Friday, 28 April 2017

बाहुबली 2: बड़ा है, बेहतर नहीं! [3.5/5]

अगर दो साल पहले आप ‘माहिष्मती’ राज्य का भ्रमण कर चुके हैं, तो आपकी जानकारी के लिये बता दें कि दो साल बाद भी ‘माहिष्मती’ में बहुत कुछ बदला नहीं है. पिछली रात दादी माँ की कहानी सुनते-सुनते जिस हिस्से तक पहुँच के हम सो गए थे, आज फिर कहानी वहीँ से शुरू हो चुकी है. फिल्म की ही तरह इन दो लम्बी-लम्बी लाइनों में, ‘बाहुबली 2’ अपने बेहतर होने या न होने, दोनों की दलील पेश कर देती है. सीक्वल देखने का जो नजरिया हमें हॉलीवुड ने बक्शा है, उसके हिसाब से हर सीक्वल का पहले से बड़ा और बेहतर होना पहली शर्त बन जाता है. हालाँकि ‘बाहुबली 2’ सीक्वल कम, ‘पार्ट 2’ ज्यादा है, दोनों का फर्क समझना जरूरी है. सीक्वल पहली फिल्म की सफलता भुनाने की वजह से पनपता है, जबकि ‘पार्ट-2’ पहले से ही तयशुदा है. इसीलिये ‘बाहुबली 2’ का कमोबेश अपने पहले भाग जैसा ही दिखाई देना, उसके लिये दो-धारी तलवार पर चलने जैसा है.

बाहुबली’ में ‘न्याय’, ‘शासन’, ‘प्रजा’ जैसे भारी-भरकम शब्द आप पहले भी सुन चुके हैं, इस बार कुछ नए शब्द शामिल हुए हैं, ‘राजद्रोह’, ‘अंतर्युद्ध’, ‘संविधान’, ‘प्रतिशोध’. ‘बाहुबली 2’ की कहानी इन्हीं शब्दों के इर्द-गिर्द बुनी गयी है. ‘कटप्पा ने बाहुबली को क्यूँ मारा?’ से पहले और बाद में भी बहुत सारा कुछ और भी है, जो फिल्म में इस एक ‘यक्ष-प्रश्न’ से कहीं ज्यादा अहमियत रखता है. स्क्रिप्ट लिखते वक़्त, फिल्म-लेखक अक्सर ‘करैक्टर-ब्रेकडाउन’ जैसा एक अभ्यास भी करते हैं, जिसमें तमाम किरदारों के तौर-तरीके, हाव-भाव और चाल-चलन दर्ज कर लिए जाते हैं, ताकि किसी एक ख़ास दृश्य में कोई एक ख़ास किरदार किस तरह और किस तरीके की प्रतिक्रिया देगा, इस पर नज़र रखी जा सके. ‘बाहुबली 2’ में कम से कम दो मुख्य किरदार ऐसे हैं, जो बहुत ही सहूलियत से अपना रंग छोड़ते और बदलते रहते हैं. पहले भाग में, मन, वचन, कर्म से हमेशा नतमस्तक रहने वाले, धीर-गंभीर कटप्पा (सत्यराज) अचानक इस भाग में, होने वाले महाराज अमरेन्द्र बाहुबली (प्रभास) के लंगोटिया यार बनकर, तेलुगू मसाला फिल्मों के अभिन्न हास्य-कलाकारों की कमी पूरी करने में लग जाते हैं. और हंसी के नाम पर भी संवाद ऐसे कि, “बहुत दिन हुए, चिड़िया को मार के, धीमी आंच पर भून के, नमक-मिर्च छिड़क कर खाए हुए”!

