Monday, 30 May 2016

वीरप्पन (A): बोर-प्पन, शोर-प्पन! [1.5/5]

(वीरप्पन देख चुके और देखने जाने वाले दो दर्शकों के बीच की बातचीत का एक अंश)

“सुना है, राम गोपाल वर्मा लौट आये हैं?”
“हाँ, भाई! लौट आये हैं.”
सत्या वाले?”
“कहाँ तुम भी...”
“...तो? कंपनी वाले?”
“मज़ाक न करो”
भूत वाले तो होंगे?”
“....(चुप)”
सरकार?....सरकार राज?”
“(झुंझला कर) अज्ञात वाले हैं. रक्त-चरित्र वाले हैं. आया समझ?”
“(आह भरते हुए)...चलो, आग वाले तो नहीं हैं ना!”

अगर आप भी सिर्फ इसी बात से तसल्ली कर लेने के लिए तैयार बैठे हैं कि चलो, राम गोपाल वर्मा वापस तो गए, ऐसे हाल में उनकी नयी फिल्म ‘वीरप्पन’ आपको ज्यादा निराश नहीं करेगी. आख़िरकार इसमें ऐसा कुछ अलग या अनोखा तो है नहीं, जो आपको झटका दे दे, चौंका दे. वही सब तो है जिसके लिए राम गोपाल वर्मा जाने जाते हैं और जिसके लिए आप उनके, उनकी फिल्मों के मुरीद हैं. किसी एक के कंधे से होते हुए दूसरे के चेहरे पे चढ़ता कैमरा, जिन्हें हम OTS (over the shoulder) शॉट पुकारते हैं, कानफाड़ू बैकग्राउंड म्यूजिक, एक्टिंग के नाम पर आड़े-तिरछे चेहरे बनाना और डायलॉग्स एकदम सतही-सपाट; रामू एक बार फिर अपने (उस) आप को दोहराने में सफल साबित होते हैं, जिसे हममें से कोई भी अब और बर्दाश्त करने के मूड में नहीं दिखता.

राम गोपाल वर्मा जिस शिद्दत से जुर्म की कालिख में लिपे-पुते चेहरों में अपने नायक ढूंढते रहते हैं, कुख्यात चन्दन तस्कर वीरप्पन ऐसा लगता है जैसे उन्हीं के लिए गढ़ा गया हो. एक ऐसा जीवंत किरदार जो खूंखार हो, वहशी हो, निर्मम हो और जिसका हिंसा के साथ एक पागलपन वाला रिश्ता हो, राम गोपाल वर्मा के लिए कोई और दूसरा इससे बेहतर ढूंढ पाना मुश्किल था. बेहतर होता, रामू इसे महज़ अपना ‘कमबैक’ न मान कर थोड़ा और महत्वाकांक्षी हो पाते. वीरप्पन की रोबदार मूंछों वाली छवि को परदे पर उतार भर लेने की कामयाबी से ही रामू इतने उत्साहित लगने लगते हैं कि उसके किरदार की बर्बरता को उकेरना भूल ही जाते हैं. एक-दो दृश्यों को छोड़ दें, तो पूरी फिल्म में वीरप्पन के खौफ से ज्यादा गोलियों का शोर आपको अधिक विचलित करता है. अपने आपराधिक जीवनकाल में वीरप्पन ने तकरीबन सौ पुलिसवालों की हत्या की थी, राम गोपाल वर्मा फिल्म में इस गिनती का पीछा करते थकते नहीं, मानो वीरप्पन के वीरप्पन बनने में इसी एक अदद गिनती का हाथ रहा हो.

