ए आर मुरुगदास
की नई फिल्म ‘अकीरा’ की शुरुआत एक सूफी कहावत से होती है. “कुदरत भी आपके
उसी गुण का बार बार इम्तिहान लेती है, जो आपके अन्दर सबसे ज्यादा है”. ये बात मुझ
जैसे फिल्म समीक्षकों पर एकदम सटीक बैठती है. शुक्रवार-दर-शुक्रवार खराब फिल्मों
को झेलने का जिस तरह का और जितना जोखिम हम उठा रहे होते हैं, उतनी ही बेदर्दी से
ख़राब फिल्मों का ज़खीरा अगले हफ्ते फिर हमारी तरफ रुख कर लेता है. इन्तेहा तब हो
जाती है, जब ऐसी फिल्मों का तूफ़ान गुज़र जाने के बाद भी, उनके बारे में लिखते वक़्त हमें
उस मंज़र को दोबारा याद करना पड़ता है. खैर, ये तो अपनी ही चुनी राह है, तो शिकायत क्यूँ?
‘अकीरा’ देखने-सुनने
से आपको महिलाओं के सशक्तिकरण के हक में आवाज़ उठाने वाली एक अलग फिल्म ज़रूर लग रही
होगी, और लगती भी है खासकर फिल्म के पहले 10 मिनट में, जब महिलाओं पर होने वाले ‘एसिड
अटैक’ जैसे घिनौने अपराधों का सहारा लेकर फिल्म लड़कियों को आत्म-रक्षा के लिए तैयार
रहने की सीख देती है. पर, जल्द ही ये सारा माहौल बदलने लगता है और पूरे का पूरा ध्यान
गिनती के चार भ्रष्ट पुलिस वालों के खिलाफ एक तेज़-तर्रार लड़की के संघर्ष पर केन्द्रित
हो जाता है. गोविन्द राणे [अनुराग कश्यप] की अगुवाई में चार पुलिसवाले
एक एक्सीडेंट के दौरान क्षतिग्रस्त कार की डिग्गी से करोड़ो रूपये उड़ा लेते हैं.
गोविन्द के जुल्मों से आजिज़ एक सेक्स-वर्कर गोविन्द के इस इकबालिया बयान की विडियो
बना लेती है, पर उसका फायदा उठाने से पहले ही विडियो कैमरा एक कैफ़े से चोरी हो
जाता है. शक कुछ स्टूडेंट्स पर जाता है, जो पास के ही हॉस्टल में रहते हैं. उसी हॉस्टल
की एक स्टूडेंट है अकीरा [सोनाक्षी सिन्हा], निडर, लड़ाकू और दबंग.
‘अकीरा’ एक दोयम
दर्जे की राइटिंग की शिकार फिल्म है, जहां थ्रिलर के नाम पर कुछ भी उल-जलूल पेश
किया जाता है, और जिसकी भनक आपको बहुत पहले ही लग जाती है. एक तरफ तो जहां फिल्म अकीरा
के बेख़ौफ़ किरदार के साथ कुछ नया पेश करने का ज़ज्बा दिखाती है, वहीँ पुराने ढर्रे
की कहानी और कहानी कहने के तरीके में नयापन न ढूंढ पाने की वजह से बहुत ही आलसी और
थकी हुई नज़र आती है. ये वो फिल्म है जो सत्तर या अस्सी के दशक से अब तक कोमा में
थी, और जहां अब भी दुश्मनों से निपटने के लिए उन्हें ‘पागलखाने’ भेज दिया जाता है.
यहाँ मानसिक रोगियों को ‘पागल’ दिखाने और बोलने में किसी को कोई गुरेज़ या झिझक
नहीं होती. यहाँ अब भी हर मनोरोगी का इलाज़ बिजली के झटके और इंजेक्शन ही होते हैं.
फिल्म एक हिस्से में बालाजी टेलीफिल्म के धारावाहिकों से भी प्रेरित लगती है, जब
नए ज़माने की बहू अपनी सास को पहली बार देखती है और दौड़ कर उसके पैरों के पास से
बच्चे के खिलौने उठाने लगती है. सास को लगता है, वो पैर छूने आई थी. बेटे के चेहरे
पर कोई भाव नहीं हैं.
‘अकीरा’ दर्शक के
तौर पर आपकी मानसिक क्षमता को कमतर आंकने का दुस्साहस बार-बार करती है. हर छोटी से
छोटी बात को तसल्ली से बयान करने में इतना उलझी रहती है कि अपने ढाई घंटे के पूरे
वक़्त में ज्यादातर बेमतलब और वाहियात ही लगती है. फिल्म के चंद गिने-चुने मजेदार
पल अनुराग कश्यप को देखते हुए बीतते हैं, जहां उनका मजे ले-लेकर
अभिनय करना, उनके किरदार के कमीनेपन पर भारी पड़ता रहता है. आखिर के दृश्य में, ये बावलापन
और भी बढ़ कर गुदगुदाता है. ईमानदार और चौकस गर्भवती पुलिस अफसर की भूमिका में कोंकना
सेन शर्मा पूरी फिल्म में अलग-थलग सी पड़ी रहती हैं. उनका फिल्म में
आना-जाना बड़ी बेतरतीबी से होता है. सोनाक्षी अपनी पिछली फिल्मों से अलग यहाँ
पूरी शिद्दत से अपने किरदार में ढली रहने की कोशिश करती हैं. एक्शन दृश्यों में
उनका आत्मविश्वास और खुल के सामने आता है.
अंत में, ‘अकीरा’
नारी-शक्ति की जिन उम्मीदों की दुहाई देती है, उन्हें तोड़ने और मिट्टी में मिलाने
का सुख भी अपने हिस्से ही रखती है. अकीरा की सारी लड़ाई अपने अस्तित्व तक ही सीमित
रख कर, वो भी एक ऐसे घटनाक्रम के ज़रिये जहां उसकी मौजूदगी में न कोई वाजिब वजह हो,
न कोई संवेदनशील उद्देश्य, फिल्म अपने औसतपन से ऊपर उठने की कोशिश भी नहीं करती. और
नीचे गिराने में रही सही कसर पूरी कर देता है, फिल्म का बहुत ही ठंडा, हल्का और लचीला
स्क्रीनप्ले. इसे देखना खुद पर एक मानसिक अत्याचार से कम नहीं! [1/5]
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