Friday, 31 August 2018

स्त्री: हॉरर, कॉमेडी और फेमिनिज्म! [3.5/5]


बॉलीवुड में मसाला फिल्मों के स्वघोषित जानकार भलीभांति जानते हैं कि हॉरर का मतलब है डराना, और कॉमेडी का मतलब हँसाना. न इससे कम कुछ, न इससे छटांक भर ज्यादा कुछ. अब बड़ी दिक्कत ये है कि ऐसा करने के लिए उनके पास जो फ़ॉर्मूला है, उसके हिसाब से डराने के लिये दो-चार जाने-पहचाने पैंतरे, एक भूतिया हवेली, एक प्यासी चुड़ैल (खून, हवस या कभी कभी दोनों की) और हंसाने के लिए दो अदद हंसोड़ किरदार या किलो भर चुटकुले ही बहुत हैं. इनमें अगर सेक्स का तड़का लग जाए, तो फिर कहने ही क्या! अमर कौशिक की स्त्री में भी यही सब है, और एकदम नपा-तुला बराबर मात्रा में. मगर यहाँ कुछ और भी है, जो स्त्री को आम हॉरर या कॉमेडी फिल्मों से अलग करता है और मनोरंजन की हर शर्त पूरी करते हुए भी, अपनी समझदारी को कभी ताक पर नहीं रखता. स्त्री एक ऐसी फिल्म है, जो आपको डराती भी है, हंसाती भी है, और ये सब करते हुए आपसे बात भी बहुत करती है. कुछ बेहद ख़ास बातें, फेमिनिज्म की बातें, जिन्हें सुनना और सुन कर समझना आपकी अपनी समझ के दायरे को परिभाषित करती हैं.  

हालाँकि फिल्म का कथानक मध्य प्रदेश का चंदेरी शहर है, पर जिस तरह का सामाजिक ताना-बाना परदे पर दिखता है, इसे आप भारत का कोई भी गाँव, कोई भी शहर या मानने को पूरे का पूरा देश भी मान सकते हैं. ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा. चंदेरी में हर साल, चार दिन पुरुषों पर बड़े भारी पड़ते हैं. इन चार दिनों में हर रात एक स्त्री बाहर निकलती है, और मर्दों को अपना निशाना बनाकर ले जाती. छोड़ जाती है तो बस उनके कपड़े. बचने का एक ही रास्ता है, घरों पर लिख कर रखिये, “ओ स्त्री! कल आना’’. पुस्तक भण्डार के मालिक रूद्र भईया (पंकज त्रिपाठी) ने पूरी रिसर्च की है इस स्त्री पर. “ये स्त्री नए भारत की स्त्री है. पढ़ी-लिखी है. मर्दों की तरह जबरदस्ती नहीं करती. तीन बार आवाज़ देगी, पलट कर देखोगे तो समझ लेगी कि यस है, और यस मीन्स यस.” दोस्तों (अपारशक्ति खुराना और अभिषेक बैनर्जी) को लगता है, उनका बांका जवान दोस्त (राजकुमार राव) भी आजकल ऐसी किसी भूतिया स्त्री (श्रद्धा कपूर) के चंगुल में फंस रहा है, पर उसपे तो प्यार का भूत चढ़ा है. समझाए कौन?

राज और डीके (शोर इन द सिटी, गो गोवा गॉन) अपनी कहानी में बड़े संतुलित तरीके से हॉरर और कॉमेडी का तालमेल बैठाते हैं. फिल्म का पहला हिस्सा हालाँकि चंदेरी जैसे छोटे शहरों की आबो-हवा में घुलने और वहाँ के किरदारों से जुड़ने में ज्यादा खर्च होता है, पर अपने दूसरे हिस्से में सुमीत अरोरा के दिलचस्प और व्यंग्यात्मक संवादों के जरिये फिल्म अपने उस मुकाम तक पहुँचने में कामयाब होती है, जहां उसके होने की वजह सिर्फ मनोरंजन नहीं रह जाती. पहले हिस्से में फ़िज़ूल  के ताबड़तोड़ गानों से बचा जा सकता था. इस हिस्से में फिल्म टुकड़ों में ही आपको याद रह पाती है, और वो भी ज्यादातर उन दृश्यों में अभिनेताओं की क़ाबलियत की वजह से. एक दृश्य में बाप (अतुल श्रीवास्तव) बेटे को जवानी में गलत संगत में न पड़ने की और स्वयंसेवी बनने की सलाह दे रहा है. छोटे शहरों में पारिवारिक सेक्स-एजुकेशन कितना हास्यास्पद हो सकता है, उसकी एक झलक तो इस दृश्य में मिल ही जाती है.

