Friday, 28 December 2018

साल 2018 के नमूने


कोई तब्बू और मनोज बाजपेई को लेकर भी एक वाहियात फिल्म (मिसिंग) गढ़ सकता है, कौन सोच सकता था? स्क्रिप्ट की गहरी समझ रखने वाले आमिर को भी इसी साल सिनेमा के साथ ‘ठगी करनी थी...और फिर (सलमान) भाई तो हैं ही. हालाँकि इस साल बहुतायत रही ऐसी फिल्मों की, जिन्होंने देशभक्ति और राष्ट्रवाद का चटख चोला पहन कर दर्शकों को ख़ूब भरमाया.   

सबसे खराब 5 फ़िल्में
  1. ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान
  2. रेस 3
  3. बाग़ी 2
  4. सत्यमेव जयते
  5. सिम्बा

10 खराब फ़िल्में
  1. परमाणु- द स्टोरी ऑफ़ पोखरण
  2. सोनू के टीटू की स्वीटी
  3. ब्लैकमेल
  4. मिसिंग
  5. दास देव
  6. 102 नॉट आउट
  7. जीनियस
  8. पल्टन
  9. बत्ती गुल मीटर चालू
  10. नमस्ते इंग्लैंड

सिम्बा: साल की सबसे वाहियात फिल्म! [0.5/5]


बहन का बलात्कार, माँ की इज्ज़त, बाप के दामन पर लगा बेईमानी और बदनामी का दाग; अस्सी और नब्बे के दशक में हिंदी सिनेमा के नायकों की एक पूरी खेप इस फ़ॉर्मूले की छत्र-छाया में पलती-बढ़ती आई है. ‘त्रिशूल और ‘दीवार के बच्चन जहाँ सिनेमा की मुख्यधारा में ‘गंगा जमुना सरस्वती तक, समीक्षकों से लेकर समर्थकों तक, सबके चहेते बने रहे, बाद के सालों में ‘आदमी और ‘फूल और अंगार’ जैसी फिल्मों के साथ मिथुन ने भी आम जनता में अपनी पैठ काफ़ी मज़बूत की. एक वक़्त तो ऐसा भी गुजरा है कि मिथुन की फिल्मों में बहन का होना ही फिल्म में कम से कम एक बलात्कार के सीन होने की गारंटी समझा जाने लगा था. खैर, कई सालों से रह रह कर ग़लतफ़हमी सी होने लगी थी कि हिंदी सिनेमा अपने उस बजबजाते हुए गंदे-बदबूदार दौर से बाहर निकल आया है, और अब उस तरफ लौटकर दोबारा देखने की हिमाकत भी शायद ही करेगा!

सर पीट लीजिये, क्यूंकि रोहित शेट्टी ने बड़ी बेहयाई से ये कारनामा कर दिखाया है. फ़ॉर्मूला फिल्मों के शहंशाह और नए दौर के ‘मनमोहन देसाई बनने की शेखी में शेट्टी 2018 में, जहां महिला-सशक्तिकरण के प्रचार-प्रसार के लिए सब ऐंड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं, बलात्कार जैसे गंभीर मुद्दे को न सिर्फ अपनी फिल्म के टुटपूंजिया नायक को ‘अच्छा साबित करने की कोशिश में खर्च कर देते हैं, बल्कि अपनी कमअक्ली और असंवेदनशील समझ के जरिये (बॉक्स-ऑफिस पर) धन-उगाही के लिए भी ख़ूब निचोड़ते हैं. हालाँकि शेट्टी से उम्मीदें किसी की भी कुछ ज्यादा यूं भी नहीं होती हैं, फिर भी अपने बेवजह के एक्शन और बेवकूफाना स्टंट्स के मायाजाल को छोड़ कर जिस बेशर्मी से वो बलात्कार पर समाज को नैतिक शिक्षा का सबक सिखाने निकल पड़ते हैं, ‘सूप और छलनी’ वाली कहावत याद आ जाती है. पिछली फिल्मों का संज्ञान न भी लें, तो रोहित शेट्टी अपनी इस फिल्म में भी महिलाओं के प्रति शर्मनाक रवैया ज़ाहिर करने से बाज़ नहीं आते, वरना बलात्कार की पीड़िता की हत्या का शोक मनाने बैठे लोगों के बीच नायक से ‘चार दृश्यों और इतने गानों की मेहमान’ नायिका को ‘एक अच्छी सी चाय पिला दो का आदेश दिलवाने का क्या तुक बैठता है? सिर्फ एक, या तो फिल्म के लेखक और निर्देशक हैं ही इतने कमअक्ल या फिर उनका फिल्म में इस्तेमाल ‘फेमिनिस्ट एप्रोच सिर्फ एक ढोंग है और कुछ नहीं?

