Friday, 16 September 2016

पिंक: इसको ‘ना’ कहने का सवाल ही नहीं! [4/5]

पिंक’ कोई नई बात नहीं कह रही. ‘पिंक’ में हो रहा सब कुछ, खास कर लड़कियों के साथ कुछ बहुत नया नहीं है. हालांकि फिल्म की कहानी दिल्ली और दिल्ली के आस-पास ही डरी-सहमी घूमती रहती है, पर ये सिर्फ देश के उसी एक ख़ास हिस्से की कहानी भी नहीं है. इस फिल्म की खासियत ही शायद यही है कि इसकी हद और ज़द में सब बेरोक-टोक चले आते हैं. गाँव के पुलियों पर बैठे, साइकिल चलाकर स्कूल जाती लड़कियों पर आँख गड़ाये आवारों के जमघट से लेकर बड़े शहरों की बड़ी इमारतों में ख़ूनी लाल रंग की लिपस्टिक लगाने वाली, अपनी ही ऑफिस की लड़की को ‘अवेलेबल’ समझने की समझदारी दिखाते पढ़े-लिखों तक, ‘पिंक’ किसी को नहीं छोड़ती.

अक्सर देर रात को घर लौटने वाली ‘प्रिया’ ज़रूर किसी ग़लत धंधे में होगी. सबसे हंस-हंस कर बातें करने वाली ‘अंजुम’ को बिस्तर तक लाना कोई मुश्किल काम नहीं. 30 से ऊपर की हो चली ‘रेशम’ के कमरे पर आने वाले लड़के सिर्फ दोस्त तो नहीं हो सकते. ‘कोमल’ तो शराब भी पीती है, और शॉर्ट स्कर्ट पहनती है. ये ‘नार्थ-ईस्ट’ वाले तो होते ही हैं ऐसे. हमारे यहाँ लड़कियों को ‘करैक्टर-सर्टिफिकेट’ देने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता. सब अपनी-अपनी सोच के साथ राय बना लेने में माहिर हैं, और वक़्त पड़ने पर अपने फायदे के लिए उनका इस्तेमाल करने से भी चूकते नहीं. मर्दों की यौन-कुंठा इस कदर प्रबल हो चली है कि उन्हें लड़कियों/औरतों के छोटे-छोटे हाव-भाव भी ‘सेक्सुअल हिंट’ की तरह नज़र आने लगते हैं. ब्रा-स्ट्रैप दिख जाना, बात करते-करते हाथ लगा देना, कमर का टैटू और पेट पे ‘पिएर्सिंग’; कुछ भी और सब कुछ बस एक ‘हिंट’ है. ‘ना’ का यहाँ कोई मतलब नहीं है. ‘पिंक’ बड़ी बेबाकी से और पूरी ईमानदारी से महिलाओं के प्रति मर्दों के इस घिनौने रवैये को कटघरे में खड़ी करती है.

दिल्ली में अकेले रहने वाली तीन लड़कियां [तापसी पुन्नू, कीर्ति कुल्हारी, एंड्रिया] एक रॉक-शो में तीन लड़कों से मिलती हैं. थोड़ी सी जान-पहचान के बाद लड़के जब उनके ‘फ्रेंडली’ होने का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं, लड़कियों में से एक उनपे हमला कर देती है. राजवीर [अंगद बेदी] हमले में घायल हो जाता है. लड़कियां भाग निकलती हैं. चार दिन बाद भी, लड़कियां सदमे में हैं. राजवीर ऊँचे रसूख वाला है. पुलिस अब लड़कियों के ही पीछे पड़ी है. बचाने के लिए आगे भी कोई आया है, तो अपने बुढ़ापे और ‘बाइपोलर डिसऑर्डर’ से जूझता एक रिटायर्ड वकील [अमिताभ बच्चन].

अनिरुद्ध रॉय चौधरी की ‘पिंक’ शुरुआत से ही आपको झकझोरने लगती है. हालाँकि पहले भाग में फिल्म का पूरा फोकस लड़कियों के डरे-सहमे चेहरों और उनकी डांवाडोल होती हिम्मत और हौसलों पर ही टिका होता है, पर ये वो हिस्सा है जो आपको सोचने पर मजबूर करता है. अगले भाग में कोर्ट की जिरह में अमिताभ लड़कियों की सुरक्षा, उनकी पसंद-नापसंद, उनके अधिकारों जैसे हर मसले पर मर्दों की सोच पर मजबूती से प्रहार करते हैं. इस हिस्से में फिल्म कहीं-कहीं नाटकीय भी होने लगती है, पर अंत तक पहुँचते-पहुँचते ‘पिंक’ अपनी बात रखने-कहने में बिना हिचकिचाहट सफल होती है.

पहले ही दृश्य में, घबराई हुई मीनल [तापसी] कैब ड्राईवर को डांटते हुए पूछती है, “नींद आ रही है क्या? रुको, आगे बैठकर बातें करती हूँ”. मेरे लिए, तापसी के इस किरदार में धार उसी दम से महसूस होनी शुरू हो जाती है. उसके बाद, बच्चन साब को उसका पलट कर घूरना. निश्चित तौर पर, तापसी इस फिल्म की सबसे मज़बूत कड़ी हैं. अपने से बड़ी उम्र के आदमी के साथ कभी रिश्ते में रही, फलक के किरदार में कीर्ति और ‘नार्थ-ईस्ट’ से होने का दर्द चेहरे पे लिए एंड्रिया; फिल्म के अलग-अलग हिस्सों में अपनी मौजूदगी बार-बार और लगातार दर्ज कराती रहती हैं. अपने ही मुवक्किलों को कटघरे में सवाल दागते उम्रदराज़ वकील की भूमिका में अमिताभ बच्चन बेहतरीन हैं, ख़ास कर उन मौकों पर, जब वो बोलने की जेहमत भी नहीं उठा रहे होते.

अंत में; ‘पिंक’ उन सभी महिलाओं के लिए एक दमदार, जोरदार आवाज़ है, जो हर रोज चुपचाप घरों, दफ्तरों, बाजारों में मर्दों की दकियानूसी सोच, गन्दी नज़र और घिनौनी हवस का शिकार बनती रहती हैं. साथ ही, मर्दों के लिए भी ये उतनी ही जरूरी फिल्म है. देखिये और सोचिये. कहीं आप के अन्दर भी कुछ बहुत तेज़ी से सड़ तो नहीं रहा? [4/5] 

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