फिल्म का दूसरा हिस्सा पूरी तरह पुरुषवादी विचारधारा का मजाकिये लहजे में मखौल उड़ाता है. स्त्री का प्रकोप इस हद तक है कि अब शहर की औरतें खुलेआम रातों को घर से बाहर जा रही हैं, और पति दरवाजा बंद करते हुए कहता है, “जल्दी आ जाना, रात को अकेले डर लगता है”. स्त्री से बचने का नुस्खा कामसूत्र की किताब के बीचोबीच छिपा कर रखा हुआ है. वासना से आगे बढ़ोगे, तब कहीं जाके मिलेगा मुक्ति का मार्ग. मर्दों को बिना कपड़ों के ले जाना, उनको उनकी छोटी सोच से भी नंगा कर देना समझ लेना चाहिए, जो एक वेश्या को उसकी पसंद से बड़ी बेरहमी से अलग कर देती हो. प्यास यहाँ सिर्फ बदले की या खून की नहीं है, तलब और जिद है प्यार और इज्ज़त मिलने की. रूद्र भईया सुनते ही बिफर पड़ते हैं, “बड़े जाहिल लोग हैं आप!”. आखिरकार ये वो समाज है, जहाँ नौजवानों में लड़कियों से फ्रेंडशिप का मतलब सीधा सीधा सेक्स होता है, और कुछ नहीं.

स्त्री अगर शोर-शराबे वाले बैकग्राउंड म्यूजिक और संवादों में धागे भर की शालीनता बरत पाती तो बेहद अच्छी हो सकती थी. गनीमत है कि राजकुमार राव और पंकज त्रिपाठी का होना सब कुछ जैसे लीपपोत कर चिकना कर देता है. अभिषेक और अपारशक्ति के साथ राव की तिकड़ी वाले दृश्य गुदगुदाते हैं, भले लगते हैं जैसे अपन ही चाय की टपरी पे शाम बिता रहे हों. अपारशक्ति और अभिषेक दोनों के हिस्से कुछ बेहद मनोरंजक पल आये हैं. पंकज त्रिपाठी दृश्यों में अपनी जगह आप खोज लेते हैं, बना लेते हैं. उनकी बॉडी लैंग्वेज ही उनके किरदार की जान बन जाती है, और कॉमेडी के इस दौर में ये खूबी उनसे बेहतर संजय मिश्रा को ही आती है. श्रद्धा सटीक हैं, और शायद अपनी अदाकारी में पहली बार इतनी कारगर भी.

आखिर में; स्त्री हॉरर कॉमेडी के तौर पर एक अच्छी कोशिश है. हॉरर के नाम पर कॉमेडी और हॉरर के साथ सेक्स का घालमेल करके उलजलूल परोसने में बॉलीवुड ने कोई कमी नहीं छोड़ी है. “स्त्री इक नये, बेहतर रास्ते की तरफ बढ़ती है. चिल्लाते हुए भूत को डांट कर शांत कराने जैसे बचकाने और बेवकूफ़ी भरे हंसी-मज़ाक के साथ साथ, अगर समझदारी से कहानी में फेमिनिज्म जैसे जरूरी सामाजिक चेतना के विमर्श पर भी हंसने के मौके मिलने लग जाएं, तो कोई नीरस, बेशर्म और बेहया सेक्स का भौंडापन क्यूँ ले भला? ये न ले...[3.5/5]  

Wednesday, 15 August 2018

गोल्ड: नक्कालों से सावधान! [2/5]