फिल्म में ऐसे प्रसंगों की भरमार है, जहाँ आप फिल्म से समझदारी की उम्मीद करते हैं, पर फिल्म आपकी उम्मीदों को दरकिनार करते हुए, अपनी ही दुनिया में ‘मनोरंजन’ ढूँढने में बेसुध रहती है. ‘न्याय, सुशासन और ममता की मूर्ती’ शिवगामी देवी (राम्या कृष्णन) से इस फिल्म में इन तीनों की अपेक्षा न ही करें तो बेहतर है. ‘बाहुबली’ में जहाँ वो नारी-सशक्तिकरण का एक दमदार उदाहारण बनकर आपके रोंगटे खड़े करने में कामयाब रहीं थीं, अचानक क्यूँ षड्यंत्र की शिकार एक अबला, अहंकारी नारी का चोला ओढ़ लेती हैं, राजामौली सर ही बता सकते हैं. उनके किरदार का पतन ही शायद एकमात्र जरिया बचा हो, देवसेना (अनुष्का शेट्टी) के किरदार की मजबूती जाहिर करने में, वरना कौन सोच सकता है कि बेटे की ‘मुझे वो चाहिए, माँ’ जैसी फरमाईश पर लड़की से पूछे बिना शिवगामी देवी कहें, “जा, वो तेरी होगी!” कहानी के लिए किरदार की बलि??

...पर इन सबके बावजूद, कोई तो है जो आपको रत्ती भर भी निराश नहीं करता! एस एस राजामौली जिस तरह की मनमोहक दुनिया, जिस तरह के मनोरम दृश्य आपके लिए परदे पर रचते हैं, पर्दा छोटा पड़ जाता है, और आप अवाक रह जाते हैं. उनकी यह दुनिया रामायण और महाभारत जैसी पौराणिक कहानियों से ही प्रेरित है, फिर भी जिस सफाई और जिस शिद्दत से वो आपको इसके इंच-इंच से रूबरू कराते हैं, आपको ‘माहिष्मती’ के अस्तित्व पर तनिक भी सदेह नहीं होता. इस दुनिया में टेलिस्कोप भी है, ह्यूमन राकेट लांचर जैसी तकनीक भी. देखते हुए आपको हंसी भी आती है, पर ये हंसी राजामौली सर की खूबियों को नकारने की हिमाकत कभी नहीं करती. राजामौली सर के कल्पना की उड़ान युद्ध के दृश्यों में और निखर कर सामने आती है. बेहतरीन विज़ुअल ग्राफ़िक्स के इस्तेमाल से आपके लिए तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि कौन सा हिस्सा असली है, कौन सा ग्राफ़िकल?  

प्रभास गज़ब के अदाकार हैं. रोमांस, कॉमेडी, एक्शन और इमोशनल दृश्यों में उनका करिश्मा, उनकी पकड़, उनका भरोसा कहीं भी डगमगाता नहीं है. परदे पर उनका चलना, दौड़ना, एक्शन करना उन्हें हर उस सुपरस्टार के बराबर ला खड़ा करता है, जिन्हें भारतीय सिनेमा में दर्शक मानते नहीं, पूजते हैं. राणा डग्गुबाती अपने शानदार डील-डौल से एक्शन दृश्यों में जान फूँक देते हैं. इस बात से अलग कि उनके किरदार कटप्पा के साथ फिल्म में क्या अजीब-ओ-गरीब हो रहा है, सत्यराज को अपनी अदाकारी के जौहर दिखाने के बहुत मौके मिले हैं इस फिल्म में, और सब में वो बहुत ही मनोरंजक लगे हैं. अनुष्का शेट्टी पिछले भाग की सारी शिकायतें और अभिनय में रही सही सब कसर इस फिल्म में पूरी कर देती हैं. राम्या कृष्णन बिजली की तरह परदे पर चमकती हैं. काश, उनके फिल्म की कहानी किरदार की धार बरक़रार रहने देती!

आखिर में, “बाहुबली 2” एक भरपूर मनोरंजक फिल्म है, जो अपने बेहतरीन विज़ुअल ग्राफ़िक्स और ढेर सारे अद्भुत रोमांचक दृश्यों की मदद से एक ऐसी परंपरागत ढ़ांचे की कहानी गढ़ती है, जिसमें समझदारी की गुंजाईश बहुत है. ‘बाहुबली’ के साथ एक फायदे की बात थी कि उस जैसा हमने पहले कभी कुछ नहीं देखा था; ‘बाहुबली 2’ के साथ ये इमोशन नहीं जुड़ता. फिर भी, न देखने की कोई सूरत ही नहीं बचती; कुछ रिश्तों को ‘क्लोज़र’ की जरूरत पड़ती ही है. ‘बाहुबली’ के साथ हम ऐसे ही एक रिश्ते में हैं, और ‘बाहुबली 2’ है उसका ‘हैप्पी क्लोज़र’! बेहतर नहीं, तो कमतर भी नहीं! [3.5/5] 