अभिनेता संदीप भारद्वाज का हूबहू वीरप्पन की तरह दिखना और लगना अगर वीरप्पन फिल्म का सबसे कामयाब पहलू है, तो सचिन जोशी [पुलिस वाले की भूमिका में] का ठंडा अभिनय सबसे कमज़ोर. उसके ऊपर पूरी फिल्म में उन्हीं की आवाज़ के साथ कहानी का आगे बढ़ना; आप को पता चल गया होगा असली मुजरिम कौन है? वैसे फिल्म अगर कहीं आपको सचमुच बाँधने की कोशिश करती है तो वो है वीरप्पन की पत्नी लक्ष्मी का ट्रैक. स्पेशल टास्क फ़ोर्स अपने ही एक अधिकारी की विधवा पत्नी [लीज़ा रे] को लक्ष्मी [उषा जाधव] के करीब ले जाती है, जहां पूरी कहानी दोनों के इर्द-गिर्द घूमने लगती है. यहाँ भी उषा जाधव तो अपने अभिनय में सधी और संपन्न नज़र आती हैं, पर लीज़ा के लिए अभी भी अभिनय उतना ही मुश्किल लगता है जितना उनका साफ़ तरह से हिंदी बोल पाना. वो नर्गिस फाखरी की याद दिलाती हैं, अजीब अजीब तरह के चेहरे बनाती हैं, जैसे वो किसी फिल्म का नहीं, बालाजी टेलीफिल्म्स के सास-बहू सीरियल्स का एक ऐसा किरदार हों जो बैकग्राउंड में बोलना ज्यादा पसंद करता हो और बात-बात पर गर्दन टेढ़ी करके आँखें छोटी-बड़ी करता रहता हो.

आखिर में सिर्फ इतना ही, राम गोपाल वर्मा की वीरप्पन शोर बहुत करती है, कहती बहुत कम. रामू अगर बॉलीवुड में इसे अपनी वापसी का जरिया मान रहे हों, तो मैं कहूँगा आपको अभी भी कुछ दिन और एकांतवास में रहना चाहिए. मेरा इंतज़ार अभी ख़तम नहीं हुआ. “मेरे राम गोपाल वर्मा आयेंगे! ज़रूर आयेंगे!!” कब? पूछिए मत! [1.5/5] 

Friday, 27 May 2016

वेटिंग (A): नसीर-कल्कि का अभिनय ही काफी है! [3/5]

अस्पताल के ‘वेटिंग रूम’ में खाली कैनवस जैसी बेदाग़-बेरंग दीवार पे टंगी घड़ी में सिर्फ छोटी-बड़ी दो सुईयां ही नज़र आ रही हैं. सही, सटीक और तय वक़्त जानने के लिए घंटों की गिनती और उनके बीच के मिनटों के फ़ासले जैसे किसी ने रबर से मिटा दिए हों. यहाँ इनकी कोई ख़ास जरूरत भी नहीं है. जब इंतज़ार का रास्ता लम्बा हो तो घंटे-मिनट-सेकंड वाले छोटे-छोटे मील के पत्थरों को नज़रअंदाज़ करना ही पड़ता है. कुछ ने इस फ़लसफ़े को अच्छी तरह समझ लिया है, जैसे प्रोफेसर शिव नटराज [नसीर साब] जिनकी पत्नी पिछले आठ महीनों से कोमा में हैं. तारा देशपांडे [कल्की] के लिए अभी थोड़ा मुश्किल है. शादी को अभी 6 महीने ही हुए थे और आज तारा का पति [अर्जुन माथुर] एक रोड-एक्सीडेंट के चलते आईसीयू में भर्ती है. दुःख को झेलने-सहने और समझने के अलग-अलग पड़ाव होते हैं, प्रोफेसर अगर आख़िरी पड़ाव पर हैं तो तारा के लिए अभी शुरुआत ही है.