स्पोर्ट्स फिल्म बनाने में मेहनत लगती है. मैच असली लगने चाहियें. खिलाड़ियों का जोश, मैदान में उनकी रफ़्तार, उनका तालमेल स्क्रीन पर सब कुछ असल की शक्ल में दिखाई देना चाहिए. उम्दा, लायक और भरोसेमंद सिनेमाई तकनीक यहाँ पर बहुत अहम् रोल अदा करती है. जबकि बायोपिक बनाने में वक़्त और मेहनत दोनों लगती है. रिसर्च यहाँ तकनीक पर हावी हो जाती है. घटनाओं और किरदारों की सच्चाई जब दांव पर हो, तो फिल्मकार के तौर पर आपकी समझ भी कठघरे में पूरे वक़्त एक पाँव पर खड़ी रहती है. हालाँकि इस कठिन हाल से साफ़-साफ़ बच कर निकलने का एक बेहद आजमाया हुआ नुस्खा भी मौजूद है बॉलीवुड में. नायक को देशभक्ति की घुट्टी पिलाकर और दर्शकों को सिनेमाहॉल में राष्ट्रगान सुनाकर बड़ी आसानी से पतली गली पकड़ी जा सकती है. आपसे किसी तरह का और कोई सवाल किया ही नहीं जाएगा. रीमा कागती की गोल्ड यही करती है. एकदम यही. साधारण स्क्रिप्ट, जबरदस्ती का नायक, बनावटी ड्रामे, कहानी में उधार के उतार-चढ़ाव और घटिया दर्जे के कंप्यूटर ग्राफ़िक्स; और इन सब पर देशभक्ति का चमकीला पर्दा डालने के लिए इतिहास की एक (असल की रोमांचक) घटना और उनके इर्द-गिर्द ढेर सारे बनावटी चोचले.

दौर आज़ादी से ठीक पहले का है. बच्चे क्रिकेट नहीं खेलते, हॉकी के दीवाने हैं. देश की टीम ओलंपिक्स में 3 गोल्ड जीत चुकी है, पर सारे के सारे ब्रिटिश इंडिया के खाते में दर्ज हैं. भारत के पास मौका है ओलंपिक्स में तिरंगा लहराने का. कुछ सालों में आजादी भी मिलने वाली है, और ओलंपिक्स भी 12 साल बाद फिर से होने वाले हैं. तपन दास (अक्षय कुमार) घोर बंगाली है. बर्लिन ओलंपिक्स में सपना देखा था, अगले ओलंपिक्स में तिरंगा लहराने का. अब दो बार से ओलंपिक्स कैंसिल हो रहे हैं, तो शराब की लत पाल ली है. आने वाले ओलंपिक्स के लिए खिलाड़ियों को चुनने की जिम्मेदारी मिल भी गयी है, तो उसे कहाँ पता था कि भारत-पकिस्तान के बंटवारे में टीम का भी बंटवारा हो जाएगा. लिहाज़ा, शराब में फिर डूब जाने का मौका भी है, दस्तूर भी. जैसे तैसे नए सदस्यों के साथ टीम फिर से खड़ी होती भी है, तो जश्न के माहौल में पीने की सूरत फिर से बन जाती है. टीम अब अपने इस देवदास के बिना ही लन्दन ओलंपिक्स जा रही है. एक ऐसी टीम जिसमें कोई कोच नहीं है, 70 मिनट, सिर्फ 70 मिनट हैं तुम्हारे पास का ओजस्वी भाषण देने के लिए. तपन दास की शकल में सिर्फ एक मैनेजर ही था, जो अंग्रेजों से 200 साल का बदला लेने के लिए तत्पर है.

स्पोर्ट्स, देशभक्ति और बायोपिक की इस मिलीजुली सिनेमाई साजिश में 3 ख़ास खामियां हैं, जो गिनती की कुछ अच्छाइयों के मुकाबले बेहद भारी-भरकम हैं. गोल्ड स्क्रिप्ट के स्तर पर एक बेहद साधारण फिल्म है, जो अपना ज्यादातर हिस्सा शिमित अमीन की (अब तक की) बेहतरीन फिल्म चक दे! इंडिया से काफी हद तक उधार लेती है. कबीर खान (शाहरुख़ खान) की ही तरह यहाँ भी तपन दास एकलौता पूरी की पूरी टीम चुनता है, खड़ा करता है. यहाँ तक कि टीम में एक-दूसरे से जलने और होड़ रखने वाले खिलाड़ियों का ट्रैक भी कुछ इतना मिलता जुलता है, मानो दोनों एक-दूसरे का ज़ेरॉक्स हों. सेंटर फॉरवर्ड की पोजीशन पर खेलने की जिद पाले बैठे दो खिलाड़ी और उन्हीं के कन्धों और फैसलों पर टिका वो आखिरी मैच का निर्णायक गोल. गोल्ड बड़ी बेशर्मी से दंगल के उस कम दमदार, पर असरदार ड्रामे की भी नक़ल कर लेती है, जहाँ मैच में उस एक नायक का होना बेहद जरूरी है, पर एक साज़िश के तहत उसे स्टेडियम तक पहुँचने से रोक लिया जाता है.

