Friday 28 December 2018

सिम्बा: साल की सबसे वाहियात फिल्म! [0.5/5]


बहन का बलात्कार, माँ की इज्ज़त, बाप के दामन पर लगा बेईमानी और बदनामी का दाग; अस्सी और नब्बे के दशक में हिंदी सिनेमा के नायकों की एक पूरी खेप इस फ़ॉर्मूले की छत्र-छाया में पलती-बढ़ती आई है. ‘त्रिशूल और ‘दीवार के बच्चन जहाँ सिनेमा की मुख्यधारा में ‘गंगा जमुना सरस्वती तक, समीक्षकों से लेकर समर्थकों तक, सबके चहेते बने रहे, बाद के सालों में ‘आदमी और ‘फूल और अंगार’ जैसी फिल्मों के साथ मिथुन ने भी आम जनता में अपनी पैठ काफ़ी मज़बूत की. एक वक़्त तो ऐसा भी गुजरा है कि मिथुन की फिल्मों में बहन का होना ही फिल्म में कम से कम एक बलात्कार के सीन होने की गारंटी समझा जाने लगा था. खैर, कई सालों से रह रह कर ग़लतफ़हमी सी होने लगी थी कि हिंदी सिनेमा अपने उस बजबजाते हुए गंदे-बदबूदार दौर से बाहर निकल आया है, और अब उस तरफ लौटकर दोबारा देखने की हिमाकत भी शायद ही करेगा!

सर पीट लीजिये, क्यूंकि रोहित शेट्टी ने बड़ी बेहयाई से ये कारनामा कर दिखाया है. फ़ॉर्मूला फिल्मों के शहंशाह और नए दौर के ‘मनमोहन देसाई बनने की शेखी में शेट्टी 2018 में, जहां महिला-सशक्तिकरण के प्रचार-प्रसार के लिए सब ऐंड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं, बलात्कार जैसे गंभीर मुद्दे को न सिर्फ अपनी फिल्म के टुटपूंजिया नायक को ‘अच्छा साबित करने की कोशिश में खर्च कर देते हैं, बल्कि अपनी कमअक्ली और असंवेदनशील समझ के जरिये (बॉक्स-ऑफिस पर) धन-उगाही के लिए भी ख़ूब निचोड़ते हैं. हालाँकि शेट्टी से उम्मीदें किसी की भी कुछ ज्यादा यूं भी नहीं होती हैं, फिर भी अपने बेवजह के एक्शन और बेवकूफाना स्टंट्स के मायाजाल को छोड़ कर जिस बेशर्मी से वो बलात्कार पर समाज को नैतिक शिक्षा का सबक सिखाने निकल पड़ते हैं, ‘सूप और छलनी’ वाली कहावत याद आ जाती है. पिछली फिल्मों का संज्ञान न भी लें, तो रोहित शेट्टी अपनी इस फिल्म में भी महिलाओं के प्रति शर्मनाक रवैया ज़ाहिर करने से बाज़ नहीं आते, वरना बलात्कार की पीड़िता की हत्या का शोक मनाने बैठे लोगों के बीच नायक से ‘चार दृश्यों और इतने गानों की मेहमान’ नायिका को ‘एक अच्छी सी चाय पिला दो का आदेश दिलवाने का क्या तुक बैठता है? सिर्फ एक, या तो फिल्म के लेखक और निर्देशक हैं ही इतने कमअक्ल या फिर उनका फिल्म में इस्तेमाल ‘फेमिनिस्ट एप्रोच सिर्फ एक ढोंग है और कुछ नहीं?

संग्राम भालेराव (रणवीर सिंह) एक महा-भ्रष्ट पुलिसवाला है, जो पैसे के लिए ही इस महकमे में शामिल हुआ है. अपराधियों (सोनू सूद) के लिए ज़मीन खाली करवाने से लेकर उनके ड्रग्स के कारोबार में आँखें मूँद कर मदद करने तक, भालेराव पैसे के लिए किसी भी हद तक गिर सकता है. उसके सर पे बिजली तभी गिरती है, जब उसकी मुंहबोली बहन का बलात्कार उसके ही आकाओं द्वारा अंजाम दिया जाता है. रिश्वत को सही ठहराने की दलील में ‘कोई रेप थोड़े ही न किया है का दंभ भरने वाला अचानक ही अपने आसपास की औरतों से बलात्कारियों की संभावित सज़ा पर राय लेने उठ खड़ा होता है. साथ ही, गुंडों को ताबड़तोड़ पीटते हुए ‘वो मेरी बहन थी, वो मेरी बहन थी का मन्त्र भी जपने लगता है. अदालत में पैरवी करते वक़्त भी बलात्कार के भयावह आंकड़ों को पेश करते हुए उसकी मुट्ठियाँ तन जाती हैं, और आप बस यही सोचते रहते हैं कि अगर वो लड़की इस घटिया पुलिस वाले की बहन न होती तो इन आंकड़ों का आज कहाँ अचार बन रहा होता?