संग्राम भालेराव (रणवीर सिंह) एक महा-भ्रष्ट पुलिसवाला है, जो पैसे के लिए ही इस महकमे में शामिल हुआ है. अपराधियों (सोनू सूद) के लिए ज़मीन खाली करवाने से लेकर उनके ड्रग्स के कारोबार में आँखें मूँद कर मदद करने तक, भालेराव पैसे के लिए किसी भी हद तक गिर सकता है. उसके सर पे बिजली तभी गिरती है, जब उसकी मुंहबोली बहन का बलात्कार उसके ही आकाओं द्वारा अंजाम दिया जाता है. रिश्वत को सही ठहराने की दलील में ‘कोई रेप थोड़े ही न किया है का दंभ भरने वाला अचानक ही अपने आसपास की औरतों से बलात्कारियों की संभावित सज़ा पर राय लेने उठ खड़ा होता है. साथ ही, गुंडों को ताबड़तोड़ पीटते हुए ‘वो मेरी बहन थी, वो मेरी बहन थी का मन्त्र भी जपने लगता है. अदालत में पैरवी करते वक़्त भी बलात्कार के भयावह आंकड़ों को पेश करते हुए उसकी मुट्ठियाँ तन जाती हैं, और आप बस यही सोचते रहते हैं कि अगर वो लड़की इस घटिया पुलिस वाले की बहन न होती तो इन आंकड़ों का आज कहाँ अचार बन रहा होता?

हिंदी सिनेमा का एक वर्ग है, जो अपनी सोच का दायरा जाने-अनजाने बढ़ाने से कतराता है. ‘सिम्बा में गिनती के एक या दो दृश्यों को छोड़ दें, तो पूरी फिल्म में कुछ भी ऐसा नहीं है जो आपने बीस-तीस साल पहले ही हिंदी फिल्मों में न देख लिया हो. ‘घटना के वक़्त तो मुलजिम शहर में ही नहीं था’ जैसी दलीलें सुनकर जब भालेराव अदालत में चौंकता है, तो मन करता है कि एक थप्पड़ लगाऊं और पूछूं कि फिर किस बात का बॉलीवुड फैन है, रे, तू?? ऊपर से संवाद भी इतने घिसे-पिटे कि आप खुद ब खुद किरदारों के साथ दोहराते जाएँ. ये वो फिल्म है, जहां लड़की गुंडों के अड्डे पर पहुँच जाती है, और पकड़े जाने पर ‘मैं अभी जाकर पुलिस को सब बता दूँगी अक्षरशः दोहरा देती है. ये वही वाली फिल्म है, जहां बलात्कारियों के इकबालिया बयान के लिए उन्हें बार-बार ‘नामर्द और ‘नपुंसक बोल बोल उकसाया जाता है. और यही वो वाली फिल्म भी है, जहां खलनायक अपने माँ, बीवी, बच्चों के सामने अपने धंधे की बात करने से झिझकता है. तो, अपनी अपनी याददाश्त के हिसाब से फिल्म का नाम चुनिए, और बैठ जाईये मेल कराने.

‘सिम्बा में, पुलिसवालों की बीवियां, बेटियाँ, बहुएं दोपहर के खाने के वक़्त अक्सर टिफिन लेकर थाने में हाज़िर हो जाती हैं, और फिर जिस तरह का हंसी-ठट्ठे से भरपूर घरेलू माहौल जमता है, लगता है जैसे आप अचानक रोहित शेट्टी की फिल्म से निकल कर सूरज बड़जात्या की फिल्मों में दाखिल हो गये हैं. इस एक ग़लतफहमी का सुख उन सब दुखों पर भारी पड़ता है, जहां फिल्म बलात्कार पर प्रवचनों की झड़ी लगा देती है. कभी जज साहिबा के मुंह से, तो कभी अपने महिला सह-कलाकारों के जरिये! अभिनय में, रणवीर की जिस ऊर्जा का अक्सर सब जिक्र करते हैं, भरपूर मात्रा में है. इस आदमी को एक बंद कमरे में रख कर गुपचुप भी शूट कर लो, तो कुछ न कुछ मनोरंजक निकल ही आएगा, लेकिन क्या ये वो फिल्म है जिसमें हमें रणवीर की उस ऊर्जा का जश्न मनाना चाहिए? बिलकुल नहीं.       