दूसरी कमज़ोर कड़ी है, फिल्म का तकनीकी पहलू. खराब कंप्यूटर ग्राफ़िक्स के अलावा, गोल्ड में न तो मैच को रोमांचक बनाने वाले दांव-पेंच ही मौजूद हैं, ना ही उस तरीके का तेज़ रफ़्तार कैमरावर्क जो आपको मैदान पर होने का एहसास करा जाए. जहां चक दे! इंडिया में दिखाए गये मैच लंबे-लम्बे शॉट्स के साथ बड़ी समझ से डिजाईन किये हुए लगते थे, गोल्ड के मैच टुकड़ों और क्लोज-अप्स में ही सीमित रह जाते हैं. खिलाड़ियों को न तो हीरो बनने का ही वक़्त मिलता है, ना ही आपको उनकी क़ाबलियत से जुड़ने का. और अब आखिरी में, फिल्म की सबसे कमज़ोर कड़ी, अक्षय कुमार. अक्षय एक सोची समझी रणनीति के तहत देश और देशभक्ति का राग अलापती फिल्मों का हिस्सा बनते आ रहे हैं. हालाँकि एक अभिनेता के तौर पर गोल्ड में किरदार से जुड़ने की उनकी कोशिश उनकी पिछली फिल्मों से सबसे ज्यादा नज़र आती है, पर उनके होने भर से ही कहानी में वजन आने की रही-सही उम्मीद भी जाती रहती है. किरदारों को कैरीकचर बना कर छोड़ देने में उनका कोई सानी नहीं.

अक्षय का एकरस अभिनय एक तरह से एक अच्छा मौका भी है, सनी कौशल, कुनाल कपूर और अमित साध जैसे सह-अभिनेताओं के लिए. सनी कौशल फिल्म का सबसे भरोसेमंद अभिनेता बनकर उभरते हैं. देश के लिए खेलने की आग पाले बैठे किरदार में सनी जैसे परदे पर अपने मौके का इंतज़ार ही कर रहे होते हैं. यहाँ तक कि प्रेम-प्रसंग वाले हलके-फुल्के पलों में भी सनी ही भारी पड़ते हैं, अक्षय पर भी. मौनी रॉय बंगाली फिल्म के लिए ऑडिशन देने आई किसी बहुत उत्साहित नयी लड़की से ज्यादा बेहतर या लायक नहीं लगतीं. अमित साध राजघराने से आये एक अकडू युवराज के किरदार में भी बेहद मनोरंजक लगते हैं. विनीत कुमार सिंह भी कतई निराश नहीं करते. बंटवारे से पहले आज़ाद भारत के कप्तान और बंटवारे के बाद पाकिस्तान की हॉकी टीम के कप्तान के रूप में उनके हाव-भाव में जो एक हल्का सा फर्क और पैनापन विनीत शामिल कर पाते हैं, अगर आप भांप लें तो अदाकार के तौर पर विनीत के कद को ज्यादा समझ पाएंगे.

आखिर में; गोल्ड चमकदार तो है, पर हर चमकती चीज को सोना समझने की भूल कौन करता है भला? मुझे काफी वक़्त तक लगता था, स्वर्ण पदक विजेताओं के गोल्ड मैडल को दांतों से काटने की परम्परा भी शायद इसी को जांचने की एक प्रक्रिया होती होगी. गोल्ड देशभक्ति के नाम पर आपको कुछ ऐसा ऐरा-गैरा परोसने की कोशिश है. बेहतर होगा, नक्कालों से सावधान रहे! [2/5]

Friday, 3 August 2018

कारवां: ‘लाइक’ कीजिये, और आगे बढ़िये! [2.5/5]


