साल काफ़ी चौंकाने वाला रहा. उम्मीदों पर खरा न उतरना हिंदी सिनेमा के लिए कोई नयी बात नहीं है, पर बॉक्स-ऑफिस पर सफलता की गारंटी समझे जाने वाले बड़े-बड़े नामों को दर्शकों ने जिस बेरूखी से नकारने का जिम्मा उठाया, वो ज़रूर एक नयी उम्मीद जगाता है. यह साल वो रहा, जब सिनेमा में भाषाई प्रयोग ख़ूब हुए भी, चले भी. हॉरर को ख़ूब तवज्जो मिली. पहले ‘परी’, फिर ‘स्त्री’ और आखिर तक आते-आते ‘तुम्बाड’; कभी हास्य में डुबो कर, तो कभी खालिस कहानी कहने की पुरानी परम्पराओं में पिरो कर.
वक़्त है, एक बार फिर मुड़के देखने का. पूरे का पूरा साल अच्छे, बुरे के खांचे में.
सर्वश्रेष्ठ 5 फ़िल्में
- अक्टूबर
‘अक्टूबर’ जूही चतुर्वेदी के निडर लेखन, शूजित सरकार के काबिल निर्देशन और वरुण धवन के सहज, सरल और सजीव अभिनय का मिला-जुला इत्र है, जो फिल्म ख़तम होने के बाद तक आपको महकता रहेगा, महकाता रहेगा. बॉक्स-ऑफिस पर सौ करोड़ करने की दौड़ चल रही हो, और ऐसे आप सिनेमा के लिए ‘अक्टूबर’ जैसा कुछ बेहद खुशबूदार, खूबसूरत और ख़ास लिख रहे हों, किसी बड़े मजे-मंजाये फिल्म-लेखक के लिए भी इतनी हिम्मत जुटाना हिंदी सिनेमा में आसान नहीं है. ऐसा होते हुए भी हमने कम ही देखा है. जूही चतुर्वेदी इस नक्षत्र का एकलौता ऐसा सितारा हैं.
- तुम्बाड
हॉरर फिल्मों का एक दौर था, जब हमने फिल्मों में कहानी ढूँढनी छोड़ दी थी, और डरने के नाम पर पूरी फिल्म में सिर्फ दो-चार गिनती के हथकंडों का ही मुंह देखते थे. कभी कोई दरवाजे के पीछे खड़ा मिलता था, तो कभी कोई सिर्फ आईने में दिखता था. पिछले महीने ‘स्त्री’ ने हॉरर में समझदार कहानी के साथ साफ़-सुथरी कॉमेडी का तड़का परोसा था. इस बार ‘तुम्बाड़’ एक ऐसी पारम्परिक जायके वाली कहानी चुनता है, जो हमारी कल्पनाओं से एकदम परे तो नहीं हैं, पर जिसे परदे पर कहते वक़्त राही बर्वे और उनके लेखकों की टीम अपनी कल्पनाओं की उड़ान को आसमान कम पड़ने नहीं देती.
- मुक्काबाज़
'मुक्काबाज़' कोई 'स्पोर्ट्स' फिल्म नहीं है, जो खिलाड़ियों की जीत का रोमांच बेचने में यकीन रखती हो, पर जितनी देर भी परदे पर खेलों-खिलाड़ियों और उनके इर्द-गिर्द जाल की तरह फैले राजनीति के बारे में बोलती है, असल स्पोर्ट्स फिल्म ही लगती है. यूँ तो फिल्म में बॉक्सर श्रवण हैं, 'मुक्काबाज़' में सबसे जोरदार घूंसे और मुक्के अनुराग कश्यप की तरफ से ही आते हैं. कभी तीख़े व्यंग्य की शक्ल में, तो कभी मज़ेदार संवादों के ज़रिये.
- मुल्क
अनुभव सिन्हा की ‘मुल्क’ देश में बढ़ते धार्मिक उन्माद, साम्प्रदायिकता और आम जन के मन में पल-बढ़ रहे पूर्वाग्रहों, कुतार्किक अवधारणाओं और आपसी भेदभाव को कटघरे में खड़े करते हुए, कुछ बेहद जरूरी और कड़े सवाल सामने रखती है. हालाँकि अपनी बनावट में फिल्म थोड़ी पुराने ज़माने और ढर्रे की जरूर जान पड़ती है, पर ‘मुल्क’ अपनी बात जोरदार तरीके से कहने में ना ही कमज़ोर पड़ती है, ना ही डरती-सहमती है.