Friday, 21 April 2017

नूर: ‘लाइक इट फॉर सोनाक्षी!’ [3/5]

नूर’ बॉलीवुड में किसी बहुत बड़े बदलाव का दावा नहीं करती, पर अपने देखने वालों को ऐसा न कर पाने का ग़म भी मनाने नहीं देती. कैसे आजकल की फिल्मों को जमीनी और ज़हीन होने की जरूरत है, इस कसौटी पर अक्सर हम दर्शक और फिल्म-समीक्षक उन्हें सिरे से खारिज़ करते या सर पर बैठाते आये हैं. ‘नूर’ इस मामले में हमसे कहीं ज्यादा समझदारी दिखाती है. हिंदी फिल्मों के लिए आज अगर ‘मेनस्ट्रीम सिनेमा’ का कोई ख़ाका मेरे दिमाग में बनता है, तो ‘नूर’ उसके बहुत आस-पास है. ‘नूर’ अपने मुख्य किरदार की ही तरह, एक ही वक़्त में भरोसेमंद भी है, और ढुलमुल भी; पर उसकी तरह बेतरतीब, बेपरवाह और बेढंगी बिलकुल नहीं.

नूर रॉय चौधरी (सोनाक्षी सिन्हा) की ज़िंदगी में शिकायतों की कोई कमी नहीं. घर के खराब गीज़र से लेकर टीआरपी खोजने वाली पत्रकारिता की दुनिया में मुर्दे की तरह ठंडा कैरियर; नूर हर बात पर रोने-धोने वाली कोई भी आम लड़की है. उसे सनी लियॉन के इंटरव्यू से ज्यादा असली लोगों की असली जिंदगी में झाँकने का शौक है. और हड़बड़ी कि कब उसे भी ‘इश्यू बेस्ड’ जर्नलिस्म में जौहर दिखाने का मौका मिले. यहाँ तक की फिल्म पूरी ताजगी और हलके-फुल्के पलों के साथ आपको कई सारी अच्छी हॉलीवुड ‘डेट’ फिल्मों की याद लगातार दिलाती रहती है, खासकर ‘ब्रिजेट जोंस’ सीरीज के फिल्मों की. घटनाएं इसके बाद संजीदा हो जाती हैं, जब नूर को एक ऐसा ही मौका मिलता है, पर अपने बचकाने रवैय्ये से वो सब कुछ गँवा बैठती है.

सनहिल सिप्पी के खाते में ‘स्निप!’ जैसी इंडी फिल्म पहले से है. ‘नूर’ के साथ वो 17 साल बाद बॉलीवुड में वापसी कर रहे हैं. पाकिस्तानी लेखिका सबा इम्तियाज़ की किताब ‘कराची, यू आर किलिंग मी’ पर आधारित, ‘नूर’ में सनहिल मेनस्ट्रीम हिंदी फिल्मों को एक नयी खुशबू में पिरो कर पेश करने का प्रयोग करते हैं, जो देखने में बहुत कुछ ‘डियर जिंदगी’ और ‘कपूर एंड संस’ जैसा ही लगता है. हालाँकि ‘नूर’ की कहानी में इन दोनों फिल्मों जैसी सच्चाई और ईमानदारी थोड़ी कम ही है, फिर भी फिल्म में 3 चीजें आपको एक पल के लिए भी निराश नहीं करतीं. सोनाक्षी को इस फिल्म में एक ‘न्यूकमर’ की तरह देखा जाना चाहिए, एक कॉंफिडेंट न्यूकमर की तरह. बड़ी-बड़ी नायक-प्रधान फिल्मों में अपनी बेबाकी और दिलेरी से वो भले ही जगह बनाए रखने में कामयाब दिखी हों, इस छोटी सी फिल्म के साथ अभिनेता के तौर पर, सोनाक्षी अपनी हर हद तोड़ने की कोशिश करती हैं, और कामयाबी कई बार महज़ कोशिशों में भी खोजी जानी चाहिए. ‘मुंबई, यू आर किलिंग मी’ के मोनोलॉग में सोनाक्षी को सराहते-सराहते, अचानक आप इशिता मोइत्रा उधवानी के लिखे संवादों की तारीफ़ के लिए सटीक शब्दों की खोज करने लगते हैं. पैने, तीखे, धारदार, बेतकल्लुफ़, नपे-तुले, मज़ेदार; मेरे जेहन में कुछ इतने ही आये हैं. इशिता की कलम वहाँ सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, जहां आप पहले से जानते हैं कि किरदार कुछ रटा-रटाया ही बोलने वाले हैं, जैसे कैमरे के सामने स्मिता ताम्बे के किरदार का बयान.

