Friday, 30 March 2018

बाग़ी 2: एक्शन तो है, पर एक्टिंग? लॉजिक? सिनेमा? [1/5]

‘बाग़ी 2’ देखना ढाई घंटे ज़िम में बिताने जितना ही तकलीफ़देह है. फायदेमंद इसलिए नहीं बोलूँगा क्यूंकि आप खुद कोई कसरत, कोई मेहनत नहीं कर रहे और बैठे-बैठे सिर्फ कुछ मुस्टंडों, कुछ बॉडी बिल्डर्स (और एक नाम भर के टाइगर) को गुर्राते, गरजते और चीखते-चिल्लाते हुए ऐसा करते देख रहे हैं. अब आप कितनी देर तक इन्हें निहार सकते हैं, आपकी अपनी बौद्धिक क्षमता, सहनशीलता और आपकी अपनी दिलचस्पी पर निर्भर करता है. और अगर आप ज़िम के साथ फिल्म की मेरी इस समानता को सही-सही समझ पायें, तो फिल्म और फिल्म के किरदारों से किस तरह की और कितनी उम्मीद करनी है, आपके लिए बेहद आसान हो सकता है. अपने मुख्य किरदार को परदे पर पेश करने के लिए फिल्म कश्मीर के हालिया ‘जीप के आगे पत्थरबाज़ को बाँध के घुमाने’ वाली घटना का ना सिर्फ सहारा लेती है, बल्कि उसे बड़ी बेशर्मी से उचित ठहराने का भी पूरा स्वांग रच देती है.

नायक नायक है और ऊपर से भारतीय फौज़ का सिपाही, इसलिए उसकी देशभक्ति बार-बार परदे पर कुछ इस तरह ज़ाहिर की जाती है, जैसे आप बीमार हों और देशभक्ति का ये इंजेक्शन ही आपको बचा सकता है. वरना कौन सवाल करे, जब एक फौज़ी पूरे के पूरे पुलिस स्टेशन को ही नाकारा घोषित कर के हवलदार से लेकर थानेदार तक सबकी मरम्मत कर रहा हो. आप को तो सिर्फ उसके चेहरे पर सेना का मुखौटा और उसकी लात से टूटते हुए टेबल से गिरते हुए तिरंगे को स्लो-मोशन में बचाना ही दिख रहा है. कानून का टूटना और संविधान का गिरना तो आप देख ही नहीं पाए. खैर, ये तो नींव रखने वाली बात है. दरअसल आपको तैयार किया जा रहा है, फिल्म के आखिरी क्षणों में सवाल न पूछ कर चुपचाप नायक के शानदार दिखने वाले वाहियात स्टंट्स पर मंत्रमुग्ध होने के लिए. सवाल पूछने का हक अब आप खो चुके हैं. ‘तब कहाँ थे?’ वाले झांसे में फँस चुके हैं.

‘बाग़ी 2’ में कहानी किसकी है? पता नहीं चलता (या शायद मैंने ही मिस कर दिया हो), पर ‘स्टोरी अडॉप्टेशन’ का श्रेय लेने में फिल्म के निर्माता साजिद नाडियादवाला कोई झिझक नहीं दिखाते. फिल्म पूरी तरह तेलुगु फ़िल्म ‘क्षणम’ से ली हुई है. ली हुई इसलिए क्यूंकि इसके ‘ऑफिशियल रीमेक’ होने का ज़िक्र अभी तक कम से कम मैंने तो कहीं किसी से नहीं सुना. बॉर्डर पर लड़ रहे रणवीर प्रताप सिंह उर्फ़ रॉनी (टाइगर श्रॉफ) को 4 साल बाद उसकी एक्स-गर्लफ्रेंड नेहा (दिशा पटनी) का फ़ोन आता है. उसकी बेटी रिया 2 महीने से अगवा है. रॉनी उसकी मदद के लिए गोवा की स्थानीय पुलिस से लेकर वहाँ के ड्रग-माफिया से अकेला लड़ रहा है. हालाँकि पत्थरबाज़ को जीप से बाँधने से ज्यादा उसके खोजी या जासूसी दिमाग की कोई उपलब्धि आपने देखी नहीं है, फिर भी गोवा आते ही वो अपने आप सबूतों, गवाहों और संदिग्धों तक बड़ी आसानी से पहुँच जाता है.

