‘बाग़ी 2’ देखना ढाई घंटे ज़िम में बिताने
जितना ही तकलीफ़देह है. फायदेमंद इसलिए नहीं बोलूँगा क्यूंकि आप खुद कोई कसरत, कोई
मेहनत नहीं कर रहे और बैठे-बैठे सिर्फ कुछ मुस्टंडों, कुछ बॉडी बिल्डर्स (और एक नाम
भर के टाइगर) को गुर्राते, गरजते और चीखते-चिल्लाते हुए ऐसा करते देख रहे हैं. अब
आप कितनी देर तक इन्हें निहार सकते हैं, आपकी अपनी बौद्धिक क्षमता, सहनशीलता और
आपकी अपनी दिलचस्पी पर निर्भर करता है. और अगर आप ज़िम के साथ फिल्म की मेरी इस समानता
को सही-सही समझ पायें, तो फिल्म और फिल्म के किरदारों से किस तरह की और कितनी उम्मीद
करनी है, आपके लिए बेहद आसान हो सकता है. अपने मुख्य किरदार को परदे पर पेश करने
के लिए फिल्म कश्मीर के हालिया ‘जीप के आगे पत्थरबाज़ को बाँध के घुमाने’ वाली घटना
का ना सिर्फ सहारा लेती है, बल्कि उसे बड़ी बेशर्मी से उचित ठहराने का भी पूरा
स्वांग रच देती है.
नायक नायक है और ऊपर से भारतीय फौज़ का
सिपाही, इसलिए उसकी देशभक्ति बार-बार परदे पर कुछ इस तरह ज़ाहिर की जाती है, जैसे
आप बीमार हों और देशभक्ति का ये इंजेक्शन ही आपको बचा सकता है. वरना कौन सवाल करे,
जब एक फौज़ी पूरे के पूरे पुलिस स्टेशन को ही नाकारा घोषित कर के हवलदार से लेकर
थानेदार तक सबकी मरम्मत कर रहा हो. आप को तो सिर्फ उसके चेहरे पर सेना का मुखौटा
और उसकी लात से टूटते हुए टेबल से गिरते हुए तिरंगे को स्लो-मोशन में बचाना ही दिख
रहा है. कानून का टूटना और संविधान का गिरना तो आप देख ही नहीं पाए. खैर, ये तो
नींव रखने वाली बात है. दरअसल आपको तैयार किया जा रहा है, फिल्म के आखिरी क्षणों में
सवाल न पूछ कर चुपचाप नायक के शानदार दिखने वाले वाहियात स्टंट्स पर मंत्रमुग्ध
होने के लिए. सवाल पूछने का हक अब आप खो चुके हैं. ‘तब कहाँ थे?’ वाले झांसे में
फँस चुके हैं.
‘बाग़ी 2’ में कहानी किसकी है? पता
नहीं चलता (या शायद मैंने ही मिस कर दिया हो), पर ‘स्टोरी अडॉप्टेशन’ का श्रेय लेने
में फिल्म के निर्माता साजिद नाडियादवाला कोई झिझक नहीं दिखाते. फिल्म पूरी तरह
तेलुगु फ़िल्म ‘क्षणम’ से ली हुई है. ली हुई इसलिए क्यूंकि इसके ‘ऑफिशियल रीमेक’
होने का ज़िक्र अभी तक कम से कम मैंने तो कहीं किसी से नहीं सुना. बॉर्डर पर लड़ रहे
रणवीर प्रताप सिंह उर्फ़ रॉनी (टाइगर श्रॉफ) को 4 साल बाद उसकी एक्स-गर्लफ्रेंड
नेहा (दिशा पटनी) का फ़ोन आता है. उसकी बेटी रिया 2 महीने से अगवा है. रॉनी उसकी
मदद के लिए गोवा की स्थानीय पुलिस से लेकर वहाँ के ड्रग-माफिया से अकेला लड़ रहा
है. हालाँकि पत्थरबाज़ को जीप से बाँधने से ज्यादा उसके खोजी या जासूसी दिमाग की कोई
उपलब्धि आपने देखी नहीं है, फिर भी गोवा आते ही वो अपने आप सबूतों, गवाहों और संदिग्धों
तक बड़ी आसानी से पहुँच जाता है.
फिल्म के बारे में बात करते हुए, मैं
चाहूं तो टाइगर और दिशा को बड़ी आसानी से नज़रन्दाज़ कर सकता हूँ, और आपको उनकी कमी
भी नहीं खलेगी. जहां ग्रैंडमास्टर शिफूजी जैसा स्व-घोषित देशभक्त अपनी बनावटी अकड़ को
ही परदे पर बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने में लगा रहता है, दीपक डोबरियाल और मनोज बाजपेयी
जैसे उम्दा कलाकार भी जाने किस बेहोशी की हालत में अपने किरदार निभाते दिखते हैं. (स्पॉइलर
अलर्ट) फिल्म के आखिरी दृश्य में टाइगर का किरदार मनोज के किरदार को लात चला-चला
कर मार रहा होता है, फिल्म की वाहियात दलीलों और बेकार की अदाकारी से, इस वक़्त तक मेरा
दिमाग सुन्न और शरीर जकड चुका होता है, वरना उठ कर थिएटर छोड़ने के लिए अब और किसी
वजह की जरूरत नहीं बचती थी. रणदीप हुडा जरूर मनोरंजन की थोड़ी उम्मीद बचाए रखते
हैं, और अभिनय में वही सबसे कम निराश करते हैं.
आखिर में; बेहद जरूरी है कि फिल्म देखते वक़्त आप सवाल करें. खुद से भी, और फिल्म से भी. देश के राजनीतिक हालात और हिंदी सिनेमा के गिरते स्तर में ज्यादा फर्क बचा नहीं है. तो टाइगर जब भी किसी का कॉलर पकड़ के चीखे, “रिया कहाँ है?”, आप भी पूछिए. “पांचवी फिल्म है. एक्टिंग कहाँ है?. निर्देशक अहमद खान जब गोवा के जंगलों में वियतनाम वॉर छेड़ दें, तो पूछिए, “एक्शन तो ठीक है, लॉजिक कहाँ है?’. अभी पूछिए. कहीं नौबत ना आ जाये, जब पूछना पड़े, “सिनेमा कहाँ है?’. [1/5]
आखिर में; बेहद जरूरी है कि फिल्म देखते वक़्त आप सवाल करें. खुद से भी, और फिल्म से भी. देश के राजनीतिक हालात और हिंदी सिनेमा के गिरते स्तर में ज्यादा फर्क बचा नहीं है. तो टाइगर जब भी किसी का कॉलर पकड़ के चीखे, “रिया कहाँ है?”, आप भी पूछिए. “पांचवी फिल्म है. एक्टिंग कहाँ है?. निर्देशक अहमद खान जब गोवा के जंगलों में वियतनाम वॉर छेड़ दें, तो पूछिए, “एक्शन तो ठीक है, लॉजिक कहाँ है?’. अभी पूछिए. कहीं नौबत ना आ जाये, जब पूछना पड़े, “सिनेमा कहाँ है?’. [1/5]