फिल्म में किको नाकाहारा का कैमरा बड़ी ख़ूबसूरती से मुंबई को परदे पर उकेरता है. किरदारों के हाव-भाव कैद करने में नाटकीयता का सहारा कम ही लेता है, और एक सपनीली दुनिया की तरह सब कुछ अच्छा-अच्छा दिखाने में ज्यादा मशगूल रहता है, मगर बहुत ही सधे हुए प्रयोगों के साथ. यही वजह है कि अक्सर किको अपने आप को दोहराते जरूर नज़र आते हैं, पर कहीं भी बोर नहीं करते. मशहूर स्टैंड-अप कॉमिक कनन गिल औसत राइटिंग की वजह से फिल्म में दिखते तो बहुत हैं, अच्छे भी लगते हैं पर बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाते. शिबानी दांडेकर, पूरब कोहली, स्मिता ताम्बे और मनीष चौधरी एक साथ मिलकर फिल्म को एक मज़बूत सपोर्ट सिस्टम की तरह संभालते हैं. फिल्म के छोटे से छोटे दृश्यों में भी इन कलाकारों की मौजूदगी आपकी दिलचस्पी कम नहीं पड़ने देती.

एक दृश्य में, नूर अपनी नाराज़ कामवाली बाई मालती (स्मिता ताम्बे) के बंद कमरे के सामने बैठी उसे फेसबुक पर फ्रेंड-रिक्वेस्ट भेजती है. नूर की बेवकूफी की वजह से मालती अपना भाई खो चुकी है. फिल्म के आखिरी दृश्यों में, मालती के लिए इन्साफ की लड़ाई लड़ते हुए नूर सोशल मीडिया का सहारा लेती है, और फिर कहीं जाकर एक दिन मालती उसका फ्रेंड-रिक्वेस्ट मान लेती है. ‘नूर’ एक फिल्म के तौर पर इतनी ही असली, इतनी ही कम महत्वाकांक्षी, इतनी ही भोली और इतनी ही फिल्मी है. फेसबुक और ट्विटर पर पोस्ट्स लिखने से क्रांति नहीं आती, ‘नूर’ अच्छी तरह जानती है, पर ‘लाइक्स’ तो आते हैं. ‘लाइक इट फॉर सोनाक्षी!’ [3/5]

Friday, 14 April 2017

बेगम जान: हो जाएगा, एक ‘रीमेक’ और लगेगा! [2/5]

कोठेवालियां मुंहफट होती हैं. बेहयाई की हद पार करने में न आव देखती हैं, न ताव. अपनी पे आ जायें तो खुले-आम कपड़े उतार भी सकती हैं, और उतरवा भी. कपड़े ही क्यूँ? समाज के दोगले, दोहरे चेहरों से नकाब खींच कर, समाज के सामने ही नंगा भी कर सकती हैं. अपने रिसते-सड़ते घाव खुले में ही उघार कर बैठ जाती हैं कुरेदने. गालियों को रंग-बिरंगी लाली बनाकर होठों पे ऐसे सज़ा लेतीं हैं, जैसे उनके बिना इनका साज़-संवार पूरा ही नहीं होता. हिंदी फिल्मों में कोठेवालियों या रंडियों को सिर्फ और सिर्फ इन्हीं प्रतीकों, इन्हीं मापदंडों से नापे जाने की आदत बहुत पहले से हैं. हाँ, श्याम बेनेगल की ‘मंडी’ कुछेक ऐसे चंद नामों में से जरूर है, जो तासीर और तस्वीर दोनों में ढर्रे से बहुत अलग और बहुत आगे की फिल्में मानी जा सकती हैं. बहुत दुःख की बात है कि सृजित मुखर्जी की ‘बेगम जान’ पहले वाली ही कैटेगरी में ही अपना नाम दर्ज करा पाती है.