फिल्म के बारे में बात करते हुए, मैं चाहूं तो टाइगर और दिशा को बड़ी आसानी से नज़रन्दाज़ कर सकता हूँ, और आपको उनकी कमी भी नहीं खलेगी. जहां ग्रैंडमास्टर शिफूजी जैसा स्व-घोषित देशभक्त अपनी बनावटी अकड़ को ही परदे पर बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने में लगा रहता है, दीपक डोबरियाल और मनोज बाजपेयी जैसे उम्दा कलाकार भी जाने किस बेहोशी की हालत में अपने किरदार निभाते दिखते हैं. (स्पॉइलर अलर्ट) फिल्म के आखिरी दृश्य में टाइगर का किरदार मनोज के किरदार को लात चला-चला कर मार रहा होता है, फिल्म की वाहियात दलीलों और बेकार की अदाकारी से, इस वक़्त तक मेरा दिमाग सुन्न और शरीर जकड चुका होता है, वरना उठ कर थिएटर छोड़ने के लिए अब और किसी वजह की जरूरत नहीं बचती थी. रणदीप हुडा जरूर मनोरंजन की थोड़ी उम्मीद बचाए रखते हैं, और अभिनय में वही सबसे कम निराश करते हैं.

आखिर में; बेहद जरूरी है कि फिल्म देखते वक़्त आप सवाल करें. खुद से भी, और फिल्म से भी. देश के राजनीतिक हालात और हिंदी सिनेमा के गिरते स्तर में ज्यादा फर्क बचा नहीं है. तो टाइगर जब भी किसी का कॉलर पकड़ के चीखे, “रिया कहाँ है?”, आप भी पूछिए. “पांचवी फिल्म है. एक्टिंग कहाँ है?. निर्देशक अहमद खान जब गोवा के जंगलों में वियतनाम वॉर छेड़ दें, तो पूछिए, “एक्शन तो ठीक है, लॉजिक कहाँ है?’. अभी पूछिए. कहीं नौबत ना आ जाये, जब पूछना पड़े, “सिनेमा कहाँ है?’. [1/5]

Friday, 23 March 2018

हिचकी: रानी पास, फिल्म फ़ेल! [2/5]


यशराज फिल्म्स की ‘हिचकी’ में रानी मुखर्जी एक ऐसे टीचर के किरदार में परदे पर वापसी कर रही हैं, जो टूरेट्स’ सिंड्रोम (tourette’s syndrome) से जूझ रही है. उसके ही शब्दों में समझने की कोशिश करें तो जब दिमाग के कई सारे तार आपस में एक साथ नहीं जुड़ते, तो बिजली के झटकों जैसे लगते रहते हैं. रानी के किरदार की तकलीफ के प्रति संवेदनशील या असंवेदनशील होने की शर्त से परे होकर भी देखें, तो उसकी इस ख़ास हिचकी से ज्यादातर वक़्त आपके चेहरे पर मुस्कराहट ही फैलती है, और यकीन जानिये रानी का काबिल अभिनय फिल्म के ख़तम होने के बाद, आपसे उनके उस ख़ास हाव-भाव की नक़ल आपसे बरबस करा ही लेगा. हालाँकि फिल्म में कई बार दूसरे किरदारों से आप सुनते रहते हैं कि कैसे नैना माथुर (रानी मुखर्जी) ने सबको टूरेट्स’ सिंड्रोम के बारे में बता कर कुछ नया सिखाया है, पर जाने-अनजाने शायद फिल्म की सबसे बड़ी कामयाबी असल में भी यही है.