आखिर में; एक आजमाया पैमाना बताता हूँ. जिस फिल्म में अश्विनी कल्सेकर की अदाकारी आपको हताश करे, उससे किसी भी तरह का कोई उम्मीद मत रखिये. ‘सिम्बा अपनी मौलिक तेलुगु फिल्म ‘टेम्पर का बहुत कुछ अपनाते हुए भी आखिर का नाटकीयता भरा अंत छोड़ कर अपनी ही एक बेहद साधारण अंत का चुनाव करती है, जिसमें अजय देवगन जैसे स्टार की भूमिका पर ज्यादा दांव खेला गया है. इसे आप रोहित शेट्टी की ‘हिट खोजने की तरफ एक और समझदारी के नजरिये से भी देख सकते हैं. इतना महिमामंडन बहुत है, आज के ज़माने का ‘मनमोहन देसाई’ कह कर मनोरंजन के फ़ॉर्मूले का मखौल मत उड़ाइये! साल की सबसे वाहियात फिल्म!! [0.5/5]   

Sunday, 23 December 2018

साल 2018 के नगीने!

साल काफ़ी चौंकाने वाला रहा. उम्मीदों पर खरा न उतरना हिंदी सिनेमा के लिए कोई नयी बात नहीं है, पर बॉक्स-ऑफिस पर सफलता की गारंटी समझे जाने वाले बड़े-बड़े नामों को दर्शकों ने जिस बेरूखी से नकारने का जिम्मा उठाया, वो ज़रूर एक नयी उम्मीद जगाता है. यह साल वो रहा, जब सिनेमा में भाषाई प्रयोग ख़ूब हुए भी, चले भी. हॉरर को ख़ूब तवज्जो मिली. पहले ‘परी’, फिर ‘स्त्री और आखिर तक आते-आते ‘तुम्बाड’; कभी हास्य में डुबो कर, तो कभी खालिस कहानी कहने की पुरानी परम्पराओं में पिरो कर.  

वक़्त है, एक बार फिर मुड़के देखने का. पूरे का पूरा साल अच्छे, बुरे के खांचे में. 


सर्वश्रेष्ठ 5 फ़िल्में

  1. अक्टूबर
अक्टूबर’ जूही चतुर्वेदी के निडर लेखनशूजित सरकार के काबिल निर्देशन और वरुण धवन के सहजसरल और सजीव अभिनय का मिला-जुला इत्र हैजो फिल्म ख़तम होने के बाद तक आपको महकता रहेगामहकाता रहेगा. बॉक्स-ऑफिस पर सौ करोड़ करने की दौड़ चल रही होऔर ऐसे आप सिनेमा के लिए अक्टूबर’ जैसा कुछ बेहद खुशबूदारखूबसूरत और ख़ास लिख रहे होंकिसी बड़े मजे-मंजाये फिल्म-लेखक के लिए भी इतनी हिम्मत जुटाना हिंदी सिनेमा में आसान नहीं है. ऐसा होते हुए भी हमने कम ही देखा है. जूही चतुर्वेदी इस नक्षत्र का एकलौता ऐसा सितारा हैं.

  1. तुम्बाड
हॉरर फिल्मों का एक दौर थाजब हमने फिल्मों में कहानी ढूँढनी छोड़ दी थीऔर डरने के नाम पर पूरी फिल्म में सिर्फ दो-चार गिनती के हथकंडों का ही मुंह देखते थे. कभी कोई दरवाजे के पीछे खड़ा मिलता थातो कभी कोई सिर्फ आईने में दिखता था. पिछले महीने ‘स्त्री’ ने हॉरर में समझदार कहानी के साथ साफ़-सुथरी कॉमेडी का तड़का परोसा था. इस बार ‘तुम्बाड़’ एक ऐसी पारम्परिक जायके वाली कहानी चुनता हैजो हमारी कल्पनाओं से एकदम परे तो नहीं हैंपर जिसे परदे पर कहते वक़्त राही बर्वे और उनके लेखकों की टीम अपनी कल्पनाओं की उड़ान को आसमान कम पड़ने नहीं देती.

