हाव-भाव और ताव में लीना
यादव की ‘पार्च्ड’ पिछले साल रिलीज़ हुई पैन नलिन की ‘एंग्री
इंडियन गॉडेसेज’ से बहुत कुछ मिलती-जुलती है, और अपने रंग-रूप में केतन
मेहता की ‘मिर्च मसाला’ जैसी तमाम भारतीय सिनेमा के मील के
पत्थरों से भी. जाहिर है, इस तरह का ‘पहले बहुत कुछ देख लेने’ की ऐंठ आप में भी उठेगी,
पर जिस तरह की बेबाकी, दिलेरी और दबंगई ‘पार्च्ड’ दिखाने की हिमाकत करती
है, वो कुछ अलग ही है. यहाँ ‘आय ऍम व्हाट आय ऍम’ का जुमला बेडरूम के झगड़ों
और कॉफ़ी-टेबल पर होने वाली अनबन में सिर्फ जीत भर जाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया
जाता. ‘पार्च्ड’ अपने किरदारों को उनके तय मुकाम तक छोड़ आने तक की पूरी
लड़ाई का हिस्सा बन कर एक ऐसा सफ़रनामा पेश करती है, जो हमारी ‘घर-ऑफिस, ऑफिस-घर’ की
रट्टामार जिन्दगी से अलग तो है, पर बहुत दूर और अनछुई नहीं.
लम्बे वक्त से दबी-कुचली,
गरियाई-लतियाई और सताई जा रही गंवई औरतों के सर पर पहाड़ जैसा भारी हो चला घूंघट अब
मिट्टी के ढूहे सा भरभराकर सरकने लगा है. सारी की सारी घुटन, चुभन, सहन अब धरती के
आँचल में दबे लावे की तरह फूटने की हद तक आ पहुंची है. धागे जैसे भी हों, मोह के,
लाज के, समाज के, सब के सब टूटने लगे हैं. रानी [तनिष्ठा चैटर्जी] विधवा है,
जो अपने ही जवान बेटे की खरी-खोटी सुनती है. शायद इसीलिए क्यूँकि 15-16 साल का ही
सही, वो भी एक मर्द है और रानी जैसियों को मर्दों की सुननी पड़ती है. लज्जो [राधिका
आप्टे] बाँझ हैं, जिसे कोई अंदाज़ा भी नहीं कि मर्द भी बाँझ हो सकते हैं.
बिजली [सुरवीन चावला] मर्दों के मनोरंजन का सामान है. गाँव की डांस
कंपनी में ‘खटिया पे भूकंप’ जैसे गानों पर मर्दों को जिस्म दिखाती भी है और
परोसती भी है, पर अपनी मर्ज़ी से! जानकी [लहर खान] बालिका-वधू है,
जिसे रानी अपने बेटे के लिए शादी के नाम पर खरीद लायी थी.
‘पार्च्ड’ इन सबके
और दूसरे कई और छोटे-छोटे किरदारों के साथ औरतों के साथ होने वाले हर तरह के
अमानवीय कृत्यों का कच्चा-चिट्ठा खोल के सामने रखती है. ‘पढ़-लिख कर कौन सा
इंदिरा गाँधी बनना है?’ जैसे उलाहनों से लेकर मणिपुर से आई बहू को ‘विदेशी’
कहने और शादी में सामूहिक घरेलू यौन-उत्पीड़न जैसी घिनौनी कुरीतियों तक, फिल्म एक सिरे से
बहुत कुछ और सब कुछ एक साथ कहने की कोशिश करती है. गनीमत है कि इस बार घटनाक्रम पुराने
ढर्रे के सही, पर ‘एंग्री इंडियन गॉडेसेस’ की तरह जल्दबाजी भरे और बनावटी नहीं
लगते. बिना किसी शर्म, झिझक और लिहाज़ की परवाह करते गंवई संवाद जिनमें गाली-गलौज
के साथ-साथ यौन-संबंधों से जुड़े कई खांटी शब्दों की भरमार दिखती है, और कुछ बहुत संवेदनशील
दृश्य जिनके खुलेपन में लीना का (एक औरत का) निर्देशक होना ज़रूर मददगार
साबित हुआ होगा, फिल्म को एक आज़ाद ख्याल और अलग अंदाज़ दे जाते हैं.
कई मामलों में फिल्म एक खालिस
‘औरतों की फिल्म’ कही जा सकती है. कैमरा सामने होने की झिझक कई बार झलकियों में भी
नहीं दिखती. फिल्म मजेदार पलों से पटी पड़ी है. बिजली का ‘मर्दों वाली
गालियाँ’ ईजाद करना, ‘वाइब्रेशन मोड’ पर मोबाइल के साथ लज्जो का ‘वाइब्रेटर-एक्सपीरियंस’,
रानी का फ़ोन पर अनजान ‘लवर’ से बातचीत, फिल्म बड़ी बेहयाई से आपका भरपूर मनोरंजन
करती है. फिल्म का तडकता-भड़कता संगीत एक और पहलू है, जो संजीदा कहानी के बावजूद
आपके मूड को हर वक़्त फिल्म में दिलचस्प बनाये रखता है. कैमरे के पीछे जब ‘टाइटैनिक’
के रसेल कारपेंटर और एडिटिंग टेबल पर ‘नेबरास्का’ के केविन
टेंट जैसे दिग्गजों की फौज हो, तो फिल्म के टेक्निकल साज़-ओ-सज्जा पर कौन
ऊँगली उठा सकता है?
अभिनय में सुरवीन
चावला सबसे ज्यादा चौंकाती हैं. उनके किरदार में जिस तरह की बोल्डनेस दिखती
है, और दूसरे हिस्सों में उनका इमोशनली टूटना, सुरवीन कहीं भी डांवाडोल
नहीं होतीं. राधिका और तनिष्ठा दोनों के लिए इन किरदारों में कुछ
बहुत नया न होते हुए भी, दोनों बहुत सधे तरीके से अपने किरदारों को जिंदा रखती
हैं. अन्तरंग दृश्यों में राधिका का समर्पण काबिले-तारीफ है. तनिष्ठा
तो शबाना आज़मी हैं ही आजकल के ‘अर्थपूर्ण सिनेमा’ के
दौर की. अन्य भूमिकाओं में सुमित व्यास और बिजली के मतलबी आशिक़ की
भूमिका में राज शांडिल्य सटीक चुनाव हैं.
अंत में; ‘पार्च्ड’
औरतों को देह-सुख का सामान और बिस्तर पर बिछौना मात्र मानने वाली पुरुष-सत्ता के
खिलाफ ‘पिंक’ की तरह कोई तेज-तर्रार आवाज़ भले ही न उठाती हो, औरतों की
आज़ादी के हक़ में एक ऐसी हवा तो ज़रूर बनाती है, जहां मर्दों की तरफ से लाग-लपेट, लाज-लिहाज़
का कोई बंधन मंजूर नहीं. प्रिय महिलाएं, ‘सास-बहू और नागिन’ जैसे सीरियलों
की गिरफ्त से अगर छूट पाएं, तो ज़रूर देखने जाएँ! [3.5/5]
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