- अन्धाधुन
सरकारी बस स्टेशनों और रेलवे प्लेटफार्म पर सरकते ठेलों पर बिकने वाले सस्ते उपन्यासों की शकल याद है? जिनके मुख्यपृष्ठ हाथ से पेंट किये गये 80 के दशक के मसाला फिल्मों का पोस्टर ज्यादा लगते थे, और हिंदी साहित्य का हिस्सा कम? जिनकी कीमत रूपये में भले ही कम रही हो, कीमत के स्टीकर हिंदी में अनुवादित जेम्स हेडली चेज़ के साथ-साथ वेद प्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे अपने मशहूर लेखकों के नामों से हमेशा बड़े दिखते थे? आम जनता के सस्ते मनोरंजन के लिए ऐसे मसालेदार साहित्य अंग्रेज़ी में ‘पल्प फिक्शन’और हिंदी में ‘लुगदी साहित्य’ के नाम से जाने जाते हैं. श्रीराम राघवन सिनेमाई तौर पर हिंदी की इसी ‘लुगदी’ को सिनेमा की उस धारा (फ्रेंच में NOIR या ‘नुआं’ के नाम से विख्यात) से जोड़ देते हैं, जहां किरदार हर मोड़ पर स्वार्थी होकर किसी बड़े उद्देश्य के लिए अपनी भलमनसाहत गिरवी रखने को हमेशा तैयार मिलते हैं.
योग्य 10 फ़िल्में
- स्त्री
‘स्त्री’ एक ऐसी फिल्म है, जो आपको डराती भी है, हंसाती भी है, और ये सब करते हुए आपसे बात भी बहुत करती है. कुछ बेहद ख़ास बातें, फेमिनिज्म की बातें, जिन्हें सुनना और सुन कर समझना आपकी अपनी समझ के दायरे को परिभाषित करती हैं.
- बधाई हो
‘बधाई हो’ एक बेहद मनोरंजक पारिवारिक फिल्म है, जो कम से कम उस वक़्त तक तो आपको अपने माँ-बाप के बीच के रिश्तों को समझने की मोहलत देती है, जितने वक़्त तक आप परदे के सामने हैं. पति-पत्नी से माँ-बाप बनने तक के सफ़र में जिम्मेदारियों के बोझ तले दम तोड़ते अपने रोमांस को वापस जिलाना हो, या उनके गुपचुप रोमांस का जश्न मनाने की हिम्मत जुटानी हो; ‘बधाई हो’जवान बच्चों से लेकर बूढ़े माँ-बाप तक सबके लिए है!
- राज़ी
मेघना गुलज़ार की ‘राज़ी’ अतिवादी देशप्रेम के फलते-फूलते-फैलते सिनेमाई फ़ॉर्मूले को कुछ इस मजबूती और ठोस तरीके से नकारने का बीड़ा उठाती है कि भारत-पाकिस्तान के बीच झूलती कहानी होने के बावजूद परदे पर एक बार भी तिरंगे तक को किसी भी अनुपात में दिखाने की पहल नहीं करती. यहाँ तक कि ‘वतन के आगे कुछ नहीं, खुद भी नहीं’ जैसे वजनी संवाद का ज़िक्र भी आपको तालियाँ पीटने के लिए उकसाता या बरगलाता नहीं, बल्कि आपको ज़ज्बाती तौर पर किरदारों को समझने और उनके जेहनी हाल-ओ-हालात से वाकिफ होने में ज्यादा मददगार साबित होता है.
- परी
डरावनी फिल्मों में अंधविश्वास, लोक कथाओं और पुरानी मान्याताओं का बोलबाला रहता ही है. ऐसी फिल्मों में, ऐसी फिल्मों से तार्किक या वैज्ञानिक होने की उम्मीद करना अपने आप में एक भुलावे की स्थिति है. प्रोसित भी अपनी पहली फिल्म के तौर पे 'परी- नॉट अ फेयरीटेल' में दकियानूसी होने से परहेज़ नहीं करते, पर इस बार की कहानी सतही तौर पर दकियानूसी होने के बावजूद, अपने आप में 'और भी' बहुत कुछ कहने की गुंजाईश बाकी रखती है.
