Wednesday, 25 January 2017

काबिल: ना‘काबिल’-ऐ-बरदाश्त! [2/5]

संजय गुप्ता की ‘काबिल’ देखते वक़्त अक्सर मिथुन चक्रवर्ती और उनकी कुछ बहुत बेहतरीन फिल्मों की याद बरबस आ जाती है. लगता है, जैसे अभी भी मिथुन दा का ज़माना पूरी तरह गया नहीं. ‘आदमी’, ‘जनता की अदालत’, ‘फूल और अंगार’ जैसी फिल्मों को परदे पर धूम मचाते देखते हुए अभी गिन-चुन के सिर्फ 24-25 साल ही तो गुजरे हैं. भ्रष्ट राजनेताओं और उनके तलवे चाटते पुलिस महकमे से तमाम जुल्म-ओ-सितम का बदला लेने के लिए जब मिथुन दा कमर कस के खड़े होते थे, अचानक जैसे बलात्कार की शिकार उनकी बहन अपनी बहन लगने लगती थी, और अर्जुन, गुलशन ग्रोवर, हरीश पटेल जैसे गुंडे अपने ही जानी दुश्मन. सिनेमा की ताक़त ही यही होती है. पर सवाल सिर्फ इतना है कि अगर उन तमाम फिल्मों को घोर लोकप्रियता के बावजूद आज हम ‘बी-ग्रेड सिनेमा’ की श्रेणी में रखते हैं, तो ‘काबिल’ को भी इस काबिल क्यूँ नहीं समझा जाना चाहिए? या फिर शायद हमें इसके लिये 24-25 साल और इंतज़ार करना होगा.

संजय गुप्ता कोरियाई फिल्मों के मुरीद रहे हैं. गाहे-बगाहे कभी चुरा कर, तो कभी 56 इंची सीने के साथ रीमेक अधिकार खरीद कर उन्हीं फिल्मों को हिंदी में ज्यों का त्यों परोसते रहे हैं. ऐसे में विजय कुमार मिश्रा की तथाकथित ‘ओरिजिनल’ स्क्रिप्ट पर फिल्म बनाने का उनका फैसला ऐतिहासिक माना जाना चाहिए. रोहन भटनागर (हृतिक रोशन) देख नहीं सकता, पर वो सुन सकता है, सूंघ सकता है, स्टूडियो में बिना देखे कार्टून शोज़ की परफेक्ट डबिंग कर सकता है. सुप्रिया (यामी गौतम) भी देख नहीं सकती, पर लिपस्टिक और ऑयलाइनर इस्तेमाल करने में कभी कोई गलती नहीं करती. दोनों एक-दूसरे से बात करते हुए बगल में रखे गमले को एकटक, बिना पलक झपकाए, चौड़ी खुली आँखें से देखते रहते हैं, ताकि आपको उनका ‘न देख पाना’ हमेशा याद रहे. दोनों की हंसती-खेलती जिंदगी में भूचाल तब आता है, जब एक लोकल गुंडा (रोहित रॉय) अपने बाहुबली नेता भाई (रोनित रॉय) की शह पर सुप्रिया का बलात्कार कर देता है. भ्रष्ट सिस्टम के सामने बेबस, लाचार रोहन के पास अपनी बीवी पर हुए अत्याचार का बदला लेने के लिए अब सिर्फ एक ही रास्ता है, कानून अपने हाथ में ले लेना.

बलात्कार जैसा घिनौना और ज्वलंत मुद्दा हो या ‘नेत्रहीनों’ के प्रति सही रवैया रखने-दिखाने की कवायद, ‘काबिल’ निहायत ही उदासीनता का परिचय देती है. फिल्म अपनी ओर से तनिक भी कोशिश नहीं करती कि आप इन दोनों मुद्दों से जुड़ने का साहस दिखाएं. सब कुछ बस आपकी अपनी संवेदनशीलता पर टिका रहता है. कहाँ तो आपको इन दोनों किरदारों के लिए ज़ज्बाती होने की सुविधा मिलनी चाहिए थी, पर होता उल्टा है. ऐसा लगता है जैसे संजय गुप्ता की सारी कवायद सिर्फ इस एक बात में लगी रहती है कि ‘नेत्रहीन’ भी फ़िल्मी नायक-नायिकाओं की तरह हर वक़्त सजे-धजे हो सकते हैं. फिल्म अपने पहले हिस्से में अगर आपको किरदारों से जोड़ने में चूक जाती है, तो भी आपको इंटरवल के बाद ये उम्मीद रहती है कि फिल्म अब रोमांचक होने के साथ-साथ थोड़ी समझदार होने की भी हिम्मत दिखायेगी, पर धीरे-धीरे आपको हृतिक में मिथुन की छवि दिखने लगती है, तो ये रही-सही उम्मीद भी टूटती जाती है.