  1. मुक्काबाज़
'मुक्काबाज़कोई 'स्पोर्ट्सफिल्म नहीं हैजो खिलाड़ियों की जीत का रोमांच बेचने में यकीन रखती होपर जितनी देर भी परदे पर खेलों-खिलाड़ियों और उनके इर्द-गिर्द जाल की तरह फैले राजनीति के बारे में बोलती हैअसल स्पोर्ट्स फिल्म ही लगती है. यूँ तो फिल्म में बॉक्सर श्रवण हैं, 'मुक्काबाज़में सबसे जोरदार घूंसे और मुक्के अनुराग कश्यप की तरफ से ही आते हैं. कभी तीख़े व्यंग्य की शक्ल मेंतो कभी मज़ेदार संवादों के ज़रिये.

  1. मुल्क
अनुभव सिन्हा की मुल्क’ देश में बढ़ते धार्मिक उन्मादसाम्प्रदायिकता और आम जन के मन में पल-बढ़ रहे पूर्वाग्रहोंकुतार्किक अवधारणाओं और आपसी भेदभाव को कटघरे में खड़े करते हुएकुछ बेहद जरूरी और कड़े सवाल सामने रखती है. हालाँकि अपनी बनावट में फिल्म थोड़ी पुराने ज़माने और ढर्रे की जरूर जान पड़ती हैपर मुल्क’ अपनी बात जोरदार तरीके से कहने में ना ही कमज़ोर पड़ती हैना ही डरती-सहमती है.

  1. अन्धाधुन
सरकारी बस स्टेशनों और रेलवे प्लेटफार्म पर सरकते ठेलों पर बिकने वाले सस्ते उपन्यासों की शकल याद हैजिनके मुख्यपृष्ठ हाथ से पेंट किये गये 80 के दशक के मसाला फिल्मों का पोस्टर ज्यादा लगते थेऔर हिंदी साहित्य का हिस्सा कमजिनकी कीमत रूपये में भले ही कम रही होकीमत के स्टीकर हिंदी में अनुवादित जेम्स हेडली चेज़ के साथ-साथ वेद प्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे अपने मशहूर लेखकों के नामों से हमेशा बड़े दिखते थेआम जनता के सस्ते मनोरंजन के लिए ऐसे मसालेदार साहित्य अंग्रेज़ी में ‘पल्प फिक्शनऔर हिंदी में ‘लुगदी साहित्य’ के नाम से जाने जाते हैं. श्रीराम राघवन सिनेमाई तौर पर हिंदी की इसी ‘लुगदी’ को सिनेमा की उस धारा (फ्रेंच में NOIR या ‘नुआं’ के नाम से विख्यात) से जोड़ देते हैंजहां किरदार हर मोड़ पर स्वार्थी होकर किसी बड़े उद्देश्य के लिए अपनी भलमनसाहत गिरवी रखने को हमेशा तैयार मिलते हैं.


योग्य 10 फ़िल्में

  1. स्त्री
स्त्री’ एक ऐसी फिल्म हैजो आपको डराती भी हैहंसाती भी हैऔर ये सब करते हुए आपसे बात भी बहुत करती है. कुछ बेहद ख़ास बातेंफेमिनिज्म की बातेंजिन्हें सुनना और सुन कर समझना आपकी अपनी समझ के दायरे को परिभाषित करती हैं.

  1. बधाई हो
‘बधाई हो’ एक बेहद मनोरंजक पारिवारिक फिल्म हैजो कम से कम उस वक़्त तक तो आपको अपने माँ-बाप के बीच के रिश्तों को समझने की मोहलत देती हैजितने वक़्त तक आप परदे के सामने हैं. पति-पत्नी से माँ-बाप बनने तक के सफ़र में जिम्मेदारियों के बोझ तले दम तोड़ते अपने रोमांस को वापस जिलाना होया उनके गुपचुप रोमांस का जश्न मनाने की हिम्मत जुटानी हो‘बधाई होजवान बच्चों से लेकर बूढ़े माँ-बाप तक सबके लिए है!

  1. राज़ी
मेघना गुलज़ार की राज़ी अतिवादी देशप्रेम के फलते-फूलते-फैलते सिनेमाई फ़ॉर्मूले को कुछ इस मजबूती और ठोस तरीके से नकारने का बीड़ा उठाती है कि भारत-पाकिस्तान के बीच झूलती कहानी  होने के बावजूद परदे पर एक बार भी तिरंगे तक को किसी भी अनुपात में दिखाने की पहल नहीं करती. यहाँ तक कि वतन के आगे कुछ नहींखुद भी नहीं’ जैसे वजनी संवाद का ज़िक्र भी आपको तालियाँ पीटने के लिए उकसाता या बरगलाता नहींबल्कि आपको ज़ज्बाती तौर पर किरदारों को समझने और उनके जेहनी हाल-ओ-हालात से वाकिफ होने में ज्यादा मददगार साबित होता है.