अनु मेनन की ‘वेटिंग’ ज़िन्दगी और मौत के बीच के खालीपन से जूझते दो ऐसे अनजान लोगों के इर्द-गिर्द घूमती है जिनमें कहने-सुनने-देखने में कुछ भी एक जैसा नहीं है, पर एक पीड़ा, एक व्यथा, एक दुविधा है जो दोनों को एक दूसरे से बांधे रखती है. प्रोफ़ेसर शिव धीर-गंभीर और शांत हैं, जबकि तारा अपनी झुंझलाहट-अपना गुस्सा दिखाने में कोई शर्म-लिहाज़ नहीं रखती. तारा को मलाल है कि ट्विटर पर उसके पांच हज़ार फ़ॉलोवर्स में से आज उसके पास-उसके साथ कोई भी नहीं, जबकि प्रोफ़ेसर को अंदाज़ा ही नहीं ट्विटर क्या बला है? इसके बावज़ूद, अपने अपनों को खो देने का डर कहिये या फिर वापस पा लेने की उम्मीद, दोनों एक-दूसरे से न सिर्फ जुड़े रहते हैं, अपना असर भी एक-दूसरे पर छोड़ने लगे हैं. ‘नम्यो हो रेंगे क्यों का जाप करने वाली तारा कभी खुद को नास्तिक कहलाना पसंद करती थी, कौन मानेगा? वहीँ प्रोफ़ेसर को आज ‘एफ़-वर्ड’ कहने में भी कोई दिक्कत पेश नहीं आती.

वेटिंग’ बड़ी ईमानदारी से और बहुत ही इमोशनल तरीके से इन दो किरदारों के साथ आपको ज़िन्दगी के बहुत करीब लेकर जाती है. हालाँकि अस्पताल जैसा नीरस-उदास और बेबस माहौल हो तो फिल्म के भी उसी सांचे में ढल जाने का डर हमेशा बना रहता है, पर अतिका चौहान के मजेदार संवाद हमेशा इस नीरसता को तोड़ने में कामयाब रहते हैं. फिल्म जहां एक तरफ बड़ी संजीदगी से आपको लगातार ज़िन्दगी और मौत से जुड़े कुछ अहम् सवालों के आस-पास खींचती रहती है, दूसरी ओर वो इस कोशिश में भी लगी रहती है कि आपका दिल नम रहे, चेहरे पर मुस्कराहट बराबर बनी रहे और आप बड़ी तसल्ली से तकरीबन सौ मिनट की इस फिल्म का पूरा लुत्फ़ लें.

अभिनय में नसीर साब और कल्कि एक दूसरे को पूरी तरह कम्पलीट और कॉम्प्लीमेंट करते नज़र आते हैं. नसीर साब के साथ एक ख़ास सीन में, जहां दोनों एक-दूसरे पर बरबस बरस रहे होते हैं, कल्कि अपनी एक  अलग छाप छोड़ने में सफल रहती हैं. नसीर साब के तो कहने ही क्या! मतलबी से दिखने वाले डॉक्टर की भूमिका में रजत कपूर, बनावटी दोस्त की भूमिका में रत्नाबली भट्टाचार्जी और बेबाक, दो-टूक सहकर्मी बने राजीव रविन्द्रनाथन जंचते हैं.

सिनेमा बदल रहा है. सिनेमा से ‘अति’ विलुप्त होता जा रहा है. अनु मेनन की ‘वेटिंग’ भी इसी अहम् बदलाव का एक हिस्सा है. (इस तरह की) फिल्मों में नाटकीयता के लिए अब शायद ही कहीं कोई जगह बची है. कथानक से अब बेमतलब के ज़ज्बाती रंग हटने लगे हैं. जिसे जो कहना है, उसी लहजे से कह रहा है जिसमें उस किरदार की पैठ हो. तैयार रहिये, कई बार ये आपको विचलित भी कर सकता है. [3/5]

Friday, 20 May 2016

सरबजीत: बहना, ओ बहना! [2/5]

मुख्य भूमिकायें सितारों की किस्मत होती हैं, चमचमाती थाली में रख कर ड्राइंग रूम में परोस दी जाती हैं. सहायक भूमिकायें अक्सर अभिनेताओं की झोली में उनकी मेहनत का नजराना समझकर डाल दी जाती हैं. कम से कम बॉलीवुड में बॉक्स-ऑफिस के इर्द-गिर्द मंडराती रहने वाली ‘बड़ी’ फिल्मों का तो यही लब्बो-लुबाब है. ओमंग कुमार की ‘सरबजीत’ उन्ही चंद फिल्मों में से एक है.