नैना अकेली नहीं है, जो किसी तरह के सिंड्रोम या डिसऑर्डर से जूझ रही है. पढ़ाने के लिए उसे मिली क्लास गरीब बस्ती के बाग़ी, बिगडैल और बदतमीज़ बच्चों की है, जिनके लिए गरीबी, अशिक्षा और मुख्यधारा का तिरस्कार ही सबसे बड़ा सिंड्रोम है, और बाकी स्कूल के लिए उनकी अपनी छोटी सोच. नैना इन सबसे अकेली लड़ रही है. कामयाब भी रहती है, पर फिल्म को जिस सिंड्रोम के हाथों नहीं बचा पाती, वो है ‘वाई आर ऍफ़ (YRF) सिंड्रोम’. ‘चक दे! इंडिया’ की सफलता के बाद यशराज फिल्म्स ने एक बार फिर उसी फार्मूले को अपनी चकाचक ‘हाई प्रोडक्शन-वैल्यू’ वाली प्रयोगशाला में दोहराने की कोशिश की है. एक काबिल लीडर, जिसे दुनिया के सामने अपनी पहचान बनानी है; एक नाकारा टीम जिसे कोई हाथ नहीं लगाना चाहता, एक मनबढ़-जिद्दी खिलाड़ी जो कभी भी खेल बिगाड़ सकता है, और एक मनचाहा अंत, जो सबको भला सा लगे. फार्मूला अचूक है, पर तभी तक जब तक सिंड्रोम अपना असर दिखाना शुरू नहीं करता.

नैना बस्तियों में अपनी क्लास के बच्चों के घर तलाश रही है. एक माँ पानी के लिए लम्बी लाइन में लगी है, पानी आते ही भगदड़ मच जाती है. नैना ने जैसे पहले ऐसा कुछ देखा ही नहीं हो. मीरा नायर की ‘सलाम बॉम्बे’ में भी नहीं, डैनी बॉयल की ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ में भी नहीं. उसके अन्दर के भाव ठीक वैसे ही नकली उबाल मारते हैं, जैसे सलमान खान ‘हम साथ-साथ हैं’ के एक दृश्य में महात्मा गाँधी के सद्विचार दोहराते हुए. अगले दृश्यों में, नैना बच्चों को साइकिल पंचर बनाते देख, गैराज में काम करते देख और सब्जी के ठेले पर ‘मुझे कटहल क्या होता है, नहीं पता?’ बोलते हुए भी ऐसे ही कुछ भाव परदे पर उछालती है. मुंबई के सबसे प्रतिष्ठित स्कूलों में शामिल, इस स्कूल के इस ख़ास एक क्लास के बच्चे शराब पीते हैं और जुआ खेलते हैं. खुलेआम. देश में एजुकेशन की हालत इस से भी बदतर है. फिल्म कहीं-कहीं भूल से उसकी बात भी कर ही डालती है, मगर ये ‘वाई आर ऍफ़ (YRF) सिंड्रोम’ है, जिसमें बदरंग दीवाल भी ‘प्लास्टिक कोटेड’ होती है और गरीबी भी ‘सुगर-कोटेड’.  

रानी मुखर्जी की ‘मर्दानी’ तकरीबन 4 साल पहले आई थी, इसलिए ‘हिचकी’ को उनकी वापसी के तौर पर देखे जाने की जरूरत नहीं है. हाँ, फिल्म में उनकी भारी-भरकम मौजूदगी और उनके किरदार में इस तरीके का नयापन रटे-रटाये फार्मूले पर गढ़ी गयी औसत कहानी में भी काफी हद तक जान फूँक देता है. रानी का जोश, उनके चेहरे की चमक और अदाकारी में उनकी बारीकियां जता देती है कि उन्हें परदे से दूर रखना सिनेमा और उनके खुद के लिए कितना मुश्किल और गलत निर्णय है. नीरज कबी एक ऐसे टीचर की भूमिका में, जिसे बस्ती के बच्चों की क्लास से बेहद चिढ़ और नफरत है, एकदम सटीक हैं. बच्चों के किरदारों में नए कलाकारों की खेप पूरी तरह सक्षम दिखाई देती है. अच्छा होता, अगर कहानी का सुस्त लेखन उन्हें ‘टाइपकास्ट’ करने से बचता. सचिन और सुप्रिया पिलगांवकर बस होने भर की शर्त पूरी करते नज़र आते हैं.