हिंदी सिनेमा का एक वर्ग है, जो अपनी सोच का दायरा जाने-अनजाने बढ़ाने से कतराता है. ‘सिम्बा में गिनती के एक या दो दृश्यों को छोड़ दें, तो पूरी फिल्म में कुछ भी ऐसा नहीं है जो आपने बीस-तीस साल पहले ही हिंदी फिल्मों में न देख लिया हो. ‘घटना के वक़्त तो मुलजिम शहर में ही नहीं था’ जैसी दलीलें सुनकर जब भालेराव अदालत में चौंकता है, तो मन करता है कि एक थप्पड़ लगाऊं और पूछूं कि फिर किस बात का बॉलीवुड फैन है, रे, तू?? ऊपर से संवाद भी इतने घिसे-पिटे कि आप खुद ब खुद किरदारों के साथ दोहराते जाएँ. ये वो फिल्म है, जहां लड़की गुंडों के अड्डे पर पहुँच जाती है, और पकड़े जाने पर ‘मैं अभी जाकर पुलिस को सब बता दूँगी अक्षरशः दोहरा देती है. ये वही वाली फिल्म है, जहां बलात्कारियों के इकबालिया बयान के लिए उन्हें बार-बार ‘नामर्द और ‘नपुंसक बोल बोल उकसाया जाता है. और यही वो वाली फिल्म भी है, जहां खलनायक अपने माँ, बीवी, बच्चों के सामने अपने धंधे की बात करने से झिझकता है. तो, अपनी अपनी याददाश्त के हिसाब से फिल्म का नाम चुनिए, और बैठ जाईये मेल कराने.

‘सिम्बा में, पुलिसवालों की बीवियां, बेटियाँ, बहुएं दोपहर के खाने के वक़्त अक्सर टिफिन लेकर थाने में हाज़िर हो जाती हैं, और फिर जिस तरह का हंसी-ठट्ठे से भरपूर घरेलू माहौल जमता है, लगता है जैसे आप अचानक रोहित शेट्टी की फिल्म से निकल कर सूरज बड़जात्या की फिल्मों में दाखिल हो गये हैं. इस एक ग़लतफहमी का सुख उन सब दुखों पर भारी पड़ता है, जहां फिल्म बलात्कार पर प्रवचनों की झड़ी लगा देती है. कभी जज साहिबा के मुंह से, तो कभी अपने महिला सह-कलाकारों के जरिये! अभिनय में, रणवीर की जिस ऊर्जा का अक्सर सब जिक्र करते हैं, भरपूर मात्रा में है. इस आदमी को एक बंद कमरे में रख कर गुपचुप भी शूट कर लो, तो कुछ न कुछ मनोरंजक निकल ही आएगा, लेकिन क्या ये वो फिल्म है जिसमें हमें रणवीर की उस ऊर्जा का जश्न मनाना चाहिए? बिलकुल नहीं.       

आखिर में; एक आजमाया पैमाना बताता हूँ. जिस फिल्म में अश्विनी कल्सेकर की अदाकारी आपको हताश करे, उससे किसी भी तरह का कोई उम्मीद मत रखिये. ‘सिम्बा अपनी मौलिक तेलुगु फिल्म ‘टेम्पर का बहुत कुछ अपनाते हुए भी आखिर का नाटकीयता भरा अंत छोड़ कर अपनी ही एक बेहद साधारण अंत का चुनाव करती है, जिसमें अजय देवगन जैसे स्टार की भूमिका पर ज्यादा दांव खेला गया है. इसे आप रोहित शेट्टी की ‘हिट खोजने की तरफ एक और समझदारी के नजरिये से भी देख सकते हैं. इतना महिमामंडन बहुत है, आज के ज़माने का ‘मनमोहन देसाई’ कह कर मनोरंजन के फ़ॉर्मूले का मखौल मत उड़ाइये! साल की सबसे वाहियात फिल्म!! [0.5/5]   

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