सरबजीत [रणदीप हुडा] सालों से पाकिस्तानी जेल में हिन्दुस्तानी जासूस होने के शक़ में कैद है. बहन दलबीर कौर [ऐश्वर्या राय बच्चन] की लगातार कोशिशों का दम-ख़म देखिये कि आज सरबजीत का पूरा परिवार उस से मिलने पाकिस्तान की जेल में आया है. बीवी [रिचा चड्ढा] भर्राए गले से पूछ बैठती है, “ठीक हो?” सरबजीत [हुडा] अपनी सारी टूटती सांसें बटोर कर कहता है, “अब हूँ!” मेरे ख़याल से पूरी फिल्म का ये सबसे कामयाब, सबसे कारगर सीन है. यहाँ आपको फिल्म से शिकायतें कम रहती हैं, पर कुछ है जो अचानक आपके जेहन में बिजली की तरह कौंध गया है. सीन में मौजूद सितारे [राय बच्चन] की चकाचौंध धीमी पड़ गयी है. दोनों अभिनेताओं को [चड्ढा और हुडा] बहुत थोड़ा ही सही, फैलने का एक मौका मिल गया है और वे उसमें इस कदर कामयाब रहते हैं कि आप सोच में पड़ जाते हैं, आखिर क्यूँ हर ‘मैरी कॉम’ को जरूरत होती है ‘प्रियंका चोपड़ा’ की?

जब ऐश्वर्या अपने चीखने-चिल्लाने के प्रतिभा-प्रदर्शन में कैमरे को लताड़ने में मशगूल रहतीं हैं, अक्सर बैकग्राउंड में रिचा चड्ढा या तो भैसें नहलाने या ढहती दीवाल की ईंटें हटाने में चुपचाप लगी रहती हैं. उन्हें पता है, उन्हें सिर्फ फिल्म चलाने के लिए शामिल नहीं किया गया है. हालाँकि ओमंग कुमार उनका भी इस्तेमाल अरिजीत सिंह के गाने पर बखूबी करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे वो रणदीप को फिल्म के शुरुआत में ही ‘बैंड बाजा बारात’ का रणवीर सिंह बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते. सरबजीत की बहन के रोल में ऐश्वर्या को एक माकूल ज़मीन देने में ओमंग इतनी शिद्दत दिखाते हैं कि फिल्म में हर बूढा-बच्चा-जवान ऐश्वर्या को ‘बहनजी’ ही कह के बुलाता है. उस पर डॉयलागबाजी का आलम कुछ यूँ कि ‘ग़दर’ का सनी देओल भी तौबा कर ले!

ग़ालिब अपने एक शे’र में कहते हैं, “मुश्किलें पड़ीं मुझपे इतनी कि आसां हो गयीं”. ओमंग कुमार भी ‘सरबजीत’ की कहानी में मुश्किलों को पहले तो यूँ सामने ला पटकते हैं मानो अब कुछ भी हल मुमकिन नहीं, फिर अगले ही पल उन्हें कुछ इस अंदाज़ से दुरुस्त कर देते हैं, जैसे पहले उनका कोई नाम-ओ-निशाँ ही न रहा हो. फिल्म अपने इसी लचर रवैये की वजह से अक्सर सच्चाई से परे झाँकने लगती है. सरबजीत का पाकिस्तानी जेल में लगातार अपने परिवार के साथ चिट्ठियों से जुड़े रहना, दलबीर कौर का बार-बार पाकिस्तान आना-जाना, वहाँ के लोगों को मुंहतोड़ जवाब देना; सब कुछ एक बॉलीवुड फिल्म के दायरे में बड़ी आसानी से समा जाता है.   