मंडी’ का जिक्र यहाँ और भी ख़ास इसलिए हो जाता है, क्यूंकि ‘बेगम जान’ अपनी कहानी का काफी हिस्सा ‘मंडी’ से ही ले आती है. समाज और सरकारों से अपने कोठे को छोड़कर कहीं और चले जाने का बेरहम फरमान, दोनों ही फ़िल्मों में कहानी की नींव बुलंद करते हैं. दोनों ही फिल्में औरतों के उस उपेक्षित तबके का संघर्ष परदे पर पेश करती हैं, जो सदियों से दबी-कुचली और मुख्यधारा से कटी-बंटी हैं. हालाँकि ‘बेगम जान’ में भारत-पाकिस्तान बंटवारे की त्रासदी का तड़का कहानी को और सनसनीखेज जरूर बना देता है, पर ‘मंडी’ की सटीक संवेदनाएं, ‘मंडी’ की सी साफगोई, ‘मंडी’ की सी धार को छू भर पाने में भी नाकामयाब रहता है. फिल्म के एक हिस्से में रुबीना (गौहर खान) अपने दलाल आशिक़ (पितोबाश त्रिपाठी) के हाथ अपने जिस्म पर फेरते हुए कहती है, “रुबीना मांस के इन लोथड़ों में नहीं हैं, रुबीना आँखों से बहते इन आंसुओं में है.” काश, फिल्म खुद अपनी इन लाइनों को समझने का माद्दा दिखा पाती. बदन उघाड़ कर दिखाने की बैसाखी छोड़ कर, जिस्मों की छाल के भीतर का दर्द कुरेदने की हिम्मत जुटा पाती!

बेगम जान’ सृजित मुखर्जी की अपनी ही बंगाली फिल्म ‘राजकहिनी’ का रीमेक हैं. फिल्मों को ‘फ्रेम टू फ्रेम’ दुबारा बनाने का चस्का जाने कब रुकेगा? वो भी तब, जब उसमें आपका ‘वैल्यू एडिशन’ जीरो के बराबर हो. इस फिल्म से ‘भट्ट कैंप’ अपनी रिहाई तलाश रहा है. बेहतर होता, अगर सब कुछ ‘ज्यों का त्यों’ दुबारा गढ़ने के बजाय, लेखन और निर्देशन में नए नजरिये तलाशने की कोशिश की गयी होती. फिल्म एक साथ बहुत सारी बातों को इशारों-इशारों में एक के बाद एक बिना रुके पिरोती जाती है. बेगम जान (विद्या बालन) का कोठा अक्सर देश की तरह सुनाई देने लगता है, जब वहां रहने वाली हर लड़की अलग-अलग बोली बोलते नज़र आती है. कहने में भले ही बहुत भावुक लगता हो, परदे पर सुनने में ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ जितना ही चिड़चिड़ाहट भरा. ऐसा ही एक प्रयोग सृजित, भारत-पाकिस्तान के दो अधिकारियों (आशीष विद्यार्थी और रजित कपूर) के बीच की बातचीत के वक़्त करते हैं, जब परदे पर बारी-बारी से दोनों के चेहरे सिर्फ आधे-आधे ही दिखाई देते हैं. बंटवारे का दर्द चेहरे बाँट-बाँट कर दिखाने का ये बचकाना प्रयोग बार-बार दोहराया जाता है, जब तक आप ऊब कर इधर-उधर न देखने लगें.

कास्टिंग के नजरिये से, फिल्म बेहद दिलचस्प है. कोठे की मालकिन की भूमिका में, विद्या बालन शुरू-शुरू में तो अपने तेज़-तर्रार, अक्खड़ और बेबाक किरदार को बड़े सलीके से निभाती हैं, पर अंत तक आते-आते उनमें न जाने कौन सी बिजली दौड़ने लगती है कि उनकी बदहवासी धीरे-धीरे नाटकीयता की सारी हदें पार कर जाती है. शबाना आज़मी मोड में तो वो कभी नहीं रहीं, पर अपने आप के अभिनय मापदंडों को भी भुलाने में उन्हें ज्यादा देर नहीं लगती. गौहर खान, पल्लवी शारदा और आखिर के कुछ दृश्यों में रिद्धिमा तिवारी अपना काम अच्छे से कर जाती हैं, और शिकायत का मौका नहीं देतीं. इला अरुण और दंगाई कबीर की भूमिका में चंकी पाण्डेय हैरान कर देते हैं.