आखिर में; ‘हिचकी’ रानी मुखर्जी की फिल्म के तौर पर देखी जानी चाहिए. हालाँकि, फिल्म एक वक़्त के बाद उनके किरदार की हिचकी से कहीं ज्यादा क्लास और क्लास के बच्चों की हिचकियों में हिचकोले खाने लगती है. [2/5]         

Friday, 16 March 2018

रेड: दमदार निर्देशन, ईमानदार मनोरंजन...और सौरभ शुक्ला! [3.5/5]

सर से पाँव तक ईमानदारी में डूबे पुलिस ऑफिसर के किरदार में अजय देवगन को आप पहले भी देख चुके हैं. इस तरह के किरदारों में उनका अभिनय दो एकदम अलग धुरी पर आपको लेकर जाता है. खलनायक को डराने के लिए ‘सिंघम’ में उनकी दहाड़ ही काफी है, जबकि ‘गंगाजल’ जैसी फिल्मों में उनका किरदार इस तरह के तेज़-तीखे प्रतीकों से बचते हुए अपनी जिद-अपने ढीठपने से ही खलनायकों को ज्यादा परेशान करता है. राजकुमार गुप्ता की ‘रेड’ में काफ़ी वक़्त बाद आपको इस दूसरे तरीके के अजय देवगन नज़र आते हैं, इसीलिए बखूबी भाते हैं; पर इस बार उनके सामने जिस कद्दावर अभिनेता को खलनायक के तौर पर खड़ा किया जाता है, उसकी अदाकारी का जौहर कुछ और ही रंग में ढल कर सामने आता है. फिल्म का दमदार लेखन भी जैसे नायक को छोड़ कर इस ‘रंग बदलते’ बुरे किरदार का दामन ख़ुशी-ख़ुशी थाम लेता है. ‘रेड’ में सौरभ शुक्ला अपनी अदाकारी के चरम पर हैं. शुरू से आखिर तक. हर बार. लगातार.


सत्य घटनाओं से प्रेरित, ‘रेड’ अस्सी के दशक के शुरुआती साल में देश के सबसे लम्बे चलने वाले (3 दिन) इनकम टैक्स छापेमारी की कहानी बयान करती है. 7 साल की नौकरी में 49 तबादलों का तमगा लेकर घूमने वाले आयकर अधिकारी अमय पटनायक (अजय देवगन) को ईमानदारी कुछ इस हद तक पसंद है कि दूसरे की पार्टियों में भी अपने ब्रांड की रम साथ लेकर जाते हैं. ‘वही पीता हूँ, जो खरीद सकूं’. पत्नी (इलियाना डी’क्रूज़) को ऐसी ईमानदारी से डर तो लगता है, पर अमय के लिए हौसले की खदान भी वही है. गुप्त सूत्रों के हवाले से, अमय को उत्तर प्रदेश के सबसे रसूख वाले बाहुबली सांसद रामेश्वर सिंह (सौरभ शुक्ला) के अकूत और अवैध कालाधन के बारे में पता चलता है, और वो पहुँच जाता है छापेमारी के लिए. कानून-पसंद, धीर-गंभीर और जिद्दी अमय के सामने है ताकत, सत्ता और धन के मद में चूर रामेश्वर सिंह, जिसके शुरूआती तेवर एक बार के लिए तो अमय में भी अपने गलत होने का संदेह पैदा कर देते हैं.

 

हालाँकि एक दर्शक के तौर पर आप भी बहुत पहले से जानते हैं कि ऊंट किस करवट बैठने वाला है? और शायद यही एक बात है जो ‘रेड’ को एक ‘पूरी तरह’ रोमांचक फिल्म होने से रोकती है; फिर भी रितेश शाह (‘पिंक’ फेम) का जबरदस्त लेखन और राजकुमार गुप्ता का उतना ही कसा हुआ निर्देशन फिल्म को कहीं भी भटकने नहीं देता. अमय और रामेश्वर सिंह जब भी आमने-सामने होते हैं, संवादों की झड़ी पुरानी फिल्मों के ‘डायलागबाज़ी’ वाले दृश्यों की याद जरूर दिलाते हैं, पर दोनों कलाकारों के सहज और संजीदा अभिनय फिल्म को कमोबेश वास्तविकता के करीब ही रखते हैं. बेवजह के दो गाने और रामेश्वर सिंह के परिवार के एक-दो दृश्यों को छोड़ दिया जाए, तो फिल्म धीमी होने के बावजूद मनोरंजन में कोई कसर नहीं छोडती. भ्रष्ट अधिकारी की भूमिका में अमित स्याल, मुंहफट दादी के किरदार में पुष्पा सिंह और सांकेतिक दृश्यों में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का चित्रण खास तौर पर रोमांचित करता है. शुरू-शुरू में इलियाना जरूर महज़ रोमांटिक गानों में जगह भरने के लिए कहानी में शामिल की गयी लगती हैं, पर अजय देवगन के साथ कुछ भावुक क्षणों में उनका होना खलता नहीं. ऐसी भूमिकाओं में ‘शूल’ की रवीना टंडन फिर भी उनसे कहीं आगे हैं.