हृतिक रोशन किरदारों में ढल जाने के लिए जाने जाते हैं, और हालाँकि फिल्म में बस वही हैं जो अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में अव्वल रहते हैं (रोनित रॉय ऐसे दूसरे एकलौते कलाकार हैं), पर फिर भी एक साधारण एक्शन हीरो से ज्यादा कुछ कर गुजरने से बचते फिरते हैं. एक अच्छी कहानी होने के बावजूद, अत्यंत सामान्य स्क्रीनप्ले के साथ उनसे इससे ज्यादा की उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए. मराठी कार्पोरेटर की भूमिका में रोनित न सिर्फ भयावह लगे हैं, बल्कि एकदम सधे हुए भी. बोल-चाल हो या हाव-भाव, वो अपने किरदार से तनिक भी अलग-थलग नहीं पड़ते. यामी गौतम खूबसूरत लगने के अलावा कुछ और नहीं करतीं. रोहित रॉय ठीक-ठाक हैं, तो नरेन्द्र झा और गिरीश कुलकर्णी प्रभावी.

अंत में, ‘काबिल’ हृतिक के काबिल कन्धों पर टिके होने बावजूद एक इतनी आम फिल्म है, जो न ही आपको इमोशनली जोड़े रखने में कामयाब होती है, न ही इतनी स्मार्ट कि आप अपनी सीट से अंत तक चिपके रहें. मिथुन दा साइकिल की आड़ में छुपकर दुश्मनों की गोलीबारी से बचते रहें? चलता है, पर दुश्मन की थाह पाने के लिए हृतिक पूरे फ्लोर पर चिप्स और पॉपकोर्न बिखेर कर अँधेरे में दुश्मन का इंतज़ार करें? नहीं चलता, बॉस! आप तो कोरियाई ‘रीमेक’ ही बनाओ...ओरिजिनल के नाम पर हमें बस और मत बनाओ! [2/5]          

रईस: सत्तर का सिनेमा+नब्बे का शाहरुख़= मसालेदार मनोरंजन [3/5]

1975 में; सलीम-जावेद की ‘दीवार’ जनवरी महीने के ठीक इसी हफ्ते सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई थी. 42 साल बाद, राहुल ढोलकिया की ‘रईस’ अगर इतिहास दोहरा नहीं रही, तो कम से कम ‘दीवार’ के साथ हिंदी फिल्मों में नायक के बदलते हाव-भाव और ताव को एक बार फिर उसी जोश-ओ-जूनून से परदे पर जिंदा करने की कोशिश तो पूरी शिद्दत से करती ही है. फिल्म का टाइटल-डिजाईन हो, कहानी के जाने-पहचाने उतार-चढ़ाव हों, नायक के तौर-तरीके, सिस्टम के साथ उसकी उठा-पटक या फिर फिल्म के निर्माण में फरहान अख्तर (जावेद साब के बेटे) की बेहद ख़ास भूमिका; ‘रईस’ में कुछ भी इत्तेफ़ाक नहीं लगता. ‘रईस’ हिंदी फ़िल्म इतिहास के सबसे बाग़ी और जोशीले ’70 के दशक का जश्न कुछ इस ज़ोर-शोर से मनाती है, लगता है जैसे सिनेमा का मौजूदा पर्दा भी 70mm की तरह ही फैलने-खुलने लगा है.