  1. परी
डरावनी फिल्मों में अंधविश्वासलोक कथाओं और पुरानी मान्याताओं का बोलबाला रहता ही है. ऐसी फिल्मों मेंऐसी फिल्मों से तार्किक या वैज्ञानिक होने की उम्मीद करना अपने आप में एक भुलावे की स्थिति है. प्रोसित भी अपनी पहली फिल्म के तौर पे 'परी- नॉट अ फेयरीटेलमें दकियानूसी होने से परहेज़ नहीं करतेपर इस बार की कहानी सतही तौर पर दकियानूसी होने के बावजूदअपने आप में 'और भीबहुत कुछ कहने की गुंजाईश बाकी रखती है. 

  1. मंटो
‘मंटो’ हालिया दौर में एक बेहद जरूरी फिल्म हैजो कुछ ऐसे चुभते सवालों के साथ आपका ध्यान खींचती हैजिनका सीधा सीधा लगाव देशदेश में रहने वाले लोगोंउनकी आवाज़उनकी आज़ादी और साथ हीदेश और धर्म से जुड़े ढेर सारे कुचक्रों से है. सच्चाई क्यूँ न कही जाएजैसी की तैसीमंटो हिंदुस्तान-पाकिस्तानहिन्दू-मुसलमान और श्लील-अश्लील जैसे दायरों में कैद हो सकने वालों में से नहीं थे. इस फिल्म को भी ऐसे किसी भी दायरों से अलग कर के देखे जाने की जरूरत है.

  1. पटाखा
विशाल भारद्वाज की ‘पटाखा’ अपनी गंवई पृष्ठभूमिरोचक किरदारों और उनके बीच घटने वाली मजेदार घटनाओं के साथ हिंदी कहानी की चिर-परिचित शैली को परदे पर उकेरने की एक बेहद सफल कोशिश है. विशाल इससे पहले शेक्सपियर और रस्किन बॉन्ड के साहित्य को सिनेमाई रूप दे चुके हैं. इस बार भीजब वो दर्शकों के लिये चरण सिंह पथिक की एक छोटी कहानी ‘दो बहनें’ को चुनते हैंमनोरंजन की कसौटी पर कोई चूक नहीं करते.

  1. ओमार्ता
हम अल्लाह के बन्दे हैं’, ‘अल्लाह हमारे साथ है’, जैसे घिसे-पिटे संवादों से भरे दो-चार मौलानाओं की दकियानूसी और फ़िल्मी बर्गालाहट भरे दृश्यों को नज़रंदाज़ कर देंतो किसी आतंकवादी की एकलौती बायोपिक होने के साथ-साथ ओमार्ता’ एक जरूरी और बेहद मुश्किल फिल्म हैदेखने के लिए भी और बनाने के तौर पर भी. फिल्म किसी तरह का कोई सन्देश देने की या फिर एक मुकम्मल अंत देने की जिद से बचती हैइसलिए और भी सच्ची लगती है.

  1. मनमर्ज़ियाँ
सिमरनें अब राज से ‘शादी से पहले वो नहीं’ का वादा नहीं लेतींराज ‘हिन्दुस्तानी लड़की की इज्ज़त क्या होती है’ जानने का दम नहीं भरता. जबरदस्ती शादी के लिए माँ-बापपरिवार की दुहाई देने पर लड़की भावुक होकर चुपचाप मेहंदी की डिज़ाइन पसंद करने नहीं बैठ जाती. मंडप तक जाने का फैसला अब सिर्फ उसका हैचाहे ऐसा करते उसकी अपने साथ हीअपने अन्दर ही कितनी ज़ज्बाती लड़ाई क्यूँ न चल रही होसमाज का रवैया भले नहीं बदल रहा होकिरदार चुपके चुपके ही सहीबदल रहे हैं. उनकी कहानियाँ बदल रही हैं. और ‘मनमर्ज़ियाँ’ के साथ अनुराग कश्यप भी.

