दो-चार-दस गिनती की फिल्में को छोड़ दें तो हिंदी फिल्म
इंडस्ट्री ने समलैंगिकों और समलैंगिकता को जिस बेरुखी, जिस छिछले तरीके से परदे पर
अपने मतलब (...और भौंडे मनोरंजन) के लिए इस्तेमाल किया है, उसे साफ़ और पाक करने के
लिए कोई एक फिल्म काफी साबित नहीं हो सकती, ये एक शर्मनाक सच है...पर इसी के साथ
एक सच और भी है, कोशिशों ने हौसलों का दामन अभी छोड़ा नहीं है. हंसल मेहता की बेहद
सुलझी हुई, संजीदगी और सादगी से भरी हुई ईमानदार फिल्म ‘अलीगढ़’ ऐसी ही एक बेहतरीन
कोशिश है, जो समलैंगिकता को सनसनीखेज बनाकर परोसने की बेहयाई नहीं करती बल्कि उसे ‘निजता
के अधिकार’ के साथ मिलाकर एक ऐसा मुहीम छेड़ देती है जिससे बचना-मुंह मोड़ना और
अनदेखा कर देना किसी भी संवेदनशील आदमी के लिए आसान नहीं रह जाता!
प्रोफेसर सिरास [परदे पर मनोज वाजपेयी] अलीगढ़ यूनिवर्सिटी
में मराठी पढ़ाते हैं. तलाकशुदा हैं, सो अपने छोटे से कमरे में अकेले रहते हैं. अकेलेपन
के दर्द से जूझते प्रोफेसर सिरास को लता मंगेशकर का ‘आपकी नज़रों ने समझा’ सुनना और
सुनते-गुनगुनाते व्हिस्की के हलके-हलके घूंट गले से उतारना अच्छा लगता है. उनकी
खाली शामें अक्सर ऐसे ही गुजरती हैं, बंद कमरे में! ऐसी ही एक रात अचानक कुछ रिपोर्टर
उनके घर में घुस कर उन्हें एक दूसरे आदमी के साथ अन्तरंग स्थिति में होते हुए
कैमरे में कैद कर लेते हैं. उनके साथ मारपीट भी होती है पर कड़ी मुश्किलें तब शुरू
होती हैं जब समाज उन्हें इस पूरे वाकये के बाद एक अलग संकीर्ण नजरिये से देखना
शुरू कर देता है. यूनिवर्सिटी से उन्हें ‘नैतिकता’ की दुहाई देकर निकाल दिया जाता
है. इन सबके बावजूद प्रोफेसर लगातार हालातों से समझौते करने में जुटे रहते हैं. आखिरकार,
उनकी ख़ामोशी को आवाज़ देता है एक नौजवान रिपोर्टर दीपू [राजकुमार राव] और तब,
प्रोफेसर सिरास अपने अधिकारों, अपने सम्मान की लड़ाई के लिए खुल कर सामने आते हैं.
सच्ची घटनाओं से प्रेरित ‘अलीगढ़’ आपको बड़े धीरे-धीरे प्रोफेसर
सिरास के करीब ले जाती है, जहां उनकी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से अलग एक ऐसा मासूम
किरदार आपके सामने आ खड़ा होता है जो बड़ी समझदारी से प्यार को समझता है और उतनी ही सरलता
से समझाता भी है. जैसे-जैसे आप प्रोफेसर को जानने लगते हैं, उनका समलैंगिक होना
आपके जेहन से दूरी बनाने लगता है. उनकी कविताओं में आप प्रेम की नई परिभाषाएं
तलाशने लगते हैं. उनकी आँखों का खालीपन धीरे-धीरे आपके दिल को कचोटने लगता है, और
ये सब अगर मुमकिन होता है तो उसके पीछे है अपूर्व असरानी की दिल छू लेने वाली
कहानी और मनोज बाजपेयी का शानदार अभिनय. मनोज का अभिनय बोलने से ज्यादा कहने में
यकीन रखता है. प्रोफेसर सिरास को वो जिस संजीदगी से और नजाकत से दर्शकों तक
पहुंचाते हैं, एक वक़्त आता है जब आप दोनों को [मनोज और प्रोफेसर सिरास] अलग-अलग करके
देखना भूल ही जाते हैं. अदालत की उबाऊ कार्यवाई में बोर होते हुए, ‘हैंडसम’ बोलने
पर शर्माते हुए, ‘आपकी नज़रों ने समझा’ गुनगुनाते वक़्त लय छोड़ते-तोड़ते हुए और संगम पर
दीपू के साथ खिलते-मुस्कुराते हुए; मनोज एक ऐसी छाप छोड़ जाते हैं जो आपको बार-बार
अभिनय में उनके कद की याद दिलाता रहेगा. सधे और नपे-तुले अभिनय से, राजकुमार राव अपने
किरदार के साथ बड़ी मजबूती से खड़े दिखाई पड़ते हैं और फिल्म को आगे ले जाने में कहीं
कोई कसर नहीं छोड़ते.
इतने सब के बावजूद, ‘अलीगढ़’ में अगर (मुझे) थोड़ी बहुत
शिकायत रह जाती है, तो वो है इसका ‘शाहिद’ की तरह का धारदार न होना. ‘अलीगढ़’ आपको
सोचने पर मजबूर तो करती है, आपको प्रोफेसर सिरास की शख्सियत से बखूबी रूबरू भी
कराती है पर पूरी तरह झकझोर देने में कहीं न कहीं कमज़ोर रह जाती है. फिल्म में
दीपू सेबास्टियन का प्रेम-प्रसंग भी फिल्म में किसी तरह का कुछ ठोस, जरूरी और जायज़
इज़ाफा नहीं करता. पर इन चंद शिकायतों से परे, हंसल मेहता की ‘अलीगढ़’ एक बेहद जरूरी
फिल्म है जो समलैंगिकता को कठघरे में खड़ा नहीं करती बल्कि उसे आपके ड्राइंग रूम
में जगह देती है, आपकी बातचीत का हिस्सा बनती है और बेहतर समाज की तरफ एक अहम कदम
बढ़ाती है. आखिर अब नहीं तो कब? जरूर देखिये! [3.5/5]