आखिर में, ओमंग कुमार की ‘सरबजीत’ रणदीप हुडा, रिचा चड्ढा और अपने छोटे से मजेदार रोल में दर्शन कुमार [मैरी कॉम, एनएच 10 वाले] के अच्छे अभिनय के बावजूद, ऐश्वर्या के उकता देने वाले अभिनय [???], धीमी गति और कहानी में बनावटीपन के पुट की वजह से आपके दिल तक शायद ही पहुँच पाए. [2/5]     

Friday, 13 May 2016

अज़हर: वन्स अपॉन अ टाइम इन क्रिकेट [1/5]

शुरुआत में ही, अपने तीन पैराग्राफ लम्बे बयान [Disclaimer] के साथ ‘अज़हर’ विवादों से बचने और कुछ बहुत जरूरी सवालों से मीलों दूर रहने की समझदार कोशिश में दर्शकों पर इतनी शर्तें लाद देती है कि कहना मुश्किल हो जाता है, आप एक जीते-जागते शख्सियत पर बनी एक ईमानदार फिल्म देखने जा रहे हैं या फिर एक पूरी तरह मनगढ़ंत कहानी. फिल्म की विश्वसनीयता, नीयत और सूरत का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि अगर इसका नाम ‘अज़हर’ न होकर ‘जन्नत 3’ या ‘वन्स अपॉन टाइम इन क्रिकेट’ भी होता, तो भी फिल्म की सीरत में कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखता. आखिर में रहती तो ये इमरान हाशमी की ही फिल्म. आगे बढ़ने से पहले एक Disclaimer मैं भी पढ़ देना चाहता हूं, “आगे की पंक्तियों में ‘अज़हर’ शब्द का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ फिल्म के शीर्षक और फिल्म के मुख्य किरदार के लिए किया जा रहा है. इसका किसी भी मशहूर क्रिकेटर या पूर्व सांसद से कोई लेना देना नहीं है.” लीजिये, अब मैं भी फिल्म की राह पर पूरी तरह स्वच्छंद और स्वतंत्र हूँ, कुछ भी उल-जलूल लिखने-कहने के लिए!

99वें टेस्ट मैच में शानदार प्रदर्शन के बाद, अज़हर [इमरान हाशमी] अब अपने नानूजान [कुलभूषण खरबंदा] के सपने से सिर्फ एक मैच और दूर है, जब उसे मैच-फिक्सिंग के इल्ज़ाम में क्रिकेट खेलने से बैन कर दिया जाता है. इस फिल्म वाले अज़हर को भारतीय क्रिकेट टीम के सबसे कामयाब कप्तान मोहम्मद अज़हरुद्दीन के रूप में देखने की गलती करने की आपको पूरी छूट है, हालाँकि मुझे ये दोनों [परदे का अज़हर और असलियत के अज़हरुद्दीन] वो दो जुड़वाँ भाई लगते हैं जिनका आपस में कुछ भी मिलता नहीं. न शकल, न हाव-भाव! 

हाँ, फिल्म की कुछ घटनाएं और किरदार जरूर आपको इस भूल-भुलैय्ये में उलझाये रखते हैं कि आप एक सच्ची कहानी देख रहे हैं. मसलन, अज़हर के साथ ड्रेसिंग रूम शेयर करते मनोज प्रभाकर [करणवीर शर्मा], नवजोत सिंह सिद्धू [मंजोत सिंह], रवि शास्त्री [गौतम गुलाटी], कपिल देव [वरुण वडोला] और अज़हर की जिंदगी में खासा दखल रखने वाली 90 के दशक की खूबसूरत बॉलीवुड एक्ट्रेस संगीता बिजलानी [नरगिस फाखरी]. इन सबमें अगर कोई अपने किरदार के बहुत करीब तक पहुँच पाने में कामयाब हुआ है तो वो हैं सिर्फ नरगिस. उनका और संगीता बिजलानी दोनों का ही एक्टिंग से कभी कोई सरोकार रहा नहीं.  