  1. रेड
‘रेड एक बेहद कसी हुई फिल्म है, तकनीकी तौर पर भी और अभिनय की नज़र से भी. महज़ दो घंटे की फिल्म में, बंधी-बंधाई लोकेशन परबिना किसी तड़क-भड़क वाले ड्रामा केलगातार मनोरंजक बने रहनावो भी ऐसे कथानक के साथ जो किसी को भी आसानी से नाराज़ या अपमानित न करता होअपने आप में ही सफल होने के काफी आयाम छू लेता है. ये फिल्म सबूत है कि सौरभ शुक्ला कितने काबिल अदाकार हैं...और अजय देवगन कितने अच्छे हो सकते हैंअगर गोलमाल जैसी फिल्मों के प्रभाव से दूर रह पाने का लोभ-संवरण कर पायें तो.  

  1. लैला मजनू

बॉलीवुड ने एक अरसे तक लैलाओं को बार-गर्ल’ और आइटम-गर्ल’ बना रख छोड़ा थासमाज और सरकारों ने मजनुओं को वैसे ही बदनाम कर रखा हैऐसे में साजिद अली की लैला मजनू’ मुकम्मल तौर पर प्रेम-कहानियों की गिरती साख को ऊपर उठाती है. नाकाम इश्क़ग़मगीन अंजाम और जूनूनी आशिक़ये कहानी पुरानी ही सहीआज भी उतनी ही असर रखती हैबशर्ते आप दिली तौर पर तैयार हों.



सबसे सफल 5

  1. वरुण धवन (अक्टूबर, सुई धागा)
अक्टूबर में वरुण को दानिश बनते देखना बेहद सुकून भरा है. यकीन मानिए, ‘जुड़वा 2’ की शिकायतें आपको याद भी नहीं आतीं. रंग बदलनाढंग बदलना और अपने किरदार में तह तक उतरते चले जानाताज्जुब नहींवरुण अभिनय-प्रयोगों में अपने समकालीन अभिनेताओं से काफी आगे निकल गये हैं.

  1. रणबीर कपूर (संजू)
संजू’ पूरी तरह रनबीर में ढली-रची-बसी फिल्म है. सोनम कपूर के साथ बाथरूम वाला दृश्य होया फिर परेश रावल के साथ इमोशनल सीन्सरनबीर संजय दत्त की तरह सिर्फ चलनेबोलने या दिखने से परे लगते हैं. परदे पर उनके होते हुए कुछ और देखने-सुनने की चाह भी नहीं रहती.

  1. आलिया भट्ट (राज़ी)
राज़ी’ की सफलता में आलिया भट्ट की बाकमाल अदाकारी की हिस्सेदारी काफी बड़ी है. लिंगभेद के चक्कर में न पड़ेंतो फिल्म का नायक वहीँ हैं. महज़ 25 साल की उमर में इस तरह का परिपक्व अभिनय बेहद कम अभिनेताओं के हिस्से आया होगा. ये उनके किरदार की मासूमियत और उनके खुद के बारीक अभिनय का नतीजा ही है कि आप दर्शक के तौर परखुफ़िया गतिविधियों में हर वक़्त उनकी सलामती के लिए फिक्रमंद महसूस करते हैं.

  1. आयुष्मान खुराना (अंधाधुन, बधाई हो)
‘अन्धाधुन’ आयुष्मान की सबसे मुश्किल फिल्म है. कलाकार के तौर पर उनकी मेहनत और शिद्दत साफ़ नज़र आती है. फिल्म की कहानी में छलावे कितने भी होंपियानो पर उनकी उंगलियाँ पूरी सटीक गिरतीउठतीफ़िसलती हैं. कुछ न देख पाने और कुछ न देख पाने को जताने की कोशिश में उनकी क़ाबलियत निखर कर सामने आती है.

  1. राजकुमार राव (ओमार्ता, स्त्री)

ओमार्ता’ राजकुमार राव के कद्दावर अभिनय में एक और तमगा है. जिस ख़ामोशी और ठहराव से वो उमर के किरदार में दाखिल होते हैंऔर फिर वक़्त-बेवक्त उसके गुस्सेउसकी सनक और उसकी नफरत को बराबर मात्रा में नाप-जोख के परदे पर निकालते हैंदेखने लायक है.



