लेखक-निर्देशक सोहेल
खान ने भारतीय टेलीविज़न पर कॉमेडी शोज में जज की भूमिका निभाते हुए अपना काफी
वक़्त हँसते-खेलते बिताया है. उनकी नई फिल्म ‘फ्रीकी अली’ को अगर अच्छी
तरह बयान करना हो तो उन्हीं कॉमेडी शोज का जिक्र लाजिमी हो जाता है. फिल्म न ही उन
तमाम एपिसोड्स से कमतर है, न ही उनसे बेहतर. हां, नवाजुद्दीन सिद्दीकी
को मुख्य किरदार के तौर पर फिल्म में ले लेना ज़रूर फिल्म को एक मज़बूत कन्धा दे देता
है. कम से कम अब फिल्म के हर फ्रेम में एक ऐसा टैलेंट तो है, जिसे फिल्म भले ही उसकी
शख्सियत-मुताबिक तवज्जो न दे पर जो खुद अपने आप को कभी निराश नहीं करता. संवादों में
व्यंग परोसने की अपनी लगातार कोशिश के साथ, ‘फ्रीकी अली’ मनगढ़ंत सी लगने
वाली, चलताऊ कहानी के बावजूद आप को अपने ठीक 2 घंटे की समय-अवधि में कम से कम उकताहट
और उबासी तो महसूस नहीं ही होने देती.
अली ‘फ्रीकी’ क्यूँ है? इसका
जवाब तो मुश्किल है पर अपनी गली की क्रिकेट टीम का ‘पिंचहिटर’ अली [नवाज़ुद्दीन]
पैसे कमाने के लिए हर तरह की नौकरी-कारोबार आजमा चुका है. हफ्तावसूली उसका एकदम नया
वाला पैंतरा है. एक दिन इसी सिलसिले में गलती से उसे ‘गोल्फ’ खेलने का मौका मिलता है.
क्रिकेट के अनुभवों से लैस अली जल्द ही गोल्फ की दुनिया में मशहूर हो जाता है. अब उसके
और उसके सपनों के बीच बस एक ही अड़चन है, अपनी अमीरी का रौब झाड़ने वाला ‘गोल्फ चैंपियन’
विक्रम सिंह राठौर [जस अरोरा, गुड़ नाल इश्क मिठा वाले]. विक्रम उसे नीचा
दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ता और अली उन मौकों को उतनी ही आसानी से उसके खिलाफ इस्तेमाल
कर लेता है.
एडम सैंडलर की ‘हैप्पी
गिलमोर’ से प्रभावित होकर लिखी गयी, ‘फ्रीकी अली’ की कहानी को मजेदार
बनाने के लिए सोहेल खान अपने पुराने ‘हेलो ब्रदर’ ढर्रे का ही सहारा लेते
हैं, जहां कहानी के मुख्य किरदार एक अलग ट्रैक पर भटक रहे हैं और दूसरे ट्रैक पर
मजाकिया किरदार फिल्म के बीच बीच में आ कर, छोटे छोटे ‘गैग्स एंड गिग्स’ के साथ
आपको हंसाने की कोशिश करते हैं. कॉमेडी का ये वो ‘खान’-दान है, जहां हँसी
के लिए बूढों, बच्चों और औरतों को गरियाया जाता है, लतियाया जाता है और ऐसा करते
वक़्त तनिक शिकन और शर्म भी चेहरे पर आने नहीं दिया जाता. ताज्जुब होता है कि
करोड़ों की ये फिल्म उसी छत के नीचे सोची और लिखी गयी है, जहां हिंदी फिल्म
इंडस्ट्री के महानतम लेखकों में से एक अभी भी पूरी तरह सक्षम और सक्रिय है. सोहेल
खान बार-बार अपने ‘जोक्स’ को दुहराते रहते हैं, किरदारों को कार्टून बना कर
पेश करते हैं और ड्रामा के नाम पर कुछ भी ख़ास परोस पाने में असफल रहते हैं. संवाद और
नवाज़ दो ही हैं जो हर बार एक-दूसरे के साथ घुल-मिल कर सोहेल के ‘मजाकिया’
दिवालियेपन को परदे पर नंगा होने से बचा लेते हैं.
कहने को तो यहाँ बहुत
कुछ है. एक हट्टा-कट्टा गुंडा जिसकी समझ बच्चे से भी कम है [निकेतन धीर],
एक चालाक बूढ़ा आदमी जिसे दुनिया की हर चीज़ याद है पर अपने पैसे और प्रॉपर्टी नहीं,
एक माँ जो अपने बेटे के लिए ‘उसके पास माँ है’ की दुहाई देते हुए एक गैंगस्टर
से भी भिड़ जाती है [सीमा विश्वास], पर जब अभिनय बात आती है सिर्फ नवाज़
आपको लुभाने में कामयाब रहते हैं. उनके साथी की भूमिका में अरबाज़ बेचारे से
लगते हैं, जिन्हें सिर्फ इस लिए फिल्म में लिया गया है क्यूंकि वो ‘खान’दान से हैं.
जस अरोरा गुर्राते ज्यादा सुनाई देते हैं. एमी जैक्सन
कितनी ईमानदार कोशिश करती होंगी अपने परफॉरमेंस में, इसका अंदाजा आपको इसी बात से हो
जाता है कि अक्सर अपनी लाइनें बोलते वक़्त उनके होंठ ही आपस में मिलने से इनकार कर
देते हैं. एक दृश्य में जैकी श्रॉफ बस अपने बदनाम ‘मऊशी’ वीडियो
क्लिप की ही याद दिलाने परदे पर आ जाते हैं.
अंत में; ‘फ्रीकी
अली’ एक बहुत ही सामान्य सी, हलकी-फुलकी फिल्म है, जो दो घंटे के कम वक़्त
में भी अपने आप को कई बार दोहराती रहती है. ऐसा लगता है जैसे आप टीवी पर ‘कॉमेडी
सर्कस’ का कोई महा-एपिसोड देख रहे हैं, जहां कोई कपिल-कृष्णा-सुदेश नहीं
हैं. हैं तो बस नवाज़! सन्डे को टीवी पर आये तो ज़रूर देखियेगा! [2/5]
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