क्या कोई भी 3 घंटे की फिल्म या 400
पन्नों की किताब किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या उसके व्यक्तित्व के बारे में
आपकी राय बदलने में कामयाब हो सकती है? नहीं. भले ही वो
फिल्म राजकुमार हिरानी जैसे चहेते फ़िल्मकार ने ही क्यूँ न बनायी हो. क्या राजकुमार
हिरानी ने ‘संजू’ के साथ संजय दत्त की
छवि सुधारने की ऐसी कोई कोशिश की है? मुझे नहीं लगता. संजय
दत्त जैसे सनसनीखेज जिंदगी जीने वाले मशहूर शख्सियत से जुड़ा हर पहलू जानने-समझने-टटोलने
के लिए ‘संजू’ कम पड़ जाती है. तय वक़्त
के कथानक में पिरोने के लिए घटनाओं के अपने चुनाव में भी, और
मनोरंजन को मद्देनजर रख कर उन घटनाओं के इर्द-गिर्द अतिरंजित भावनाओं का जाल बुनने
में भी. जाल शब्द का इस्तेमाल बहुत सोच समझकर कर रहा हूँ. अभिजात जोशी के साथ
मिलकर हिरानी स्क्रिप्ट लिखते वक़्त ‘LCD’ फ़ॉर्मूले को ध्यान
में रखते हैं, यानी कागज़ पर लिखे जिस दृश्य में LAUGHTER, CRY या DRAMA नहीं, उसका फिल्म में बने रहना जरूरी नहीं. इस गरज़ से, ‘संजू’ मनोरंजक लगने की कोशिश करते हुए ज्यादा नज़र आती
है, और सिनेमाई तौर पर परिपक्व या सम्पूर्ण फिल्म होने का हक़
खोती चली जाती है.
संजय दत्त तमाम बदनामियों और अपनी ‘बिगडैल’ छवि के बावजूद, दर्शकों
के एक बहुत बड़े हिस्से के चहेते अभिनेता रहे हैं. उनसे जुड़े हजारों किस्सों और
किंवदंतियों में उन्हें तलाशना अपने आप में किसी रहस्य से कम नहीं है. हिरानी उनकी
जिंदगी को जब अपनी सीधी-सरल, पर बेहद चमकदार रंगीन दुनिया में
जगह देते हैं, आपकी उम्मीद रहती है कि आप हिरानी की मदद से
इस पहेली को आसानी से सुलझा पायेंगे. ऐसा नहीं होता. कम से कम हर बार नहीं होता. ‘संजू’ में बहुत सारा कुछ ऐसा है, जो आपको असलियत से परे लगता है. अक्सर ‘क्या ऐसा
हुआ था?’ से कहीं आगे बढ़कर आप ‘अरे, ऐसा थोड़े ही हुआ होगा’ की तरफ पहुँचने लगते हैं. और
उसकी वजह शायद हर बार हिरानी साब का ‘मनोरंजन’ को लेकर अपना एक ख़ास नजरिया और तय रवैया ही है. 4 सफल फिल्मों के बाद, अब दर्शक के तौर पर आपको भी उनके दांव-पेंच समझ आने लग गये हैं. चौंकाने
के लिए अब हिरानी साब के तरकश में कम ही तीर बचे हैं. हालाँकि अभी भी आप और हम
उनसे उबेंगे नहीं, पर बासीपने के हलकी गंध आने लग पड़ी है.