सृजित शुरुआत में ‘बेगम जान’ मंटो और इस्मत चुगताई को समर्पित करने की ढिठाई दिखाते हैं, और ‘वो सुबह कभी तो आएगी’ से ख़तम करने की सीनाजोरी. दोनों लेखकों को जिसने पढ़ा हो, वो बिना कहे समझ पायेगा कि बॉलीवुड इन दोनों का कैसे और कितना गलत इस्तेमाल कर सकता है? बंटवारे और वेश्याओं का जो कुछ भी सनसनीखेज दिखावा परदे पर बन सकता था, सृजित सब कुछ कर गुजरते हैं. इतना ही नहीं, इतिहास के पन्नों से ढूंढ-ढूंढ कर रानी लक्ष्मीबाई, रज़िया सुल्ताना जैसी वीरांगनाओं का भी सहारा ले लेते हैं, पर अफ़सोस, ‘बेगम जान’ कहती कम है, शोर-शराबा ज्यादा करती है, दिखावों में उलझ कर रह जाती है, यहाँ तक कि उसके बलिदान में भी आपको अपनी ‘मुक्ति’ ज्यादा नज़र आती है...2 घंटे 14 मिनट के इस ‘ड्रामे’ से! किस्मत सृजित का साथ दे, तो तीसरी बार शायद अच्छी बन जाये! [2/5]       

Friday, 7 April 2017

मुक्ति-भवन: दर्शन-चिंतन और मनोरंजन का बेहतरीन मेल-मिलाप! [4.5/5]

जो बनारस के करीब हैं, या बनारस जिनके दिल के करीब है, वो इस अनुभव की पुष्टि खुले दिल से करेंगे कि मृत्यु को लेकर जितना जंजाल, जितना हो-हल्ला, जितना झमेला, जितना ऊल-जलूल हौव्वा हमने अपने दिमाग में पाल रक्खा है; बनारस किसी कारगर दवा की तरह एक ही ख़ुराक में सब हर लेता है. मृत्यु को मात्र एक प्रक्रिया मानकर, शांत-चित्त से देखने और जीने का गुर सीखना हो, तो नाव पर बैठकर बनारस के घाटों को बस एकटक निहारते रहिये. शुभाशीष भूटियानी की ‘मुक्ति-भवन’ कुछ ऐसा ही दुर्लभ, गहन, पर रोचक अनुभव परदे पर पेश करती है, जहां मौत की अवधारणा जिन्दगी के आम उतार-चढ़ाव से कहीं ज्यादा शांत और मनोरंजक लगती है.

बाबूजी (ललित बहल) को एक ही सपना बार-बार दिखाई देने लगा है. उनकी मानें, तो अब उनके (पहले बनारस, और फिर मर कर ऊपर) जाने का वक़्त आ गया है. हालाँकि उनकी बहू (गीतांजली कुलकर्णी) को ये सब बस घूमने-फिरने के चोंचले लगते हैं. इन सब में बेटे राजीव (आदिल हुसैन) की मुश्किलें बढ़ गयी हैं. बाबूजी के साथ बनारस के मुक्ति-भवन में रहना पड़ेगा, जहां बाबूजी जैसे और भी लोग हैं जो मोक्ष-प्राप्ति के लिए बनारस में ही अपनी मृत्यु की राह जोह रहे हैं. विमलाजी (नवनिन्द्र बहल) को तो 18 साल हो गये, हर 15 दिन बाद नाम बदल कर मुक्ति-भवन में ही टिकी हैं. राजीव को शायद इतना इंतज़ार न करना पड़े, मुक्ति-भवन के कर्ता-धर्ता मिश्राजी (अनिल रस्तोगी) देख कर ही बता देते हैं कि किसका वक़्त नज़दीक है?