सबसे चहेते 15 अदाकार 

  1. गजराज राव (बधाई हो)
  2. विनीत कुमार सिंह (मुक्काबाज़)
  3. नीना गुप्ता (बधाई हो)
  4. रजत कपूर (परी)
  5. नारी सिंह (कालाकांडी)
  6. जिम सरभ (पद्मावत)
  7. जयदीप अहलावत (राज़ी)
  8. सौरभ शुक्ला (रेड)
  9. प्रियांशु पेन्यूली (भावेश जोशी सुपरहीरो)
  10. विक्की कौशल (संजू, मनमर्ज़ियाँ)
  11. पंकज त्रिपाठी (स्त्री)
  12. अविनाश तिवारी (लैला मजनू)
  13. राधिका मदान (पटाखा)
  14. गीतांजलि राव (अक्टूबर)
  15. यामिनी दास (सुई धागा)

Friday, 21 December 2018

ज़ीरो: शाहरुख़ के करिश्मे और कद के सामने छोटी पड़ती फिल्म! [2/5]


ये साल हिंदी सिनेमा के महानायकों को औंधे मुंह गिरते हुए देखने का है. ख़ास तौर पर खानों (सलमान, आमिर, शाहरुख़) की तिकड़ी दर्शकों की कसौटी पर कतई खरी नहीं उतर रही. सलमान ‘रेस 3’ में अपने आपको बड़ी बेहयाई और दंभ से बार-बार दोहराने का खामियाज़ा भुगत चुके हैं. मनोरंजन के नाम पर भव्यता की चमकीली पन्नी में लपेट कर कुछ भी सस्ता और सड़ा-गला परोसने के लिए, ‘ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान’ में आमिर नकारे जा चुके हैं; और अब अनोखी लेकिन बेतुकी और अजीब सी ‘ज़ीरो’ में शाहरुख़ अपने करिश्मे के बूते एक ऐसी फिल्म चलाने की कोशिश करते नज़र आ रहे हैं, जो जितनी जादुई और मनोरंजक है, उतनी ही थका देने वाली भी. हालाँकि बाकी दोनों मिसालों की बनिस्पत, ‘ज़ीरो कम से कम अपनी कमजोरियों और कमियों का ठीकरा अपने मुख्य नायक की क़ाबलियत पर तो नहीं ही फोड़ सकती! शाहरुख़ अपने पूरे शबाब पर हैं, और गनीमत है कि परदे पर उनका बौनापन सिर्फ उनके किरदार के कद तक ही सीमित रहता है, अभिनय पर तनिक भी हावी नहीं होता.

परदे पर छोटे शहरों के रोमांस में आनंद एल राय बड़ा नाम बन चुके हैं. ‘ज़ीरो की शुरुआत भी छोटे से शहर मेरठ से होती है, जहां शाहरुख़ जैसे बड़े नाम को कहानी में ‘फिट करने के लिए छोटा (बौना) बनने की शर्त से गुज़ारा जाता है. खेल बराबरी का होना चाहिए. बऊआ सिंह (खान) हिंदी में ‘अड़तीस’ और इंग्लिश में ‘थर्टी नाइन का हो चुका है, पर शादी की कोई सूरत नहीं बन रही. कद में छोटा बऊआ सपने में बड़ा बन जाता है. छोटे शहर का है, तो अमेरिका से लौटी, शराब-सिगरेट पीने वाली लड़की को शादी के बारे में सोचते देख झल्ला जाता है. ‘तू कहाँ से पड़ गयी इन चक्करों में?’. छोटे शहर का है, मर्द है तो जिद भी कि लड़की को बऊआ सिंह में इंटरेस्ट दिखाना ही होगा. बऊआ चंट है. मतलबी भी, और कोयल भी. खुद का घोंसला बनाने से चिढ़ मचती है. चाहे लड़की उसने खुद चुनी हो, अपने बराबरी की. व्हीलचेयर पर चिपकी, सेलेब्रल पल्सी से लड़ती, नासा की वैज्ञानिक (अनुष्का शर्मा).