‘संजू’ का पहला
हिस्सा संजय दत्त (रनबीर कपूर) और ड्रग्स के साथ उनकी उठा-पटक के नाम रहता है. इस
दौरान, कथानक में माँ नर्गिस जी (मनीषा कोईराला) की बीमारी, उनकी असामयिक मृत्यु, बेटे को ड्रग्स के दलदल से
निकालने में पिता सुनील दत्त (परेश रावल) की नाकाम कोशिशों और संजय की ख़ुद से ही लड़ाई
को अहमियत मिलती है. हलके-फुल्के पलों और एक-दो इमोशनल दृश्यों के अलावा, इस हिस्से में अगर कुछ आपको बहुत बांधे रखता है, तो
वो है संजय के दोस्त कमलेश (विक्की कौशल) का किरदार. परदे पर विक्की के आते ही
जैसे कोई तूफ़ान सा उठने लगता है. इस किरदार के बारे में आपको शायद ही पहले से कुछ
पता रहा हो. संजय के साथ कमलेश की दोस्ती के पल हों, या
इंटरवल से ठीक पहले कमलेश का एक सनसनीखेज खुलासा; इस एक
किरदार के साथ आप हमेशा उत्सुक और उत्साहित रहते हैं. यही एक किरदार है, जो संजय के साथ-साथ रहते हुए कहानी में एक अलग तरह की निरपेक्षता और
सकारात्मकता लेकर आता है. यहाँ तक कि पहली मुलाक़ात में ही संजय को दो-टूक सुनाने
की हिम्मत दिखा देता है.
संजय दत्त के अंडरवर्ल्ड से रिश्तों
और एके-47 रायफल रखने के वाकये से होकर येरवडा जेल से छूटने तक का सफ़र फिल्म का
दूसरा हिस्सा बनता है, जहां ज्यादातर कोशिशें और वक़्त मामले
को लेकर संजय की सफाई के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है. पिछले हिस्से में जहां परदे
का संजय (रनबीर) असल जिंदगी के संजय पर हर लहजे से हावी होता दिखाई दे रहा था, यहाँ तक आते-आते संजय दत्त का हालिया व्यक्तित्व आपको ज्यादा भाने लगता
है. ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ घटने और संजू
के ‘बाबा’ बनने के दौर और दृश्य खासे सुहावने
लगते हैं. हालाँकि हिरानी का फार्मूला अब भी आपको परेशान कर ही रहा होता है. दोस्तों
के बीच गलतफहमियों से पनपी दूरियों को सुलझाने का दृश्य ‘पीके’ के उस दृश्य की याद दिलाता है, जहां जग्गू और
सरफ़राज़ शामिल हैं. कहानी को लम्बे-चौड़े बयानों में बोल बोल कर बताने की कला आप ‘3 इडियट्स’ में देख ही चुके हैं. यहाँ तक कि गानों
में सपनीली दुनिया की सैर करते किरदारों (3 इडियट्स का ‘ज़ुबी-ज़ुबी’) का प्रयोग यहाँ भी ख़ूब (‘रूबी-रूबी’) इस्तेमाल होता है.
अभिनय में, ‘संजू’ पूरी तरह रनबीर में ढली-रची-बसी फिल्म है. सोनम
कपूर के साथ बाथरूम वाला दृश्य हो, या फिर परेश रावल के साथ इमोशनल
सीन्स; रनबीर संजय दत्त की तरह सिर्फ चलने, बोलने या दिखने से परे लगते हैं. परदे पर उनके होते हुए कुछ और
देखने-सुनने की चाह भी नहीं रहती, हालाँकि विक्की कौशल के
साथ वाले दृश्यों में उन्हें साफ़ टक्कर मिलती है. विक्की यहाँ अपने पूरे रंग में
हैं. रनबीर जैसे बेहतर अभिनेता के सामने होते हुए भी उनकी अदाकारी में एक छटांक को
भी बिखराव नहीं दिखता. आखिर में, ‘संजू’ एक ऐसी फिल्म हैं जिसके मुख्य किरदार से आप पहले से ही वाकिफ हैं, और उसके बारे में जितना जानते हैं उतना ही और जानना चाहते हैं. इस लिहाज़
से ‘संजू’ आपको छोटे-बड़े ढेर सारे मजेदार
किस्से सुना डालती है. अब आपको तय करना है, हिरानी के
फार्मूले में कौन कितना फिट बैठ गया था, और कौन सा बैठाया
गया था? बहरहाल, मीडिया को ‘एकतरफ़ा’ ठहराने की कोशिश में फिल्म गंभीरता की ओर जरूर बढती दिखती है, पर आप इसे सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के चश्मे से ही देखने की जेहमत उठाएं, तो बेहतर नतीजे मिलेंगे. [3.5/5]