दीवार’ अगर मुंबई अंडरवर्ल्ड के सबसे नामी तस्कर हाजी मस्तान की जिंदगी से अपनी कहानी चुनती है, तो ‘रईस’ गुजरात के अवैध शराब माफिया अब्दुल लतीफ़ के किस्सों के आस-पास ही अपनी जमीन तलाशती है. हालाँकि दोनों ही फिल्में विवादों से बचने के लिए ‘काल्पनिक’ होने की सुविधा का भरपूर लाभ उठाती हैं. गुजरात में शराब पर पाबन्दी है, और ‘पाबन्दी ही बग़ावत की शुरुआत होती है’. कोई धंधा छोटा नहीं होता और धंधे से बड़ा कोई धर्म नहीं. इसी फलसफे पर चलते-चलते, रईस हुसैन (शाहरुख़ खान) शराब की तस्करी के धंधे में आज सबसे बड़ा नाम है. कानून अब तक तो उसकी जेब में ही था, पर जब से ये कड़क और ईमानदार अफसर मजमूदार (नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी) आया है, माहौल में गर्मी थोड़ी बढ़ गयी है. मजमूदार रईस की गर्दन तक पहुँचने का कोई भी मौका छोड़ना नहीं चाहता, पर रईस हर बार अपने ‘बनिए के दिमाग और मियाँ भाई की डेरिंग’ के इस्तेमाल से बचता-बचाता आ रहा है. चूहे-बिल्ली की इस दौड़ में यूँ तो किसी की भी चाल, कोई भी दांव इतना रोमांचक नहीं होता कि आप जोश-ओ-ख़रोश में सीट से ही उछल पड़ें, पर दोनों किरदारों की कभी ढीली न पड़ने वाली अकड़, लाजवाब एक्शन और वजनदार संवादों के जरिये हर बार आपको लुभाती रहती है.

रईस’ का रेट्रो लुक फिल्म की साधारण कहानी पर किसी भी पल भारी पड़ता है. जमीन से उठकर अंडरवर्ल्ड सरगना बनने का सफ़र, और फिर गरीबों का मसीहा बनकर राजनीति में उतरने का दांव; फिल्म की कहानी में ऐसे उतार-चढ़ाव कम ही हैं, जो आपने देखे-सुने न हों. इतना ही नहीं, ठहरी हुई शुरुआत और सुलझे हुए अंत के दरमियान, फिल्म कुछ इस रफ़्तार से भागने लगती है कि आपके लिए ‘क्या छोड़ें-क्या पकड़ें’ वाली दुविधा पैदा हो जाती है. फिल्म ’70 के दशक में जाने के उतावलेपन में गुजरे ज़माने की खामियों को भी उसी बेसब्री से अपना लेती है, जितनी शिद्दत से उस दौर की काबिल-ऐ-तारीफ़ अच्छाइयां. नायिका (माहिरा खान) को बड़ी समझदारी और सहूलियत से कहानी में किसी खूबसूरत ‘प्रॉप’ की तरह लाया और ले जाया जाता है. गाने के दौरान ही शादियाँ हो जाती हैं, गाने के दौरान ही बच्चे भी और गानों की आड़ में ही दुश्मनों का सफाया!

‘स्टारडम’ के पीछे दुम हिलाती फिल्मों से हम कितने पक और थक गए हैं, इसकी सबसे ताज़ा मिसाल है ‘रईस’. भले ही औसत दर्जे की कहानी के साथ ही सही, पर परदे पर शाहरुख़ की शानदार शख्सियत को एक जानदार किरदार के तौर पर पेश करने की पहल भर से ही ‘रईस’ अपने नंबर बखूबी बटोर लेती है. पहले ‘फैन’, फिर ‘डियर जिंदगी’ और अब ‘रईस’; शाहरुख़ किसी नौसिखिये की तरह परदे पर अपनी एक बनी-बनाई ‘इमेज’ को तोड़ कर नये सांचे में ढलने की खूब कोशिश कर रहे हैं. ये आज के लिए भी अच्छा है और आने वाले कल के लिए भी. नवाज़ुद्दीन बेख़ौफ़ हवा की तरह हैं, बहते हैं तो देखते भी नहीं कि आगे कौन है, क्या है? परदे पर वो हीरो की तरह स्लो-मोशन में भले ही एंट्री न लेते हों, मार-धाड़ भी न के बराबर ही करते हैं, फिर भी तालियाँ उनके हिस्से में जैसे पहले से ही लिख-लिखा के आई हों. मोहम्मद जीशान अय्यूब पूरी मुस्तैदी से फिल्म के सबसे ठन्डे फ्रेम को भी अपनी अदाकारी से गर्म रखते हैं, चाहे फिर उनके पास देने को ‘रिएक्शन’ के चंद ‘एक्सप्रेशंस’ ही क्यूँ न हों.