फिल्म के लेखक हिमांशु शर्मा छोटे शहरों के चाल-चलन, ताव-तेवर और लय-लहज़ा का काफी कुछ भले ही पहले की फ़िल्मों में परोस चुके हों, ‘ज़ीरो में कहीं से भी उसके जायकों में कमी या बासीपन नहीं आने देते. उनके चुटीले संवादों में और बऊआ सिंह के बेशरम किरदार में आपकी दिलचस्पी अब भी बनी रहती है. दिक्कत पेश आती है, जब कहानी को बड़ी करने के लिए आनंद एल राय और हिमांशु बिना वजह तरकीबें लड़ाने लगते हैं. पतंगें उड़ाती ‘तनु वेड्स मनु की छत ‘ज़ीरो तक आते आते पैसों की बारिश कराने वाले छज्जे बन जाते हैं. रिक्शे पर घर लौटती तनु हो, या चौराहे पर पिटता कुंदन; गलियाँ-रस्ते अब ताज़ा-ताज़ा रंगे-पुते सेट बन गये हैं. भरोसेमंद किरदारों की भीड़ से अलग, कहानी में फ़िल्मी जगत के सितारों का बेरोक-टोक आना-जाना बढ़ गया है. एक सुपरस्टार (सलमान), दो कोरियोग्राफर (गणेश आचार्य, रेमो डिसूज़ा) और स्क्रीन पर करिश्माई मौजूदगी दर्ज कराने वाले दो काबिल अभिनेताओं (अभय देओल, आर माधवन) के साथ-साथ आधा दर्ज़न भर सिने-सुंदरियां (काजोल, रानी, दीपिका, जूही, श्रीदेवी, करिश्मा), मानो बऊआ के छोटे से कद में बखूबी घुसे शाहरुख़ अभी निकल कर ‘लक्स’ के बाथटब में छलांग मार देंगे.  

‘ज़ीरो अपनी कहानी में कुछेक अनोखे मोड़, अधूरेपन का जश्न मनाते किरदारों और उनकी सपनीली दुनिया के ज़रिये कई बार एक प्यारी सी, फंतासी रोमांस वाली ‘डिज्नी फिल्म होने का जोरदार आभास कराती है; खास कर अपने अंत की ओर बढ़ते हुए. इतना ही नहीं, हर वक़्त मनोरंजक होने की शर्त पूरी करने की ललक में फिल्म का पहला हिस्सा राजकुमार हिरानी की फिल्मों की भी याद ख़ूब दिला जाता है, लेकिन ये सारी उम्मीदें धीरे धीरे धुंआ होती जाती हैं. अभिनय में, अनुष्का की मेहनत साफ़ दिखती है. सेलेब्रल पल्सी और व्हीलचेयर के साथ भी, उनके चेहरे के भाव कितनी ही बार बरबस आपके चेहरे पर मुस्कान खींच देते हैं. ब्रेकअप के बाद बेपरवाह फिल्मस्टार की छोटी सी ही भूमिका में कटरीना कैफ़ अपनी सबसे रोमांचित कर देने वाली छाप छोड़ जाती हैं. तिग्मांशु धूलिया जमते हैं, और ज्यादा दिखाई देने की चाह पैदा करते हैं.

...लेकिन ‘ज़ीरो शाहरुख़ से अलग करके नहीं देखी जा सकती. बऊआ सिंह बनकर शाहरुख़ ना सिर्फ सुपरस्टार होने की उस अकड़ को तोड़ फेंकते हैं, जिसे हटाने की उम्मीद उनसे हाल-फिलहाल की जाने लगी थी; बल्कि ऐसा करते हुए वो अपने उस गुजरे हुए जादुई दौर को भी वापस जी लेते हैं, जहां उनका करिश्मा उनके किरदार की सच्चाइयों से पैदा होता था. बऊआ सिंह के सूरत और सीरत का हुलिया काफी हद तक ‘राजू बन गया जेंटलमैन’, ‘कभी हाँ कभी ना’ और ‘यस बॉस जैसी फिल्मों में उनके किरदारों से मेल खाता दिखता है. ‘जियरा चकनाचूर गाने में सलमान के चारो ओर जोश में नाचते बऊआ सिंह को देखना बरबस आपको शाहरुख़ की लगन, एनर्जी और सिनेमा को लेकर उनकी गंभीरता का मुरीद बना देगा. बऊआ सिंह को एक और मौका मिलना ही चाहिए.

आखिर में; ‘ज़ीरो फिल्म के तौर पर शाहरुख़ के करिश्मे और उनके मजेदार किरदार के कद के आगे बहुत छोटी पड़ जाती है. हालाँकि आनंद एल राय शाहरुख़ के कन्धों पर चढ़कर एक नया आसमान नापने की कोशिश पूरी करते हैं, पर तकरीबन पौने तीन घंटे की फिल्म में ज्यादातर वक़्त हवाबाजी में ही खर्च कर देते हैं. अगर सिर्फ फिल्म का पहला हिस्सा देखने की बात हो, तो मैं दो बार और देख सकता हूँ, पर शायद दूसरे हिस्से में फिल्म के बुरी तरह लड़खड़ाने का दर्द मुझे तब भी थिएटर से दूर ही रखेगा! [2/5]