 

‘रेड’ एक बेहद कसी हुई फिल्म है, तकनीकी तौर पर भी और अभिनय की नज़र से भी. महज़ दो घंटे की फिल्म में, बंधी-बंधाई लोकेशन पर, बिना किसी तड़क-भड़क वाले ड्रामा के, लगातार मनोरंजक बने रहना, वो भी ऐसे कथानक के साथ जो किसी को भी आसानी से नाराज़ या अपमानित न करता हो; अपने आप में ही सफल होने के काफी आयाम छू लेता है. ये फिल्म सबूत है कि सौरभ शुक्ला कितने काबिल अदाकार हैं...और अजय देवगन कितने अच्छे हो सकते हैं, अगर गोलमाल जैसी फिल्मों के प्रभाव से दूर रह पाने का लोभ-संवरण कर पायें तो. जरूर देखिये...(3.5/5)        

Friday, 2 March 2018

परी- नॉट अ फेयरीटेल: 'हॉरर' में कहानी की शुरुआत! [3/5]

हिंदी फिल्मों में 'हॉरर' अपने हर दौर में अक्सर किसी एक ख़ास नाम या बैनर के खूंटे से बंध कर रहा है. रामसे ब्रदर्स की भूतिया हवेलियों से रामगोपाल वर्मा के शहरी मकानों और भट्ट कैंप के इन्तेहाई खूबसूरत यूरोपियन मेंशन्स तक; 'हॉरर' के साथ सबने अपने-अपने लैब में जब भी चीर-फाड़ की, फ़ॉर्मूले हमेशा एक से ही रहे. यही वजह है कि '13B', 'एक थी डायन' और हाल-फिलहाल की 'द हाउस नेक्स्ट डोर' जैसी थोड़ी सी भी अलग और नये लिहाज़ की डरावनी फिल्में उम्मीदों का पहाड़ खुद ज्यादा ही बड़ा कर देती हैं. प्रोसित रॉय की 'परी- नॉट अ फेयरीटेल' ऐसी ही एक हॉरर फिल्म है, जिस पे 'हॉरर' के किसी भी पुराने कारखानों की कोई मोहर या छाप नहीं दिखाई देती. हालाँकि खामियों की फेहरिस्त भी कुछ कम बड़ी नहीं, पर 'परी- नॉट अ फेयरीटेल' अपने नए अंदाज़ से न सिर्फ आपको डराती है, ज्यादातर वक़्त चौंकाती भी है.

डरावनी फिल्मों में अंधविश्वास, लोक कथाओं और पुरानी मान्याताओं का बोलबाला रहता ही है. ऐसी फिल्मों में, ऐसी फिल्मों से तार्किक या वैज्ञानिक होने की उम्मीद करना अपने आप में एक भुलावे की स्थिति है. प्रोसित भी अपनी पहली फिल्म के तौर पे 'परी- नॉट अ फेयरीटेल' में दकियानूसी होने से परहेज़ नहीं करते. डराने की मूलभूत जरूरत को पूरा करने के लिए, वक़्त-बेवक्त यहाँ भी बिजलियाँ कड़कती हैं, खिड़कियाँ खड़कती हैं, कंधे पे हाथ रखते ही डरावने चेहरे पलट कर आखों तक चले आते हैं और बैकग्राउंड में एक उदास आवाज़ धीमे-धीमे लोरियां सुनाती रहती है, पर इस बार की कहानी सतही तौर पर दकियानूसी होने के बावजूद, अपने आप में 'और भी' बहुत कुछ कहने की गुंजाईश बाकी रखती है. 