आखिर में, राहुल ढोलकिया भले ही तमाम राजनीतिक सन्दर्भों (मुंबई ब्लास्ट, हिन्दू-मुस्लिम दंगे, गोधरा-कांड) को इशारों-इशारों में पिरो कर फिल्म को एक माकूल जमीन देने की कोशिश करते हों, ‘रईस’ रहती तो एक मसाला फिल्म ही है, जिसके लिये मनोरंजन का बहुत कुछ दारोमदार सत्तर के दशक के सिनेमा और नब्बे के दशक के शाहरुख़ पर टिका दिखाई देता है. अब इससे खतरनाक मेल और क्या होगा? [3/5] 

Tuesday, 17 January 2017

हरामखोर: खुरदरी, बिखरी-बिखरी, पर अच्छी! [3/5]

पटना के प्रोफेसर बटुकनाथ चौधरी, उम्र 55 साल की प्रेम-कहानी अपनी ही एक शिष्या जूली, उम्र 26 साल के साथ, टीवी के समाचार चैनलों पर काफी लोकप्रिय रही थी. देखने वालों से लेकर दिखाने वालों तक, सब अपने-अपने नजरिये से इस औगढ़ प्रेम-कहानी को परंपरागत सामाजिक ढ़ांचे से अलग-थलग करके देखने की जुगत भिड़ा रहे थे. तकरीबन 10 साल बाद, श्लोक शर्मा की ‘हरामखोर’ कुछ इसी तरह की पृष्ठभूमि पर अपनी एक अलग कहानी गढ़ने का साहस दिखाती है. फर्क सिर्फ इतना है कि श्लोक फिल्म या फिल्म के किरदारों के बारे में राय बनाने का हक दर्शकों के जिम्मे छोड़ने की हिम्मत नहीं दिखा पाते. जहां एक तरफ फिल्म का निहायत ही स्पष्ट टाइटल सीधे-सीधे आपको एक तयशुदा मंजिल की ओर लगातार धकेलता रहता है, वहीँ दूसरी ओर फिल्म की शुरुआत में ही उनका सधा हुआ ‘डिस्क्लेमर’ कहानी कहने-समझने से कोसों पहले ही बचाव की मुद्रा में आ जाता है. मुझे नहीं पता, अगर ऐसा किन्ही सामाजिक संगठनों (सेंसर बोर्ड या बाल कल्याण समिति जैसा कोई भी) के दबाव में आकर किया गया हो.

श्याम (नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी) अव्वल दर्जे का हरामखोर मास्टर है. अपनी ही एक स्टूडेंट को पटा कर पहले ही बीवी बना चुका है, और अब मंसूबे दूसरी स्टूडेंट संध्या (श्वेता त्रिपाठी) को भी भोगने की है. फ्रस्टियाता है तो स्कूल में बच्चियों को बेरहमी से कूट भी देता है. गिरगिट ऐसा कि जब बीवी सुनीता (त्रिमला अधिकारी) उसे गुस्से में छोड़ कर जा रही होती है, मनाने के लिए जमीन तक पर लोट जाता है. पर अगले ही पल जब उसे थप्पड़ पड़ता है, तो झुंझलाहट में उसी बीवी को गालियाँ बकने लगता है. श्लोक बड़ी आसानी से और बड़ी जल्दबाजी में उसे ‘हरामखोर’ पेश करने में लग जाते हैं, जबकि फिल्म में बड़े ‘हरामखोर’ कद में छोटे और इरादों में कमीने कुछ ऐसे बच्चे हैं, जो बड़ी सफाई से न सिर्फ बड़ों (श्याम-संध्या और सुनीता) के रिश्तों में उथल-पुथल मचाते रहते हैं, बल्कि बड़ी बेशर्मी से उनके किरदारों को कसौटी पर कसने की, उनकी नैतिकता पर फैसले सुनाने की हिमाकत भी खूब करते हैं.