हालाँकि ‘अज़हर’ सनसनीखेज बने रहने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देती, पर दिक्कत वहां मुंह बाये खड़ी हो जाती है जब फिल्म ईमानदारी से कहानी कहने की बजाय अज़हर को ‘हीरो’, ‘बेक़सूर’ और ‘बेचारा’ बनाने और बताने की जी-तोड़ कोशिश आप पर थोपने लगती है. रोमांच और रोमांस का तड़का जिस सस्ते, हलके और ठन्डे तरीके से फिल्म में परोसा जाता है, आप मोहम्मद अज़हरुद्दीन [फिल्म वाला नहीं, असली वाला] से सिर्फ हमदर्दी ही जता पाते हैं. ‘देश’, ‘मुल्क’ और ‘कौम’ जैसे भारी-भरकम शब्दों के बार-बार खोखले इस्तेमाल से अगर आप बच भी जाएँ, तो ‘सच ये, सच वो’ का जुमला आपका दम घोंटने के लिए काफी है. रजत अरोरा के दोयम दर्जे के संवाद सिर्फ शब्दों की हेरा-फेरी तक ही अपना जादू चला पाते हैं. उनके मायने ढूँढने की गलती कीजियेगा भी मत.

अज़हर’ एक निहायत ही डरपोक किस्म की नाकाबिल फिल्म है जो सिर्फ उन बातों को चुनती है, जिनके कहने-सुनने में किसी तरह का कोई अन्तर्विरोध पैदा न हो. एक बहुत ही हलकी फिल्म जो अपने ‘हीरो’ के साथ कहीं से भी कोई न्याय नहीं करती! फिल्म में बुकी से पैसे लेकर भी अच्छा खेल जाने पर अज़हर की सफाई सुनिए, “मैंने पैसे रख लिए ताकि तुम किसी और खिलाड़ी तक पहुँच न सको...तुम्हारे पैसे वापस भिजवा रहा हूँ’. अब अपनी कहानी में तो सब खुद ही हीरो होते हैं, इसमें नया क्या है? बस्स, इस कहानी में दम नहीं! [1/5]                

Friday, 6 May 2016

ट्रैफिक: बैठे रहिये, बाजपेयी हैं ना! [3/5]

दिवंगत राजेश पिल्लै की मलयालम सुपरहिट थ्रिलर ‘ट्रैफिक’ का हिंदी रीमेक आपको थिएटर की कुर्सी से बांधे रखने के लिए गिने-चुने विकल्प ही सामने रखता है, जिनमें से एक तो है फिल्म की हद इमोशनल स्टोरीलाइन, और मनोज बाजपेयी का बेहद सटीक, संजीदा और समर्पित अभिनय. तकनीकी दृष्टि से फिल्म के कमज़ोर पल हों या कथानक को रोमांचक बनाये रखने के लिए नाटकीयता भरे उतार-चढ़ाव, मनोज बड़ी मुस्तैदी, ख़ामोशी और शिद्दत से ड्राइविंग सीट पर बैठे-बैठे पूरी फिल्म को अकेले खींच ले जाते हैं. हालाँकि अच्छे और नामचीन अभिनेताओं की एक पूरी जमात आपको इस फिल्म का हिस्सा बनते दिखाई देती है, पर एक मनोज ही हैं जिनसे, जिनके अभिनय से और जिनकी कोशिशों से आप लगातार जुड़े रहते हैं...हमेशा!

