अगर दो साल पहले आप ‘माहिष्मती’
राज्य का भ्रमण कर चुके हैं, तो आपकी जानकारी के लिये बता दें कि दो साल बाद भी ‘माहिष्मती’
में बहुत कुछ बदला नहीं है. पिछली रात दादी माँ की कहानी सुनते-सुनते जिस हिस्से
तक पहुँच के हम सो गए थे, आज फिर कहानी वहीँ से शुरू हो चुकी है. फिल्म की ही तरह
इन दो लम्बी-लम्बी लाइनों में, ‘बाहुबली 2’ अपने बेहतर होने या न
होने, दोनों की दलील पेश कर देती है. सीक्वल देखने का जो नजरिया हमें हॉलीवुड ने
बक्शा है, उसके हिसाब से हर सीक्वल का पहले से बड़ा और बेहतर होना पहली शर्त बन
जाता है. हालाँकि ‘बाहुबली 2’ सीक्वल कम, ‘पार्ट 2’ ज्यादा है, दोनों का
फर्क समझना जरूरी है. सीक्वल पहली फिल्म की सफलता भुनाने की वजह से पनपता है, जबकि
‘पार्ट-2’ पहले से ही तयशुदा है. इसीलिये ‘बाहुबली 2’ का कमोबेश अपने पहले
भाग जैसा ही दिखाई देना, उसके लिये दो-धारी तलवार पर चलने जैसा है.
‘बाहुबली’ में ‘न्याय’,
‘शासन’, ‘प्रजा’ जैसे भारी-भरकम शब्द आप पहले भी सुन चुके हैं, इस बार कुछ नए शब्द
शामिल हुए हैं, ‘राजद्रोह’, ‘अंतर्युद्ध’, ‘संविधान’, ‘प्रतिशोध’. ‘बाहुबली 2’
की कहानी इन्हीं शब्दों के इर्द-गिर्द बुनी गयी है. ‘कटप्पा ने बाहुबली को
क्यूँ मारा?’ से पहले और बाद में भी बहुत सारा कुछ और भी है, जो फिल्म में इस
एक ‘यक्ष-प्रश्न’ से कहीं ज्यादा अहमियत रखता है. स्क्रिप्ट लिखते वक़्त, फिल्म-लेखक
अक्सर ‘करैक्टर-ब्रेकडाउन’ जैसा एक अभ्यास भी करते हैं, जिसमें तमाम किरदारों के
तौर-तरीके, हाव-भाव और चाल-चलन दर्ज कर लिए जाते हैं, ताकि किसी एक ख़ास दृश्य में
कोई एक ख़ास किरदार किस तरह और किस तरीके की प्रतिक्रिया देगा, इस पर नज़र रखी जा
सके. ‘बाहुबली 2’ में कम से कम दो मुख्य किरदार ऐसे हैं, जो बहुत ही
सहूलियत से अपना रंग छोड़ते और बदलते रहते हैं. पहले भाग में, मन, वचन, कर्म से हमेशा
नतमस्तक रहने वाले, धीर-गंभीर कटप्पा (सत्यराज) अचानक इस भाग में, होने
वाले महाराज अमरेन्द्र बाहुबली (प्रभास) के लंगोटिया यार बनकर, तेलुगू
मसाला फिल्मों के अभिन्न हास्य-कलाकारों की कमी पूरी करने में लग जाते हैं. और
हंसी के नाम पर भी संवाद ऐसे कि, “बहुत दिन हुए, चिड़िया को मार के, धीमी आंच पर
भून के, नमक-मिर्च छिड़क कर खाए हुए”!
फिल्म में ऐसे प्रसंगों की भरमार
है, जहाँ आप फिल्म से समझदारी की उम्मीद करते हैं, पर फिल्म आपकी उम्मीदों को
दरकिनार करते हुए, अपनी ही दुनिया में ‘मनोरंजन’ ढूँढने में बेसुध रहती है. ‘न्याय,
सुशासन और ममता की मूर्ती’ शिवगामी देवी (राम्या कृष्णन) से इस फिल्म में
इन तीनों की अपेक्षा न ही करें तो बेहतर है. ‘बाहुबली’ में जहाँ वो नारी-सशक्तिकरण
का एक दमदार उदाहारण बनकर आपके रोंगटे खड़े करने में कामयाब रहीं थीं, अचानक क्यूँ षड्यंत्र
की शिकार एक अबला, अहंकारी नारी का चोला ओढ़ लेती हैं, राजामौली सर ही बता सकते
हैं. उनके किरदार का पतन ही शायद एकमात्र जरिया बचा हो, देवसेना (अनुष्का शेट्टी)
के किरदार की मजबूती जाहिर करने में, वरना कौन सोच सकता है कि बेटे की ‘मुझे वो
चाहिए, माँ’ जैसी फरमाईश पर लड़की से पूछे बिना शिवगामी देवी कहें, “जा, वो
तेरी होगी!” कहानी के लिए किरदार की बलि??