कमल (मास्टर इरफ़ान खान) को भी संध्या से पहली नज़र का प्यार है. कमल को संध्या से मिलाने में मिंटू (मास्टर मोहम्मद समद) हर वक़्त एक पैर पर खड़ा रहता है. उसी ने बताया है कि अगर लड़का-लड़की एक दूसरे को बिना कपड़ों के देख लें, तो उनकी शादी हो जाती है. कमल ने संध्या को देख लिया है, अब सारी मेहनत सफल हो जाये अगर संध्या भी कमल को बिना कपड़ों में देख ले. संध्या बिन माँ की बच्ची है. पिता अक्सर शराब में धुत्त घर लौटते हैं. संध्या जानती है, हर हफ्ते पिता काम-काज का बहाना करके शहर क्यूँ जाते हैं? नीलू जी सिर्फ उसके पिताजी के साथ काम नहीं करतीं, दोनों ने अपना एक अलग आशियाना बना रखा है. पिता की बेरूखी और उनसे कटाव भले ही संध्या के लिये मास्टरजी के चंगुल में फंसने का वाजिब बहाना दिखे, पर संध्या बखूबी और पूरी मजबूती से इस प्यार में खुद को कड़ा और खड़ा रहती है.

'हरामखोर’ उस खांचे की फिल्म है, जहाँ फिल्म का बैकग्राउंड इतना जमीनी है कि आप उससे जुड़े बिना नहीं रह सकते. टीले पर अगर तेज़ हवा सांय-सांय बह रही है, तो धूल जैसे आपके चेहरे पर पर भी आ रही है, इतना जमीनी. पर श्लोक जहाँ चूकते नज़र आते हैं, वो है उनके किरदारों का ताबड़-तोड़ आपके सामने खुल के बिखर जाना. कुछ इतनी तेज़ी से कि उनसे आपका लगाव हमेशा बनते-छूटते रहता है. फिल्म में बहुत सारे पल ऐसे हैं जो बोल्ड होते हुए भी मजेदार हैं और मजेदार होते हुए भी उतने ही बोल्ड, पर एक बार फिर, एक-दूसरे से इतने कटे-कटे कि लगता है जैसे जिग्सा पजल के कुछ टुकड़े अभी भी बीच-बीच में रखने बाकी हैं.

मुकेश छाबड़ा कास्टिंग में कमाल कर जाते हैं, खास कर बाल कलाकारों और नीलू जी की भूमिका निभाने वाली कलाकार के चयन में. पैंट-बुशर्ट पहनने वाली, लड़कों जैसे कटे बालों में संध्या के पिता की प्रेमिका फिल्म की शायद एकलौती ऐसी कलाकार हैं, जिनके साथ आप धीरे-धीरे जुड़ना शुरू करते हैं, और अंत तक आते-आते उन्ही का एक दृश्य फिल्म का सबसे निर्णायक और सबसे संजीदा बनकर उभरता है. नवाज़ुद्दीन अगर अपने हाव-भाव, तौर-तरीके से गंवई मास्टरजी का एकदम सटीक चित्रण पेश करने में कामयाब रहते हैं, तो श्वेता भी आपको हैरान करने में पीछे नहीं रहतीं. 15 साल की उमर, झिझक, तुनक, छिटक, खनक, सनक; श्वेता संध्या की किरदार से पल भर भी दूर नहीं होतीं. मास्टर इरफ़ान और मास्टर समद फिल्म के सबसे मजेदार दृश्यों को अपने नाज़ुक कन्धों पर बिना किसी शिकन के ढोते रहते हैं. त्रिमला बेहतरीन हैं.

आखिर में; श्लोक शर्मा की ‘हरामखोर’ उस खुरदरे, उबड़-खाबड़ रस्ते जैसी है, जिस से होकर कभी आपने बचपन का सफ़र तय किया होगा. एक बार फिर उन रस्तों पर चलने, न चलने की सुविधा लाख आपके पास हो, बीते वक़्त का जायका चखने का मोह कौन छोड़ना चाहेगा भला? बेहतर होता, अगर कहानी पूरी तरह जीने के बाद निष्कर्ष पर पहुँचने की सुविधा भी हमारे ही हाथ होती! किरदारों के साथ तसल्ली से जुड़ कर उन्हें ‘हरामखोर’ ठहरा पाने का सुख भी हमारे (दर्शकों के) ही नसीब होता!...और थोड़ी कम अस्त-व्यस्त, कम बिखरी-बिखरी! [3/5]