फोटोग्राफर बनने की चाह छोड़कर, अविनाश (दुलकर सलमान) एक आईटी कंपनी की ऊबाऊ नौकरी में जिंदगी गुज़ार रहा है. तान्या (मिथिला पालकर) कॉलेज में है, बाग़ी मिजाज़ की है. उम्र से ज्यादा, जिंदगी को लेकर दोनों के रवैये में ख़ासा फर्क है. फिल्म के एक हिस्से में दोनों फोटोग्राफी पर बहस कर रहे हैं. तान्या के लिए अविनाश ओल्ड-स्कूल है, खूबसूरत पलों को कैद करने के लिए फ्रेमिंग और लाइटिंग जैसी चीजों पर ज्ञान दे रहा है, जबकि इंस्टाग्राम के जादुई फिल्टर्स के साथ वो किसी भी फोटो को खूबसूरत बनाने का हुनर बखूबी जानती है. अच्छा ही तो है, सब फोटोग्राफर बन जायेंगे.” आकर्ष खुराना की कारवां भी उन्हीं इंस्टाग्राम पोस्ट्स की तरह बेहद खूबसूरत है, पर बनी-बनाई गयी है. कुदरती तौर पर पलों को कैद करने की कवायद या फिर ठहर कर, रुक कर, थम कर फ्रेम बनाने का सब्र आखिर कौन करे, जब पहले से तैयार सांचे इस सारी मेहनत पर वक़्त जाया करने से आपको बचा सकते हैं. यही वजह है कि कारवाँ पूरी तरह खूबसूरत होते हुए भी, आसानी से अच्छा लगने के एहसास के बावजूद ना ही आपको छूती है, ना ही याद रह पाती है.

रोड-ट्रिप पर बनने वाली फिल्मों का एक अपना खाका है, एक अपना बहाव है. कारवाँ वो सब रस्ते, वो सब मोड़, वो सब उतार-चढ़ाव पूरी शिद्दत से, बड़ी तैय्यारी के साथ, बिना किसी भूल-चूक पार करती है. एक बुरी खबर और एक छोटी सी गड़बड़ी से शुरू हुआ सफ़र अपनी मंजिल तक पहुँचने से पहले सब कुछ ठीक कर देता है, साथ ही धारावाहिक की कहानियों की तरह हर पड़ाव पर मनोरंजन का पूरा-पूरा ध्यान रखता है. तीर्थ यात्रा पर निकले अविनाश के पिता की एक्सीडेंट में मृत्यु हो गयी है, और अब अविनाश के पास जो डेड बॉडी आई है, वो किसी और की है. अपने पिता के मृत शरीर को लेने अब उसे बंगलौर से कोच्ची जाना है. दोस्त शौकत (इरफ़ान खान) अपनी वैन के साथ मदद को तैयार खड़ा है. कहने की बात नहीं कि रास्ते इतने सीधे नहीं है, कभी किसी मोड़ से किसी और को साथ लेना है, तो कभी किसी से अचानक मिल जाने का मौका. साथ ही, रोमांच और रोमांस के लिए करीने से बनायी (घुसाई) गयी जगह...और इन सब के बीच, पर्वतों, पहाड़ों, झीलों, झरनों, नदियों और सड़क किनारे पीछे की ओर भागते पेड़ों के दृश्यों के साथ मखमली आवाज में, टुकड़ों में आता-जाता एक गीत.

कारवां ख़ूबसूरती और मनोरंजन की बड़ी सधी सी और सीधी सी मिलावट है. ख़ूबसूरती के लिए मलयालम फिल्मों के बेहतरीन अदाकार दुलकर सलमान और वेब-वर्ल्ड का जाना-पहचाना नाम मिथिला पालकर; और मनोरंजन के लिए एकलौते ही काफी, इरफ़ान. फिल्म ज्यादातर वक़्त डार्क-कॉमेडी से गुदगुदाने का प्रयास करती है, पर कामयाबी उसे इरफ़ान की अपनी चिर-परिचित शैली से मिलने वाले मजेदार पलों में ही नसीब होती है. दृश्यों के बीच में, इरफ़ान का हवा की तरह घुस आना और फिर हलके से गुदगुदा के चले जाना कभी भी गलत साबित नहीं होता. हालाँकि इसके लिए फिल्म की कहानी उन्हें कोई ख़ास वजह नहीं देती. फिल्म उनके लिए एक पिकनिक जैसी लगती है, जहां मौजूद हर किरदार के साथ वो हंसी-ठिठोली भी कर रहे हों तो आपको मज़ा ही आता है. वरना 2018 के साल में, लड़कियों के कपड़ों की लम्बाई पर बिफरने वाले किरदार के साथ आप क्यूँ ही हँसना-खिलखिलाना चाहेंगे?