बांग्लादेश के एक ख़ास हिस्से में एक ख़ास नस्ल को मिटाने की मुहीम चल रही है. नहीं, इसका रोहिंग्या मुसलामानों से कोई लेना देना नहीं है. हालाँकि बात जिन्नों की है, और जिन्न भी इसी ख़ास महज़ब में अपनी पैठ ज्यादा रखते हैं. इफरित नाम का एक ख़ास जिन्न है, जो अपनी नस्ल बढ़ाने के लिए औरतों का सहारा लेता है. प्रो. कासिम अली (रजत कपूर) ढूंढ-ढूंढ के ऐसी औरतों का गर्भपात करते-कराते हैं. रुखसाना (अनुष्का शर्मा) ऐसी ही एक नाजायज़ पैदाइश है, जिसे पेरी या परी कहा जाता है. नानी की कहानियों वाली नेकदिल परी नहीं, बल्कि ऐसी जिसकी फ़ितरत ख़ूनी वैम्पायरों जैसी दिल दहलाने वाली हो. बहरहाल, एक एक्सीडेंट में अपनी माँ को खोने के बाद रुखसाना आजकल अरनब (परमब्रत चैटर्जी) के यहाँ पनाह ले रही है. 

ऐसे समाज में जहां औरतों को डायन कह कर मार दिया जाता हो, अनचाहे गर्भ को गिराने के लिए इंसानियत गिरा दी जाती हो; प्रोसित डर के बाज़ार को गर्म रखने के लिए ऐसे ही प्रतीकों का सहारा तो बखूबी लेते हैं, पर इनको लेकर किसी तरह की कोई ठोस या गहरी बात कहने में चूक जाते हैं. फिल्म के आखिर तक आते आते, रुखसाना के किरदार के साथ दर्शकों की सहानुभूति बनाने की जोर-आजमाईश में फिल्म थोड़ी भटकती जरूर नज़र आती है, और उलझती भी; लेकिन अपने बेहतर कैमरा-वर्क, खूबसूरत आर्ट-डायरेक्शन और अनदेखे अंदाज़ की वजह से 'परी- नॉट अ फेयरीटेल' उन पलों में भी एक खूबसूरत फिल्म की तरह पेश आती है, जिन पलों में उसपे डराने का कोई बोझ या दबाव नहीं होता. पर्दों के पीछे सायों का लिपटना और चिपटना क्या ही बेहतर दृश्य है! 

...और अब जिक्र अनुष्का का. फिल्म की सबसे दमदार कड़ी. हिंदी फिल्मों में 'हॉरर' को आसान कमाई और कम खतरे वाला कदम माना जाता है. ऐसे में 'हॉरर' के साथ इस तरह का नया प्रयोग करने के लिए, अनुष्का (फिल्म की निर्माता के तौर पर) को बधाई मिलनी ही चाहिए. रही बात उनके अभिनय की, तो अनुष्का उन दृश्यों में ज्यादा प्रभाव छोड़ती हैं, जिनमें उन्हें संवादों के सहारे नहीं रहना होता. फिल्म में खून-खराबा भी खूब है, पर असल टीस आपको अनुष्का के किरदार के दर्द से ही उठती है. उनकी आँखों की चमक ही कितनी बार आपको सिहरा जाती है. रजत कपूर शानदार रूप से दिल की धडकनें बढ़ाते रहते हैं. परमब्रत 'कहानी' के अपने किरदार के आस-पास ही रह जाते हैं. उतने ही सजीले, शर्मीले और सधे हुए.

आखिर में, 'परी- नॉट अ फेयरीटेल' डरावनी फिल्मों में कहानी पिरोने की एक कोशिश के तौर पर सराही जानी चाहिए. एक ऐसी फिल्म, जो जेहनी तौर पर थोड़ी और बेहतर, थोड़ी और काबिल हो सकती थी, पर डर के लिए एक कसा हुआ माहौल गढ़ने में जो कहीं से भी चूकती नहीं. [3/5]