सच्ची घटनाओं को आधार बना कर, ‘ट्रैफिक’ मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत एक ऐसी दिलचस्प और रोमांचक कहानी आप तक पहुंचाती है, जहां जिंदगी तमाम मुश्किलों और मायूसियों के बावज़ूद आखिर में जीत ही जाती है. कभी न हार मानने वाले इसी इंसानी जज़्बे को सलाम करती है ‘ट्रैफिक’! फिल्मस्टार देव कपूर (प्रोसेनजीत चटर्जी] की बेटी को पुणे में जल्द से जल्द हार्ट ट्रांसप्लांट की दरकार है. पता चला है कि मुंबई के एक अस्पताल में एक ऐसा ‘पॉसिबल डोनर’ है जिसके जिंदा रहने की उम्मीद अब लगभग दम तोड़ चुकी है. माँ-बाप (किटू गिडवानी और सचिन खेड़ेकर) अपने बेटे को ‘दी बेस्ट गुडबाई गिफ्ट’ देने का मन बना चुके हैं पर मुंबई से पुणे तक १६० किलोमीटर की दूरी को ढाई घंटे में पूरा करने का बीड़ा कौन उठाये? ट्रैफिक हवलदार रामदास गोडबोले (मनोज बाजपेयी) के लिए ये सिर्फ ड्यूटी बजाने का मौका नहीं है. मिशन पर जाने से पहले वो अपनी बीवी से कहता है, “पता नहीं कर पायेगा या नहीं, पर घूसखोर का लांछन लेके नहीं जीना”.

फिल्म पहले हिस्से में कई बार अपनी ढीली पकड़ और सुस्त निर्देशन से आपको निराश करती है, खास कर जब किरदार एक-एक कर आपके सामने बड़ी जल्दी-जल्दी में परोस दिए जाते हैं. फिल्म को तेज़ रफ़्तार देने के लिए, घटनाओं को घड़ी की टिक-टिक के बीच बाँट कर दिखाने का चलन भी बहुत घिसा पिटा लगता है. हालाँकि इंटरवल आपको हल्का सा असहज महसूस कराने में कामयाब होता है. दूसरे हिस्से में फिल्म जैसे एकाएक सोते हुए जग जाती है और बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ने लगती है, पर फिर ड्रामा के नाम पर जिस तरह के उतार-चढ़ाव शामिल होने लगते हैं, उनमें गढ़े होने की बू दूर से ही नज़र आने लगती है. ऐसा लगता है मानो जिंदगी की ये दौड़ अब कोई सस्ती सी विडियो गेम बन कर रह गई है, जहाँ मुश्किलें जानबूझ के हर मोड़ पे और बड़ी होती जा रही हैं. मलयालम फिल्मों में वैसे भी ये कोई नया चलन नहीं.

पियूष मिश्रा जैसे वजनी नामों के बाद भी ‘ट्रैफिक’ के संवाद उतने ही फीके और उबाऊ हैं, जितने उसके नामचीन कलाकारों के बंधे-बंधे बासी अभिनय. प्रोसेनजीत दा का किरदार जाने-अनजाने अनिल कपूर के इतना इर्द-गिर्द बुना गया है कि उससे बाहर उन्हें देख पाना मुश्किल हो जाता है. दिव्या दत्ता, किटू गिडवानी, जिम्मी शेरगिल, सचिन खेड़ेकरपरमब्रता चटर्जी  सभी को हम पहले भी इस खूंटे से बंधे देख चुके हैं. सब अपने घेरे अच्छी तरह पहचानते हैं और उसे तोड़ने की पहल से बचते नज़र आते हैं.

इतने सब के बाद भी, ‘ट्रैफिक’ अपने जिंदा जज़्बे, सच्ची कहानी के तमगे, कुछेक गिनती के ही सही सचमुच के रोमांचक पलों और मनोज बाजपेयी के मजबूत कन्धों के सहारे एक अच्छी फिल्म कहलाने की खुशकिस्मती हासिल कर लेती है. मनोज मिसाल हैं, संवाद अभिनय का एक अभिन्न अंग है, मात्र एक अभिन्न अंग...पूरे का पूरा अभिनय नहीं. देखिये, अगर उनके जरिये अभिनय के बाकी रंग भी देखने हों! देखिये, अगर एक थ्रिलर देखनी हो जिसमें दिल हो, एकदम जिंदा ‘धक-धक’ धड़कता हुआ! [3/5]