फिल्म दो ख़ास मौकों पर थोड़ी असहज होती है, और शायद उन्हीं पलों में ठहरना भी सीखती है. अविनाश अपने कॉलेज की ख़ास दोस्त रूमी (कृति खरबंदा) से सालों बाद मिल रहा है, उसके घर में, उसके पति के साथ. अविनाश के जाते समय, हाथ हिलाती रूमी से आके उसका पति लिपट जाता है. पूछता है, ‘’वो ठीक तो है?’’. उसे सब कुछ पहले से पता है. दूसरी बार ऐसा मौका आता है, जब तान्या की माँ की भूमिका में अमला अक्किनेनी परदे पर सामने आती हैं. हालाँकि उनका किरदार फिल्म में कुछ बहुत अलग सा इजाफ़ा नहीं करता, पर उनका होना ही जैसे फिल्म को थमने की याद दिला देता है. यही वो पल हैं, जब दुलकर को भी उनकी काबिलियत के बराबर का दृश्य अभिनीत करने को मिलता है.  

आखिर में, कारवां को नापसंद करने की कोई ख़ास वजह नहीं है. बहुत मुमकिन है कि आप इस सफ़र को बहुत देर तक याद भले ही न रखें, इस सफ़र में होना आपको कतई परेशान नहीं करेगा. फिल्म में शौक़त की वैन पर एक मशहूर शेर लिखा होता है, “मैं अकेला ही चला था, जानिब-ए-मंजिल मगर...लोग साथ आते गये, कारवां बनता गया. फिल्म देखने के बाद स्वर्गीय नीरज जी का एक गीत मेरे ज़ेहन में भी उभरा, “कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे’, हालाँकि ये गुबार खूबसूरत बहुत था! [2.5/5]              

मुल्क: ‘इस्लामोफ़ोबिया’ से ग्रस्त हैं? आज ही देखें. [3.5/5]


तेज़-तर्रार पुलिस ऑफिसर दानिश जावेद (रजत कपूर) शहर के मुस्लिम-बहुल इलाके में छिपे एक आतंकवादी को मार गिराने की नीयत से अपनी टीम के साथ आगे बढ़ रहा है. साथ ही, मुस्लिमों की आबादी पर तंज कस रहा है, “इतने बच्चे क्यूँ पैदा कर लेते हो?”. उसी रौ में बहते हुए एक सिपाही बोल पड़ता है, “अरे, साहब! इन लोगों का ऐसा ही रहता है.”, ये भूलते हुए कि उसके साहब खुद भी एक मुसलमान हैं. ऐसे ही एक पूर्वाग्रह से ग्रस्त दानिश खुद भी है, जब बात आतंकवाद को मुस्लिमों से जोड़ कर देखने की आती है. अनुभव सिन्हा की मुल्क देश में बढ़ते धार्मिक उन्माद, साम्प्रदायिकता और आम जन के मन में पल-बढ़ रहे पूर्वाग्रहों, कुतार्किक अवधारणाओं और आपसी भेदभाव को कटघरे में खड़े करते हुए, कुछ बेहद जरूरी और कड़े सवाल सामने रखती है. हालाँकि अपनी बनावट में फिल्म थोड़ी पुराने ज़माने और ढर्रे की जरूर जान पड़ती है, पर मुल्क अपनी बात जोरदार तरीके से कहने में ना ही कमज़ोर पड़ती है, ना ही डरती-सहमती है.

कैसे साबित करेंगे आप, अपने मुल्क के प्रति अपनी वफ़ादारी? खास तौर पर, जब आपका नाम मुराद अली (ऋषि कपूर) हो, या फिर बिलाल अली (मनोज पाहवा), जिसका बेटा शाहिद (प्रतीक स्मिता बब्बर) आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त पाया गया है. कैसे साबित करेंगे कि 1927 में बना मुराद-मंजिल आपका घर नहीं, देश-विरोधी गतिविधियों का अड्डा है? ...और ये और भी मुश्किल हो जाता है, जब आप की देशभक्ति पर सवाल उठाने वालों की आँखों पर पहले से ही धर्म-विरोधी काला चश्मा चढ़ा हो. हम ऐसे हैं और वो ऐसे; अलगाव की इस गन्दी राजनीति का हिस्सा धीरे-धीरे ही सही हम सब बनते जा रहे हैं. मुल्क कम से कम हमें झकझोर कर जगाने की कोशिश तो करती ही है.

