विक्रम भट्ट की ‘राज़ रीबूट’
रिलीज़ से पहले ही आपको खुश कर जाती है. महेश भट्ट पहले ही बयान दे चुके हैं,
‘राज़’ सीरीज की ये आख़िरी फिल्म होगी. इसका मतलब ये है कि अब विक्रम भट्ट
की वो घिसी-पिटी, वाहियात संवादों से भरी स्क्रिप्ट जो पिछले 7 सालों से ‘राज़
(2002)’ की कामयाबी को भुनाने के चक्कर में बार-बार एक अलग और नई फिल्म के तौर
पर दर्शकों तक पहुंचाई जा रही थी, अब ये खेल बंद हुआ समझिये. अपने आप में ये एक
बहुत राहत पहुंचाने वाली बात है, हालाँकि सीरीज की आख़िरी किश्त ‘राज़ रीबूट’ जाते-जाते
भी आप पर कोई रहम नहीं करती.
डराने की हर कोशिश जब
हंसाने लग जाए, समझिये विक्रम भट्ट फॉर्म में हैं. फिर भी मैं कहता हूँ,
डायलाग-राइटिंग में हाथ आजमाने वाले हर नए-पुराने टैलेंट को इस फिल्म से सीखना
चाहिए कि आखिर क्या नहीं लिखना है? हीरोइन को एक ऐसा कैमरा चाहिए, जो लाइट
ऑफ होने के बाद भी कमरे में होने वाली सारी एक्टिविटी रिकॉर्ड कर सके. दुकानदार का
जवाब सुनिए, “ओह, तो आपको नाईट विज़न कैमरा चाहिए?”. भूत-प्रेतों पर रिसर्च
करने वाला एक दिव्यांग (नेत्रहीन) चाय का कप छू कर बता देता है, “इस कप पर दो लोगों
के होंठ महसूस हो रहे हैं”. वाह, गुरुदेव! पति-पत्नी के शादीशुदा दोस्तों में
से एक पूछती है, “मैंने नोटिस किया है, तुम्हारे बेडरूम के बिस्तर पर एक तरफ
सिलवटें नहीं हैं. तुम लोग अलग-अलग सो रहे हो?” मैं पूछता हूँ, ये कौन है जो बेड
पर बड़ी सफाई और सावधानी से एक ही तरफ सो लेने का टैलेंट रखता है?
शादी के बाद प्रेमी-जोड़ा
[गौरव अरोरा, कृति खरबंदा] मुंबई से रोमानिया ताजा-ताजा शिफ्ट हुआ है. “बर्फ
का शहर है, अगले 5 साल तक कहीं और नहीं जाना है, तो चलो ‘बच्चा’ कर लेते हैं”,
बीवी ज़िद पे अड़ी है. पति को पैसे कमाने हैं. झगड़ा पहले ही दिन इस हद दर्जे का है,
कि दोनों के बिस्तर अलग-अलग हो जाते हैं. साथ सोने भर से भी शायद ‘बच्चा’ हो जाता
हो. खैर, कुछ ही वक़्त बाद बीवी को घर में ‘किसी और’ के होने का एहसास होने लगता
है. सिंक में आँख दिखाई देने लगती है, लैपटॉप से खून की नदियाँ बह निकलती हैं, वगैरह,
वगैरह! पति को जब इन बेकार की बातों में यकीन नहीं होता, बीवी को उसका पुराना आशिक़
[इमरान हाशमी] आकर सहारा देता है. फिर वही होता है, जिसका आपको भी पता था
और इंतज़ार भी. दो-चार किसिंग सीन, उतने ही गाने और एक ‘राज़’ जिसके खुलने से पहले
ये एक लफ्ज़ इतनी बार बोला-सुनाया जाता है कि आपको फर्क पड़ना ही बंद हो जाता है.
विक्रम भट्ट साब की एक
ही परेशानी है कि वो अपनी फिल्म चाहे दुनिया के किसी भी कोने में या ब्रह्माण्ड के
किसी भी ग्रह पर लेकर चले जाएँ, अपने साथ भारतीय हॉरर सिनेमा के कुछ अनमोल तत्व ले
जाना नहीं भूलते, मसलन, मंगलसूत्र. मंगलसूत्र का खो जाना एक पतिव्रता नारी के लिए
कितना कष्टप्रद हो सकता है, आपको फिल्म देखकर ही पता चलेगा. वहीँ, जब शादीशुदा
होने के बावजूद गैर-मर्द से सम्बन्ध बनाने की बारी आती है, बड़ी सहूलियत से कपड़े
उतारने से पहले मंगलसूत्र उतार देना सब कुछ जायज़ कर देता है. फिल्म में ‘द एक्सोर्सिस्ट’
की भी छाप हर बार की तरह इस बार भी भरपूर है. मजेदार बात ये है कि इस बार वाला भूत
‘एफ़-वर्ड’ इस्तेमाल करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाता, और दिल खोल के
गालियाँ बरसाता है.
अभिनय की बात करें, तो गौरव अरोरा का फिल्म में होना ही हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कामकाज के तरीकों पर
सवालिया निशान खड़े कर देता है. विक्रम भट्ट की फिल्म में आफ़ताब
और रजनीश दुग्गल जैसों का होना फिर भी चलता है, गौरव अरोरा के साथ तो ‘गुड लुक्स’ का भी चक्कर दूर-दूर तक नहीं दिखता. असल में इमरान
हाश्मी ही हैं जो पूरी तरह से समर्पित दिखाई देते हैं. फिल्म से ज्यादा, भट्ट
कैंप और अपनी ‘सीरियल किसर’ वाली इमेज के प्रति. कृति खरबंदा डराने वाले
दृश्यों में कामयाब रहती हैं.
फिल्म के शुरूआती एक
दृश्य में, एक कौवा रुकी हुई कार के सामने वाले शीशे से टकराकर आत्महत्या कर लेता है.
जानवरों को आने वाले संकट और बुरे वक़्त का अंदेशा इंसानों से बहुत पहले ही हो जाता
है. काश, उसके इस बलिदान को हम इंसान वक़्त रहते समझ पाते! कम से कम पूरी फिल्म
झेलने से बच जाते! चलो, ‘राज़’ का अंत हुआ...और कभी-कभी अंत ही भला होता है.
[1/5]
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