बच्चों की फिल्म बचकानी हो, वो भी अमोल गुप्ते जैसे संजीदा और काबिल फिल्ममेकर की कलम से निकली और उन्हीं के निर्देशन में बनी, तो हर छोटी गलती भी जैसे गुनाह लगने लगती है. बच्चों को लेकर उनका नजरिया, उनकी ईमानदारी, उनकी समझदारी पहले 'तारे ज़मीन पर', फिर 'स्टैनली का डब्बा' और 'हवा हवाई' में खूब निखर कर सामने आई है. भारत में वैसे ही बच्चों की फिल्में कम ही बनती हैं, और जो बनती भी हैं, दिमागी तौर पर बच्चों को हमेशा कम आंकने की भूल करती आई हैं. बच्चों की पसंद-नापसंद से ज्यादा, उनसे जुड़ी सामजिक समस्याओं को उनके ही नजरिये से पेश करने में, गुप्ते छोटी फ़िल्मों को भी बेहद बड़ी और जरूरी बना देते हैं. ऐसी ही एक छोटी फिल्म 'स्निफ़' गुप्ते की लाख कोशिशों के बाद भी, मनोरंजन और अहमियत दोनों में छोटी ही रह जाती है.
सन्नी (खुशमीत गिल) के साथ एक दिक्कत है. वो सुन सकता है, देख सकता है, पर सूंघ नहीं सकता. मसालेदार अचार के बिज़नेस में पीढ़ियाँ खपा देने वाले परिवार का चिराग सूंघ ही नहीं पाए, तो दिक्कत और बड़ी लगने लगती. वो तो भला हो स्कूल के केमिकल लैब में हुई दुर्घटना का, जिसके बाद सन्नी न सिर्फ सब कुछ सूंघ सकता है, बल्कि दो-दो किलोमीटर तक की चीजें सूंघ सकता है. जल्द ही, उसकी ये 'सुपरपावर' उसे शहर में हो रही गाड़ियों की चोरी के मामले की तह तक पहुँचने को प्रेरित करती है और अब सन्नी का जासूसी दिमाग उसकी नाक की तरह की तेज़ी से काम करने लगा है.
भारत में ऐसी फिल्मों की भरमार है, जिसमें बच्चे अपनी उम्र से आगे और ऊपर बढ़ कर भरपूर बहादुरी का परिचय देते हुए किसी न किसी गिरोह का भंडाफोड़ करके 'हीरो' बन जाते हैं. अमोल गुप्ते ने अपनी पिछली तीनों फिल्मों में इस वाहियात ढर्रे को तोड़ते हुए नए तरह की समझदारी दिखाई और हर बार सफल भी रहे. 'स्निफ़' पता नहीं क्यूँ, किस दिमागी दिवालियेपन के चलते वापस इसी ढर्रे की तरफ मुड़ जाती है. सनी ढेर सारे मोबाइल फ़ोन के साथ सीसीटीवी सेटअप तैयार कर लेता है. चोरों को पकड़ने अकेला निकल पड़ता है. परदे पर चोरों का गिरोह शराब पीते हुए दिखाया जाता है, ताकि सन्नी को उनके चंगुल से निकलने का मौका मिल सके. सन्नी की सोसाइटी में हर भाषा, हर प्रान्त से कोई न कोई रहता है. बच्चों की फिल्म में एक बंगाली इंस्पेक्टर अपने पति पर ताबड़तोड़ थप्पड़ बरसाती है, क्यूंकि उसने चोरी से मिठाई खा ली थी और अब उसका शुगर लेवल बढ़ गया है. इस एक दृश्य को बड़े तक पचा नहीं सकते, बच्चे तो क्या ही मज़े लेंगे? हालाँकि फिल्म के देखे जाने लायक दृश्यों में भी गुप्ते की वही समझदारी दिखाई देती है, पर सिर्फ झलकियों में. स्कूल के कुछ दृश्य हों, या फिर सन्नी के किरदार में खुशमीत का अभिनय; बाल कलाकारों की पूरी मण्डली बड़ों से कहीं ज्यादा धीर-गंभीर दिखाई देती है और अपने स्तर पर पूरा मनोरंजन करती है.
आखिर में; अमोल गुप्ते की 'स्निफ़' एक बेहद औसत दर्जे की फिल्म है, जो न तो किसी भी तरह बच्चों का भरपूर मनोरंजन करने में ही कामयाब साबित होती है, ना ही उनसे जुड़े किसी भावनात्मक मुद्दे को पेश कर बड़ों का ध्यान खींचने में. फिल्म में सन्नी जब तक सूंघ नहीं पाता, उसमें संभावनाओं और भावनाओं का एक पूरा समन्दर छिपा दिखाई देता है; सूंघ लेने की क्षमता आते ही, एक बार फिर अमोल गुप्ते उसे आम बच्चों में ही ला खड़ा कर देते हैं. मैं जानता हूँ जज्बाती तौर पर ऐसा कहना अमानवीय होगा, पर इससे अच्छा तो सन्नी ठीक ही न होता. फिल्म बेहतर हो जाती! [2/5]