मुल्क अपने पहले हिस्से में बहुत सारा वक़्त बनारस की जानी-पहचानी गलियों में धार्मिक सहिष्णुता के ठहाके लगाने में बिताती है, जहां वकील मुराद अली अपनी 65वीं सालगिरह पर परिवार और दोस्तों के लिए खुद मटन-कोरमा बना रहे हैं. पड़ोसियों में शामिल घोर शाकाहारी मित्र भी कबाब चख रहे हैं, हालाँकि आप अच्छी तरह जानते हैं कि ये सारा सेट-अप जल्द ही टूटने वाला है और तनाव का माहौल पलक झपकते ही सारे रिश्ते चकनाचूर कर जाएगा. हम और वो की न दिखने वाली खाई जल्द दिखाई भी देगी, साथ ही और गहरी भी होती जायेगी. पाकिस्तान भेजने की पेशकश दीवारों पे इश्तेहार की तरह छपेगी और माता के जागरण का लाऊडस्पीकर जानबूझकर मुराद-मंजिल की ओर ही मोड़ दिया जाएगा.

एक लिहाज़ से पुराने ढर्रे का ये ड्रामा फिल्म के हक में ही काम करता है, क्यूंकि दूसरे हिस्से में आप को कोर्ट की उस अहम कार्यवाही का गवाह बनना है, जहां किरदारों के आरोप-प्रत्यारोप के बीच अक्सर आप खुद को, इन तमाम सवालों पर अपनी सोच के साथ कटघरे में खड़ा पायेंगे. मुराद अली की बहू (तापसी पन्नू) का नाम लेने में खुद जज साब (कुमुद मिश्रा) एक बार को अचकचा जाते हैं, मोहम्मद आरती या आरती मोहम्मद’? हिन्दू है, और मुराद अली की वकील भी. सरकारी वकील संतोष आनंद (आशुतोष राणा) जनमानस को संतुष्ट और खुश करने वाली मुस्लिम-विरोधी दलीलों से खेलना ख़ूब अच्छी तरह जानता है. उकसाने, भड़काने और तालियाँ बटोरने में माहिर है.

मुख्य किरदारों के तौर पर ऋषि कपूर और तापसी पन्नू की अच्छी अदाकारी के साथ, फिल्म में उनकी मौजूदगी भले ही ज्यादा वक़्त के लिए हो, पर अपनी छोटी सी भूमिका में ही आपको मन भर द्रवित कर देते हैं अभिनेता मनोज पाहवा. फिल्म के आधे हिस्से तक तो लगता है, मानो पूरी की पूरी फिल्म उनकी ही हो, उनपे ही हो. बड़े भाई मुराद अली के सामने अपनी गलतियां बयान करते वक़्त, पुलिस स्टेशन में ज्यादतियां सहते वक़्त, शाम की दावत के लिए 10 किलो और मटन को लेकर भाई से मोल-भाव करते वक़्त, मनोज अपने पूरे शबाब पर होते हैं. रजत कपूर, कुमुद मिश्रा और आशुतोष राणा अपने किरदारों के साथ बखूबी इन्साफ करते हैं. राणा अपनी भाषाशैली के दम पर एक अति-राष्ट्रवादी वकील की भूमिका में आपकी नफरत हासिल करने में खासे कामयाब रहते हैं.

अंत में, मुल्क के जरिये अनुभव सिन्हा आतंकवाद, साम्प्रदायिकता और असहिष्णुता जैसे मुद्दों पर खुल कर बोलते हैं. कुछ इस बेबाकी से कि फिल्म के आखिर में निर्णय सुनाते वक़्त जज साब की आवाज़ में उनकी अपनी बेचैनी, तल्खी और विचारधारा साफ़ सुनाई देती है. मुराद अली को सलाह देते वक़्त जज साब कहते हैं,अगली बार कोई अगर आपको आपकी दाढ़ी के लिए सवालों के घेरे में खड़ा करे, तो उन्हें चुप कराने के लिए भारत के संविधान का पहला ही पन्ना ज़ेरॉक्स करा कर रख लीजिये, काफी है.” अगर आप भी इस्लामोफ़ोबिया जैसी बीमारी से ग्रस्त हैं, तो आपको मुल्क हफ्ते में कम से कम दो बार देखनी चाहिए. दवा थोड़ी महंगी जरूर है, पर घोर असरदार!