शुभाशीष भूटियानी फिल्म के यथार्थवादी कथानक को पूरी तरह तवज्जो देते हुए, बनारस में होते हुए भी अति-लोकप्रिय दृश्यों और अति-प्रचलित प्रतीकों के जरिये बनारस को परदे पर दोहराने से बचते हैं. उनका बनारस छोटे-छोटे सीलन भरे कमरों, तंग गलियों, संकरी सीढ़ियों और खुली छतों के किनारों से गंगा को ताकने तक ही खुद को सीमित रखता है. यहाँ तक कि उनका कैमरा गंगा-आरती जैसे मनोरम, दैविक और दर्शनीय पलों के वक़्त भी अपने जमीनी किरदारों के हाव-भाव पर ही ज्यादा केन्द्रित रहता है. शुभाशीष अपने हलके-फुल्के व्यंग्य और खालिस असली किरदारों के साथ सिनेमा और वास्तविक जिन्दगी का फर्क सा ही मिटा देते हैं. मौत के इंतज़ार में बेटा सोते हुए बाप की सांस टटोल रहा है, और बाप है कि मृत्यु-शैय्या पर लेटे-लेटे भी भजन-मंडली को सुर में गाने की सलाह दे रहा है. बुजुर्ग बाप और अधेड़ उम्र के बेटे के बीच की ख़ामोशी भी बहुत बार बहुत कुछ बोलती सुनाई देती है. विमलाजी जब बाबूजी से कहती हैं, “मुझे जलन होती, अगर आप यहाँ आये इतनी जल्दी मर जाते” तो अचानक मौत जैसे एक ही साथ बहुत हलकी और गहरी दोनों लगने लगती है. ऐसे ही एक मार्मिक पल में, घिसे-पिटे, खानापूर्ति के लिए अख़बार में छपवाए गए शोक-संदेशों से ऊब कर, ‘मुक्ति-भवन’ के सारे बूढ़े-बुजुर्ग अपनी-अपनी मृत्यु का शोक-संदेह खुद ही लिखने बैठ जाते हैं.

‘मुक्ति-भवन’ अदाकारी में एक अध्याय की तरह देखा जाना चाहिए. आदिल हुसैन की अकुलाहट, उकताहट और सकुचाहट उनकी आँखों की गहराई से निकलती है, और आपको अन्दर तक छू जाती है. कितनी ही बार उनका चेहरा पूरे स्क्रीन पर बिना कुछ कहे, पूरी तसल्ली के साथ अपनी बेचैनी बयाँ कर जाता है. बनारस की गलियों और घाटों पर भटकते हुए बड़ी तल्लीनता और सजगता से आदिल एक नामचीन कलाकार से आगे बढ़कर, महज़ एक चेहरा, एक किरदार बन भीड़ में खो जाते हैं. ललित बहल के अभिनय में ठहराव फिल्म की रफ़्तार से पूरी तरह कदम मिला कर चलती है. नवनिन्द्र और अनिल रस्तोगी अपने अपने हिस्सों को इतनी सुगमता से जीते हैं कि उन्हें परदे पर बार-बार देखने की तलब होने लगती है. गीतांजलि कुलकर्णी और उनकी बेटी की भूमिका में पलोमी घोष कम वक़्त के लिए ही सही, पर परदे पर अपने सधी अदाकारी से प्रभावित करने में सफल रहती हैं.

आखिर में; ‘मुक्ति-भवन’ जीवन-मृत्यु के घोर-चिंतन और रिश्तों की पेचीदगी को बड़ी परिपक्वता और पूरी संजीदगी से कुछ इस तरह परदे पर जिंदा करती है, कि आप जिंदगी से कहीं ज्यादा मौत के फ़लसफ़े का आनंद लेने में मग्न रहते हैं. फिल्म में मिश्राजी बिना बात राजीव को मशवरा देते हैं, “आप पान खाया कीजिये!”, ‘मुक्ति-भवन’ के लिए मैं भी कुछ ऐसा ही कहूँगा, “देख आईये! कुछ बातों के लिये वजहें खोजने की जरूरत नहीं. कुछ बातों को वजहों की दरकार नहीं.” सिनेमाई परदे पर जीवन-मृत्यु को लेकर दर्शन-चिंतन और मनोरंजन का इतना सटीक मेल-मिलाप पिछली बार रजत कपूर की ‘आँखों-देखी’ में ही दिखा था. [4.5/5]