- मंटो
‘मंटो’ हालिया दौर में एक बेहद जरूरी फिल्म है, जो कुछ ऐसे चुभते सवालों के साथ आपका ध्यान खींचती है, जिनका सीधा सीधा लगाव देश, देश में रहने वाले लोगों, उनकी आवाज़, उनकी आज़ादी और साथ ही, देश और धर्म से जुड़े ढेर सारे कुचक्रों से है. सच्चाई क्यूँ न कही जाए, जैसी की तैसी? मंटो हिंदुस्तान-पाकिस्तान, हिन्दू-मुसलमान और श्लील-अश्लील जैसे दायरों में कैद हो सकने वालों में से नहीं थे. इस फिल्म को भी ऐसे किसी भी दायरों से अलग कर के देखे जाने की जरूरत है.
- पटाखा
विशाल भारद्वाज की ‘पटाखा’ अपनी गंवई पृष्ठभूमि, रोचक किरदारों और उनके बीच घटने वाली मजेदार घटनाओं के साथ हिंदी कहानी की चिर-परिचित शैली को परदे पर उकेरने की एक बेहद सफल कोशिश है. विशाल इससे पहले शेक्सपियर और रस्किन बॉन्ड के साहित्य को सिनेमाई रूप दे चुके हैं. इस बार भी, जब वो दर्शकों के लिये चरण सिंह पथिक की एक छोटी कहानी ‘दो बहनें’ को चुनते हैं, मनोरंजन की कसौटी पर कोई चूक नहीं करते.
- ओमार्ता
‘हम अल्लाह के बन्दे हैं’, ‘अल्लाह हमारे साथ है’, जैसे घिसे-पिटे संवादों से भरे दो-चार मौलानाओं की दकियानूसी और फ़िल्मी बर्गालाहट भरे दृश्यों को नज़रंदाज़ कर दें, तो किसी आतंकवादी की एकलौती बायोपिक होने के साथ-साथ ‘ओमार्ता’ एक जरूरी और बेहद मुश्किल फिल्म है, देखने के लिए भी और बनाने के तौर पर भी. फिल्म किसी तरह का कोई सन्देश देने की या फिर एक मुकम्मल अंत देने की जिद से बचती है, इसलिए और भी सच्ची लगती है.
- मनमर्ज़ियाँ
सिमरनें अब राज से ‘शादी से पहले वो नहीं’ का वादा नहीं लेतीं, राज ‘हिन्दुस्तानी लड़की की इज्ज़त क्या होती है’ जानने का दम नहीं भरता. जबरदस्ती शादी के लिए माँ-बाप, परिवार की दुहाई देने पर लड़की भावुक होकर चुपचाप मेहंदी की डिज़ाइन पसंद करने नहीं बैठ जाती. मंडप तक जाने का फैसला अब सिर्फ उसका है, चाहे ऐसा करते उसकी अपने साथ ही, अपने अन्दर ही कितनी ज़ज्बाती लड़ाई क्यूँ न चल रही हो? समाज का रवैया भले नहीं बदल रहा हो, किरदार चुपके चुपके ही सही, बदल रहे हैं. उनकी कहानियाँ बदल रही हैं. और ‘मनमर्ज़ियाँ’ के साथ अनुराग कश्यप भी.
- रेड
‘रेड’ एक बेहद कसी हुई फिल्म है, तकनीकी तौर पर भी और अभिनय की नज़र से भी. महज़ दो घंटे की फिल्म में, बंधी-बंधाई लोकेशन पर, बिना किसी तड़क-भड़क वाले ड्रामा के, लगातार मनोरंजक बने रहना, वो भी ऐसे कथानक के साथ जो किसी को भी आसानी से नाराज़ या अपमानित न करता हो; अपने आप में ही सफल होने के काफी आयाम छू लेता है. ये फिल्म सबूत है कि सौरभ शुक्ला कितने काबिल अदाकार हैं...और अजय देवगन कितने अच्छे हो सकते हैं, अगर गोलमाल जैसी फिल्मों के प्रभाव से दूर रह पाने का लोभ-संवरण कर पायें तो.
