(वीरप्पन देख चुके और देखने जाने वाले दो दर्शकों के बीच की बातचीत का एक अंश)
“सुना है, राम गोपाल वर्मा लौट आये
हैं?”
“हाँ, भाई! लौट आये हैं.”
“सत्या वाले?”
“कहाँ तुम भी...”
“...तो? कंपनी वाले?”
“मज़ाक न करो”
“ भूत वाले तो होंगे?”
“....(चुप)”
“ सरकार?....सरकार राज?”
“(झुंझला कर) अज्ञात वाले हैं. रक्त-चरित्र
वाले हैं. आया समझ?”
“(आह भरते हुए)...चलो, आग वाले
तो नहीं हैं ना!”
अगर आप भी सिर्फ इसी बात से तसल्ली कर
लेने के लिए तैयार बैठे हैं कि चलो, राम गोपाल वर्मा वापस
तो आ गए, ऐसे हाल में उनकी नयी फिल्म ‘वीरप्पन’ आपको
ज्यादा निराश नहीं करेगी. आख़िरकार इसमें ऐसा कुछ अलग या अनोखा तो है नहीं, जो आपको
झटका दे दे, चौंका दे. वही सब तो है जिसके लिए राम गोपाल वर्मा जाने जाते हैं और
जिसके लिए आप उनके, उनकी फिल्मों के मुरीद हैं. किसी एक के कंधे से होते हुए दूसरे
के चेहरे पे चढ़ता कैमरा, जिन्हें हम OTS (over the shoulder) शॉट पुकारते हैं,
कानफाड़ू बैकग्राउंड म्यूजिक, एक्टिंग के नाम पर आड़े-तिरछे चेहरे बनाना और डायलॉग्स
एकदम सतही-सपाट; रामू एक बार फिर अपने (उस) आप को दोहराने में सफल साबित होते हैं,
जिसे हममें से कोई भी अब और बर्दाश्त करने के मूड में नहीं दिखता.
राम गोपाल वर्मा जिस शिद्दत से जुर्म की
कालिख में लिपे-पुते चेहरों में अपने नायक ढूंढते रहते हैं, कुख्यात चन्दन तस्कर
वीरप्पन ऐसा लगता है जैसे उन्हीं के लिए गढ़ा गया हो. एक ऐसा जीवंत किरदार जो
खूंखार हो, वहशी हो, निर्मम हो और जिसका हिंसा के साथ एक पागलपन वाला रिश्ता हो, राम
गोपाल वर्मा के लिए कोई और दूसरा इससे बेहतर ढूंढ पाना मुश्किल था. बेहतर होता, रामू
इसे महज़ अपना ‘कमबैक’ न मान कर थोड़ा और महत्वाकांक्षी हो पाते. वीरप्पन की रोबदार
मूंछों वाली छवि को परदे पर उतार भर लेने की कामयाबी से ही रामू इतने उत्साहित
लगने लगते हैं कि उसके किरदार की बर्बरता को उकेरना भूल ही जाते हैं. एक-दो
दृश्यों को छोड़ दें, तो पूरी फिल्म में वीरप्पन के खौफ से ज्यादा गोलियों का शोर
आपको अधिक विचलित करता है. अपने आपराधिक जीवनकाल में वीरप्पन ने तकरीबन सौ पुलिसवालों
की हत्या की थी, राम गोपाल वर्मा फिल्म में इस गिनती का पीछा करते थकते नहीं, मानो
वीरप्पन के वीरप्पन बनने में इसी एक अदद गिनती का हाथ रहा हो.
अभिनेता संदीप भारद्वाज
का हूबहू वीरप्पन की तरह दिखना और लगना अगर वीरप्पन फिल्म का सबसे कामयाब पहलू है, तो सचिन जोशी [पुलिस
वाले की भूमिका में] का ठंडा अभिनय सबसे कमज़ोर. उसके ऊपर पूरी फिल्म में उन्हीं की
आवाज़ के साथ कहानी का आगे बढ़ना; आप को पता चल गया होगा असली मुजरिम कौन है? वैसे फिल्म
अगर कहीं आपको सचमुच बाँधने की कोशिश करती है तो वो है वीरप्पन की पत्नी लक्ष्मी
का ट्रैक. स्पेशल टास्क फ़ोर्स अपने ही एक अधिकारी की विधवा पत्नी [लीज़ा रे]
को लक्ष्मी [उषा जाधव] के करीब ले जाती है, जहां पूरी कहानी दोनों
के इर्द-गिर्द घूमने लगती है. यहाँ भी उषा जाधव तो अपने अभिनय में सधी
और संपन्न नज़र आती हैं, पर लीज़ा के लिए अभी भी अभिनय उतना ही मुश्किल लगता है
जितना उनका साफ़ तरह से हिंदी बोल पाना. वो नर्गिस फाखरी की याद
दिलाती हैं, अजीब अजीब तरह के चेहरे बनाती हैं, जैसे वो किसी फिल्म का नहीं, बालाजी
टेलीफिल्म्स के सास-बहू सीरियल्स का एक ऐसा किरदार हों जो बैकग्राउंड में बोलना
ज्यादा पसंद करता हो और बात-बात पर गर्दन टेढ़ी करके आँखें छोटी-बड़ी करता रहता हो.
आखिर में सिर्फ इतना ही, राम गोपाल
वर्मा की वीरप्पन शोर बहुत करती है, कहती बहुत कम. रामू अगर बॉलीवुड में इसे
अपनी वापसी का जरिया मान रहे हों, तो मैं कहूँगा आपको अभी भी कुछ दिन और एकांतवास
में रहना चाहिए. मेरा इंतज़ार अभी ख़तम नहीं हुआ. “मेरे राम गोपाल वर्मा आयेंगे!
ज़रूर आयेंगे!!” कब? पूछिए मत! [1.5/5]