जात-पात, उंच-नीच, अमीरी-गरीबी
के जंजाल भरे देश में नायक-नायिका का मिल जाना, सबकी राजी-ख़ुशी के साथ शादी कर
लेना और ‘जस्ट मैरिड’ की तख्ती वाली कार में बैठ कर हनीमून के लिए
निकल जाना; फिल्म की कहानी को अंत करने का इससे अच्छा, सस्ता और टिकाऊ मौका हिंदी
सिनेमा को आज तक नहीं मिला है, पर वो ज़माना और था. अब बात शादी पर ख़तम नहीं होती,
शादी से शुरू होती है. शादी के बाद क्या? इस एक आशंका भरे सवाल से जूझते युवामन को
जानने और टटोलने के लिए नित्या मेहरा की ‘बार बार देखो’
‘टाइम-ट्रेवल’ जैसे विज्ञान गल्प का सहारा लेती है.
भविष्य के दिन आज ही जीने
को मिल जाएँ, तो गलतियां पहचानने और सुधारने की गुंजाईश बनी रहेगी. वक़्त रहते, टूटते
रिश्ते बचाए जा सकते हैं. जिन्दगी जीने के तरीके बदले और बेहतर किये जा सकते हैं.
फिल्म के अन्दर इस बात को बखूबी समझने-समझाने में भले ही खूब माथापच्ची करनी पड़ी
हो, फिल्म देखने के बाद आप इस प्रयोग की महत्ता समझने में तनिक भूल नहीं करते.
कितना अच्छा होता, अगर हम भी ‘बार बार देखो’ जैसी भुलावे और
बहकावे भरी टाइटल वाली फिल्म देखने की अपनी गलती को सुधार पाते!
दिया [कटरीना कैफ़]
और जय [सिद्धार्थ मल्होत्रा] की किस्मत एक साथ ही लिखी हुई है.
दोनों 8 साल की उम्र से साथ हैं. दिया की माँ ब्रिटिश हैं और पापा [राम कपूर]
पंजाबी. पैदाईश के 4-5 साल बाद तक दिया लन्दन में ही रही थी. पिछले 20 सालों से वो
भारत में हैं, पर हिंदी बोलने में आज भी उसको जिस तरह की मशक्कत करनी पड़ती है,
फिल्म देखते वक़्त आप दुआ करने लगते हैं कि वो जितना कम बोले, सबकी भलाई के लिए
अच्छा ही है. वैसे, भगवान् सबकी कहाँ सुनते हैं!! जय वैदिक गणित का प्रोफेसर है और
कैंब्रिज यूनिवर्सिटी जाने के सपने देखता आ रहा है. दिया से अपनी शादी के ठीक एक
दिन पहले जय शादी तोड़कर कैंब्रिज जाने का फैसला सुना देता है. इससे पहले कि कोई हो-हल्ला
हो, जय शैम्पेन की बोतल गटक कर सो जाता है. अगली सुबह होती है थाईलैंड में, जहां उसका
हनीमून चल रहा है. शादी हुए 10 दिन बीत चुके हैं. अगली सुबह उसे 2 साल और आगे ले
जाती है, और उससे बाद वाली सुबह 12 साल आगे. जैसे कोई उसे उसकी ज़िन्दगी की
हाइलाइट्स दिखा रहा हो. जय की शादी टूट रही है. जोड़-घटाने के हिसाब-किताब में उसने
अपनी ज़िन्दगी, अपने परिवार की बहुत अनदेखी की, जिसे अब उसे ठीक करना है. पर कैसे?
‘बार बार देखो’
जिस ठंडे और उबाऊ तरीके से शादी और कैरियर के बीच झूलती ज़िन्दगी को दिखाने और दिखा
कर डराने की कोशिश करती है, आप सिनेमाहाल में बोरियत भरे माहौल में गहरे धंसते चले
जाते हैं. गर्लफ्रेंड शादी को ही सब कुछ मानती है, और लड़का कैरियर को. दोनों की
अपनी-अपनी धुरी पर जम के खड़े रहने की मानो सज़ा मिली हो. कोई अपनी जगह से हिलने को
तैयार नहीं. फिल्म भले ही भविष्य के चक्कर लगा आती हो, पर मेच्योरिटी के नाम पर
कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती. यहाँ शादी का टूटना आसमान टूट पड़ने से कम नहीं आँका
जाता. हालाँकि रोमांटिक फिल्मों को ‘स्मार्ट’ होने का दावा पेश करना हर वक़्त जरूरी
नहीं होता, पर जब कहानी में ‘टाइम ट्रेवल’ का तड़का लगा हो तो क्लाइमेक्स का अंदाजा
इंटरवल के आस-पास से ही लगने लग जाना अपने आप ही स्क्रिप्ट की कमजोरी बयान कर देता
है.
फिल्म अपने कुछ बेहद
खूबसूरत चेहरों और कैमरावर्क [रवि के चंद्रन] की मदद से बहुत
हद तक कोशिश करती है कि आपको अपने ‘बनावटी’ जादू में उलझाए रखे, पर फिल्म के सतही
इमोशंस आपके आस-पास तक भी पहुँचने का दमखम नहीं जता पाते. सिद्धार्थ पूरी फिल्म में
एक ही भाव अपने चेहरे पर ढोते नज़र आते हैं. ‘आज’ को ‘आंज’ और ‘कल’ को ‘कंल’ बोलने
के अलावा कटरीना के लिए अगर इस फिल्म में कुछ रोमांचक रहा है करने को, तो वो है उनका
सफ़ेद बालों की लटों वाला अधेड़ लुक. वरना तो हैरत होती है, अभी तक कटरीना के लिए
परदे पर ‘सबटाइटल्स’ देने का चलन क्यूँ नहीं इस्तेमाल में लाया गया? सह-कलाकारों
में सयानी गुप्ता और सारिका अपनी सटीक भूमिकाओं में और देखे
जाने की ललक छोड़ जाती हैं.
आखिर में; ‘बार बार
देखो’ के
साथ तीन-तीन बड़े फिल्म प्रोडक्शन हाउसेस [इरोस, धर्मा और एक्सेल]
का जुड़ा होना कहीं न कहीं आपको घोर निराशा की ओर धकेलने लगता है. एक ऐसी फिल्म
जिसमें देखने के नाम पर सिर्फ कुछ गिनती के पल हों [ज्यादातर गाने] और बोरियत
इतनी कि आप के लिए एक बार ही पूरा बैठ पाना किसी जंग से कम न हो, उसका नाम ‘बार
बार देखो’ रख देना ही क्या काफी है? [1.5/5]
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