- लैला मजनू
बॉलीवुड ने एक अरसे तक लैलाओं को ‘बार-गर्ल’ और ‘आइटम-गर्ल’ बना रख छोड़ा था, समाज और सरकारों ने मजनुओं को वैसे ही बदनाम कर रखा है; ऐसे में साजिद अली की ‘लैला मजनू’ मुकम्मल तौर पर प्रेम-कहानियों की गिरती साख को ऊपर उठाती है. नाकाम इश्क़, ग़मगीन अंजाम और जूनूनी आशिक़; ये कहानी पुरानी ही सही, आज भी उतनी ही असर रखती है, बशर्ते आप दिली तौर पर तैयार हों.
सबसे सफल 5
- वरुण धवन (अक्टूबर,
सुई धागा)
‘अक्टूबर’ में वरुण को दानिश बनते देखना
बेहद सुकून भरा है. यकीन मानिए, ‘जुड़वा 2’ की शिकायतें आपको याद भी नहीं आतीं. रंग बदलना, ढंग बदलना और अपने किरदार में तह
तक उतरते चले जाना; ताज्जुब नहीं, वरुण अभिनय-प्रयोगों में अपने समकालीन अभिनेताओं से काफी आगे निकल गये हैं.
- रणबीर कपूर (संजू)
‘संजू’ पूरी तरह रनबीर में ढली-रची-बसी फिल्म है. सोनम कपूर के साथ बाथरूम वाला
दृश्य हो, या फिर परेश रावल के साथ इमोशनल सीन्स; रनबीर संजय दत्त की तरह सिर्फ चलने, बोलने या दिखने से परे लगते हैं.
परदे पर उनके होते हुए कुछ और देखने-सुनने की चाह भी नहीं रहती.
- आलिया
भट्ट (राज़ी)
‘राज़ी’ की सफलता में आलिया भट्ट की बाकमाल अदाकारी की हिस्सेदारी काफी बड़ी है.
लिंगभेद के चक्कर में न पड़ें, तो फिल्म का नायक वहीँ हैं. महज़ 25
साल की उमर में इस तरह का परिपक्व अभिनय बेहद कम अभिनेताओं के हिस्से आया होगा. ये
उनके किरदार की मासूमियत और उनके खुद के बारीक अभिनय का नतीजा ही है कि आप दर्शक
के तौर पर, खुफ़िया गतिविधियों में हर वक़्त उनकी सलामती के लिए फिक्रमंद महसूस करते हैं.
- आयुष्मान
खुराना (अंधाधुन, बधाई हो)
‘अन्धाधुन’ आयुष्मान की सबसे मुश्किल फिल्म
है. कलाकार के तौर पर उनकी मेहनत और शिद्दत साफ़ नज़र आती है. फिल्म की कहानी में
छलावे कितने भी हों, पियानो पर उनकी उंगलियाँ पूरी सटीक गिरती, उठती, फ़िसलती हैं. कुछ न देख पाने और कुछ
न देख पाने को जताने की कोशिश में उनकी क़ाबलियत निखर कर सामने आती है.
- राजकुमार राव
(ओमार्ता, स्त्री)
‘ओमार्ता’ राजकुमार राव के कद्दावर अभिनय में एक और तमगा है. जिस ख़ामोशी और ठहराव से
वो उमर के किरदार में दाखिल होते हैं, और फिर वक़्त-बेवक्त उसके गुस्से, उसकी सनक और उसकी नफरत को बराबर
मात्रा में नाप-जोख के परदे पर निकालते हैं, देखने लायक है.
सबसे चहेते 15 अदाकार
- गजराज
राव (बधाई हो)
- विनीत
कुमार सिंह (मुक्काबाज़)
- नीना
गुप्ता (बधाई हो)
- रजत
कपूर (परी)
- नारी
सिंह (कालाकांडी)
- जिम सरभ
(पद्मावत)
- जयदीप
अहलावत (राज़ी)
- सौरभ
शुक्ला (रेड)
- प्रियांशु
पेन्यूली (भावेश जोशी सुपरहीरो)
- विक्की
कौशल (संजू, मनमर्ज़ियाँ)
- पंकज
त्रिपाठी (स्त्री)
- अविनाश
तिवारी (लैला मजनू)
- राधिका
मदान (पटाखा)
- गीतांजलि
राव (अक्टूबर)
- यामिनी दास
(सुई धागा)