...पर इन सबके बावजूद, कोई तो है जो
आपको रत्ती भर भी निराश नहीं करता! एस एस राजामौली जिस तरह की मनमोहक दुनिया,
जिस तरह के मनोरम दृश्य आपके लिए परदे पर रचते हैं, पर्दा छोटा पड़ जाता है, और आप
अवाक रह जाते हैं. उनकी यह दुनिया रामायण और महाभारत जैसी पौराणिक कहानियों से ही
प्रेरित है, फिर भी जिस सफाई और जिस शिद्दत से वो आपको इसके इंच-इंच से रूबरू कराते
हैं, आपको ‘माहिष्मती’ के अस्तित्व पर तनिक भी सदेह नहीं होता. इस दुनिया में टेलिस्कोप
भी है, ह्यूमन राकेट लांचर जैसी तकनीक भी. देखते हुए आपको हंसी भी आती है, पर ये
हंसी राजामौली सर की खूबियों को नकारने की हिमाकत कभी नहीं करती. राजामौली
सर के कल्पना की उड़ान युद्ध के दृश्यों में और निखर कर सामने आती है. बेहतरीन विज़ुअल
ग्राफ़िक्स के इस्तेमाल से आपके लिए तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि कौन सा
हिस्सा असली है, कौन सा ग्राफ़िकल?
प्रभास गज़ब
के अदाकार हैं. रोमांस, कॉमेडी, एक्शन और इमोशनल दृश्यों में उनका करिश्मा, उनकी पकड़,
उनका भरोसा कहीं भी डगमगाता नहीं है. परदे पर उनका चलना, दौड़ना, एक्शन करना उन्हें
हर उस सुपरस्टार के बराबर ला खड़ा करता है, जिन्हें भारतीय सिनेमा में दर्शक मानते
नहीं, पूजते हैं. राणा डग्गुबाती अपने शानदार डील-डौल से एक्शन
दृश्यों में जान फूँक देते हैं. इस बात से अलग कि उनके किरदार कटप्पा के साथ फिल्म
में क्या अजीब-ओ-गरीब हो रहा है, सत्यराज को अपनी अदाकारी के जौहर दिखाने
के बहुत मौके मिले हैं इस फिल्म में, और सब में वो बहुत ही मनोरंजक लगे हैं. अनुष्का
शेट्टी पिछले भाग की सारी शिकायतें और अभिनय में रही सही सब कसर इस फिल्म
में पूरी कर देती हैं. राम्या कृष्णन बिजली की तरह परदे पर चमकती
हैं. काश, उनके फिल्म की कहानी किरदार की धार बरक़रार रहने देती!
आखिर में, “बाहुबली 2” एक
भरपूर मनोरंजक फिल्म है, जो अपने बेहतरीन विज़ुअल ग्राफ़िक्स और ढेर सारे अद्भुत रोमांचक
दृश्यों की मदद से एक ऐसी परंपरागत ढ़ांचे की कहानी गढ़ती है, जिसमें समझदारी की
गुंजाईश बहुत है. ‘बाहुबली’ के साथ एक फायदे की बात थी कि उस जैसा हमने
पहले कभी कुछ नहीं देखा था; ‘बाहुबली 2’ के साथ ये इमोशन नहीं जुड़ता. फिर
भी, न देखने की कोई सूरत ही नहीं बचती; कुछ रिश्तों को ‘क्लोज़र’ की जरूरत पड़ती ही
है. ‘बाहुबली’ के साथ हम ऐसे ही एक रिश्ते में हैं, और ‘बाहुबली 2’
है उसका ‘हैप्पी क्लोज़र’! बेहतर नहीं, तो कमतर भी नहीं! [3.5/5]