? वैसे भी, तमाम उल-जलूल के विवादों के बीच 'पद्मावत' अब एक फिल्म से कहीं ज्यादा संवैधानिक, राजनीतिक और सामाजिक सतहों पर चल रही गुंडई के प्रति अपना विरोध दर्ज का आन्दोलन बन गई है, तो विरोध का स्वर मुखर करने के लिए ही सही, एक बार देखी जा सकती है. राजपूत कहलाने में सीना चौड़ा होता हो, तब तो जरूर...! [2.5/5]